Home हमारे लेखकइष्ट देव सांकृत्यायन कोरोना की पहली दस्तक भारत में

कोरोना की पहली दस्तक भारत में

by Isht Deo Sankrityaayan
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मुझे याद है, जनवरी 2020 में जब कोरोना ने भारत में दस्तक दी ही थी, उन्हीं दिनों अपने को एनआरआई और बहुत बड़ा डॉक्टर बताने वाले किन्हीं सज्जन का विडियो यूट्यूब पर वाइरल हुआ था। कुछ न्यूज चैनलों के एंकरों की तरह अपने को जबरिया सेलब्रिटी मनवाने वाले किसी यूट्यूबर ने उनका इंटरव्यू किया था। दोनों आत्मश्लाघा में इस कदर मस्त कि सात-आठ अरब की दुनिया की आबादी उन्हें शायद घास-फूस जैसी लग रही थी। अपने को मेडिकल साइंस का बहुत बड़ा रिसर्चर बताने वाले उन सज्जन का दावा था कि कोरोना जैसा कुछ है ही नहीं। ये तो केवल शी जिनपिंग और डोनल्ड ट्रंप की मिली-जुली चाल है दुनिया को बेवकूफ बनाने की। उसके बाद जो हुआ और जो दुनिया अभी तक भुगत रही है, उसके बारे में तो कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
बिलकुल ऐसी ही आत्मश्लाघा से भरे अपने को मेडिकल साइंस का ही बहुत बड़ा रिसर्चर बताने वाले एक और एनआरआई का विडियो इन दिनों फिर से वाइरल हो रहा है। वे बता रहे हैं कि भारत में ओमिक्रॉन की कोई लहर नहीं आने वाली है। उधर वि.स्वा.स. (WHO) एडवाइजरी जारी कर चुका है। उसका साफ कहना है कि सभी एशियाई देशों को फरवरी में एक और लॉक डाउन के लिए तैयार रहना चाहिए। ख़ैर, वि.स्वा.स. ने पिछले दो-तीन वर्षों ने चीन के प्रति अपनी वफादारी दिखाकर जिस तरह अपने प्रति लोगों का विश्वास तोड़ा है और उससे वह जो सिद्ध हुआ है, उसे मैं फिरसे शब्द देकर आपका जायका क्यों खराब करूँ! लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि अभी हमारे पास वि.स्वा.सं. का कोई विकल्प भी नहीं है। अंततः विश्वास उसी पर करना पड़ेगा। अब अगर एक यूट्यूबर के सहारे लोकप्रिय होने में लगे ये तथाकथित एबीसीडी डॉक्टर साहब और उनका ज्ञान सही है तो प्रश्न उठता है कि क्या वि.स्वा.सं. को वाकई वही माना जाए तो यहाँ कहना ठीक नहीं होगा?
मैं यह भी देख रहा हूँ कि देश भर में सरकार और स्वास्थ्य विभाग का तंत्र चाहे कितना भी मुस्तैद हो, लेकिन भारत की जनता उतनी ही सतर्क है जितनी कि यह कानून या ट्रैफिक नियमों के पालन के प्रति रहती है। 50% लोग तो भोल ही गए हैं कि मास्क जैसी कोई चीज दुनिया में होती है। जो लगा रहे हैं उनमें भी नाक के ऊपर अधिकतम 2 प्रतिशत लोगों के मास्क दिखाई देते हैं, वरना ज्यादातर लोग अब केवल ठुड्डी ढकने के लिए मास्क लगा रहे हैं। करें भी क्या! असल में लोग साँस के जरिये कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़कर फिर मास्क लगाए रहने पर वही वापस लेते-लेते इस तरह आजिज आ गए हैं कि दिमाग ने अब काम करना बंद कर दिया है। बीते रविवार को इसी मसले पर चिकित्सक मित्र Roop Kumar से बात हो रही थी। पहले भी, 2020 में, मेरी बात रूप से ही हुई थी और उन्होंने तब जो बातें कही थीं, शब्दशः सही हुईं। मैंने उनकी सलाह मानी और उनकी सलाह पर एहतियातन होमियोपैथी की कुछ दवाएँ लीं और सुरक्षित रहा।
इस बार के हालत को रूप ने एक नया शब्द दिया – Pandemic Fatigue यानी लंबे समय तक चली महामारी से उपजी क्लांति या थकान। रूप का कहना था कि यह महामारी से ज्यादा घातक होती है। क्योंकि इसकी थकान के चलते आजिज आए लोग हद से ज्यादा लापरवाह हो गए होते हैं। यह कुछ उसी तरह का होता है जैसे मुश्किल हालात से संघर्ष करते-करते हर तरह थक गया आदमी अंततः हालात के सामने समर्पण कर देता है। महामारी के मामले में यह स्थिति सबसे ज्यादा खतरनाक होती है।
बेहतर यही होगा कि लाल बुझक्कड़ों की बात मानकर अपने को खतरे में डालने के बजाय बचकर रहें। भीड़ में जाने से जहाँ तक संभव हो बचें और अगर जाना ही पड़ जाए तो मास्क एवं सैनिटाइजर का इस्तेमाल अनिवार्य रूप से करें। अभी सावधानी को अलविदा न कहें क्योंकि जीवन सुविधा से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

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