मुझे पंचायत सीजन 1 के खत्म होते होते बहुत निराशा हुई. बहुत खोजा, कोई एजेंडा ही नहीं दिखा…
मैंने कहा, यह सब सिर्फ पॉपुलैरिटी लेने का तरीका है. देखना, सीजन 2 आते आते उसमें कास्ट कॉन्फ्लिक्ट, फेमिनिज्म, सोशलिज्म…कुछ तो एजेंडा घुसाएंगे…
पूरा सीजन 2 खत्म हो गया, बहुत निराशा हुई. कोई एजेंडे नहीं है…बस साफ सुथरा एंटरटेनमेंट…ऐसे कैसे चलेगा भाई…
देश किधर जा रहा है…इधर सुप्रीम कोर्ट ज्ञानवापी की जांच करवाता है, उधर पूरी पूरी वेब सीरीज बिना एजेंडा के बन जाती है.
पंचायत सीरीज में सभी पात्र ब्राह्मण हैं… इससे शिकायत है… क्यों, क्या हमारे देश में कोई एक गांव बाभनों का नहीं होता? और क्या उसकी कहानी नहीं कही जा सकती? वर्षों से बॉलीवुड ने विलेन को हमेशा त्रिपाठी, पांडे, शुक्ला दिखाया है और नेक और ईमानदार बंदा कोई अब्दुल, कोई असलम हुआ करता है. सबकी मदद करने वाला कोई फादर डिसूजा हुआ करता था. एक कहानी ऐसी सुनाई गई जिसमें यह ट्रेंड टूट गया यह बर्दाश्त नहीं हो रहा.
पंचायत ने सारे पात्र एक ही जातीय वर्ग से दिखाए… इसका सबसे बड़ा नुकसान क्या हुआ? कोई जातीय समीकरण ही नहीं बना. समाज में जहर बोने का एक अवसर हाथ से चला गया. यह बात लिबरल्स को नहीं पच रही है. यह बहुत गलत ट्रेंड है…ऐसा होने लगा तो सिनेमा की उपयोगिता क्या रह जायेगी? कॉन्फ्लिक्ट नैरेटिव कैसे बनेगा?
कल से भूषण भाई का महिमामंडन देख रहा हूं, कि भूषण भाई समाज का एक जरूरी अंग है..उसके दबाव में समाज में काम हो रहा है.
जबकि इस सीरीज में एक भी काम भूषण भाई के दबाव में नहीं हो रहा, जो टॉयलेट बने वे खुद ही बने, जो सीसीटीवी कैमरा लगा वह खुद ही लगा. भूषण ने सिर्फ कचड़ा ही फैलाया है.
पर यह एक फील गुड कथानक है तो भूषण भाई एक माइल्ड कैरेक्टर हैं, वरना असल जिंदगी के भूषण भाई इससे कई गुना अधिक जहरीले हैं. असली भूषण भाई बिनोद को सिर्फ पाखाना करने खेत में नहीं भेजता, वह उसके टॉयलेट की दीवार भी गिरा देता. असली भूषण प्रह्लाद चा के बेटे की मृत्यु पर आंखें नम नहीं करता बल्कि खुशी से नाच रहा होता. भूषण सिर्फ कुंठा और नकारात्मकता का बना है. भूषण वामपंथी है, उसकी जूत-कुटाई होनी चाहिए, ना कि उसका महिमामंडन.