विदुर नीति शठे शाठ्यं समाचरेत् ! नहीं जानते नरेंद्र मोदी , थप्पड़ खाने के लिए दूसरा गाल परोसना ज़रुर जानते हैं लोगबाग कह रहे हैं कि क़ानून व्यवस्था के नाम पर पंजाब में अब राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिए।…
दयानंद पांडेय
दयानंद पांडेय
आत्म-कथ्य : पीड़ित की पैरवी कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।
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हिंदी कहानी को समकालीन दुनिया से जोड़ने वाले कमलेश्वर का इस तरह बिछड़ के जाना बहुत सालता है। उन के निधन के कुछ दिन पहले ही जब उन से फ़ोन पर बात हुई तो वह अपनी कई योजनाओं के बारे…
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पश्चिम बंगाल नरेंद्र मोदी का पहला गाल था। पंजाब दूसरा गाल है। अब गाल दोनों लाल हैं। आप को गांधी जी का यह कहा याद ही होगा कि कोई यदि तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उस के सामने…
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दयानन्द पांडेराजनीति
मोदी नाम का दीमक कांग्रेस को चाट कर खत्म किये जा रहा है ?
by दयानंद पांडेय 332 viewsमोदी नाम का एक दीमक कांग्रेस को चाट कर कैसे खत्म किए जा रहा है , कांग्रेस को पता ही नहीं बहुत शोर था एक समय कश्मीरियत का। अब पंजाबियत का सुन रहा हूं। समझ नहीं आता कि हिंदुस्तानियत कहां…
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इतिहासदयानंद पांडेयमीडियामुद्दाराजनीतिलेखक के विचारसामाजिक
यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया
by दयानंद पांडेय 236 viewsतब प्रिंट का समय था। पर जल्दी ही नेट का समय आ गया। उस में भी यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया ले कर उपस्थित हुए। 2001 में अपने-अपने युद्ध छपा था। 9 साल बाद 2010 में भड़ास पर अपने-अपने युद्ध का धारावाहिक…
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दयानन्द पांडेमुद्दाराजनीतिलेखक के विचारसामाजिक
हुसैनीवाला बार्डर के बहाने…
by दयानंद पांडेय 201 viewsहुसैनीवाला बार्डर के बहाने कांग्रेस ने अपने ताबूत में एक और कील ठोंक ली कोई माने न माने पर मेरा स्पष्ट आकलन है कि हुसैनीवाला बार्डर पर जल्दी ही भाजपा एक रैली फिर से आयोजित करेगी और नरेंद्र मोदी…
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तरह-तरह की तमाम बातें जो सामने आ रही हैं , उन से पता चलता है कि सत्ता की आदती रही कांग्रेस सत्ता से विछोह बर्दाश्त नहीं कर पा रही। सो कांग्रेस की मति मार गई है। बुरी तरह। उस के…
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चलचित्रदयानंद पांडेयलेखक के विचारसामाजिक
जादू है , नशा है / मदहोशियां हैं : जिस्म
by दयानंद पांडेय 233 viewsउन्हीं दिनों एक फिल्म आई थी जिस्म। जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु अभिनीत इस फिल्म में एक गाना तब खूब हिट हुआ था , जादू है , नशा है / मदहोशियां हैं । जितना मादक गीत था , उस से…
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वह रास्ते में अचानक रुक गया। नजारा ही कुछ ऐसा था। एक बीस-बाइस साल की गोरी चिट्टी लड़की तेज-तेज चलती जा रही थी और उस के पीछे-पीछे एक पचास-पचपन साल का आदमी लगभग दौड़ता हुआ, ‘सुनो तो! मेरी बात तो…
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कथा-लखनऊ की जब बात चली तो अपने घर गोरखपुर की भी याद आई। साथ ही कथा-गोरखपुर की भी योजना जब प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो को बताई तो वह सहर्ष तैयार हो गए। बिना किसी ना-नुकुर के। तो कथा-लखनऊ और…
