Home विषयलेखक के विचार बुजुर्ग_नीति
बचपन में एक बार एक सहपाठी से हिंसक युद्ध हो गया।
मैं शरीर से कमजोर जरूर था पर भयंकर जिद्दी और युयुत्सु प्रवृत्ति जन्मजात थी।
हाथ-पैर कमजोर होने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि मेरे सबसे बड़े हथियार थे – ‘दाँत’
‘भेड़िये की तरह पैने केनाइन दाँत।’
प्रतिपक्षी की फिल्मी ढिंशुम-ढिशुम के बीच मेरी एकमात्र कोशिश होती थी उसके नजदीक पहुंचकर कहीं भी दाँत गड़ा देना।
उसके बाद उसकी फिल्मी हुंकारों की बजाय बस चीखें निकलती थीं।
इस बार भी यही हुआ।
फिर हमेशा की तरह कांड के बाद उपसंहार के तौर पर पिताजी के सामने मेरे वैम्पायर कृत्य की सप्रमाण शिकायत हुई।
सामने रोते प्रतिपक्षी को पिताजी आँसू पोंछकर चुप कराये और उसके बाद मेरी तशरीफ पर दो वज्रहस्त से तड़ित प्रहार हुए।
“चल भीतर तुझे बताता हूँ।” बाबा ने दहाड़ते हुए मुझे भीतर जाने का इशारा किया।
मामला निपट जाने पर फिर पेशी हुई। इस बीच माँ ने खाना लगा दिया।
“खाओ” कड़कती आवाज में बोले।
मन में रूठने और भूख हड़ताल के सारे ख्याल उसी तरह पलायन कर गए जैसे बजरंगबली के नाम से भूत-पिशाच पलायन कर जाते हैं।
खाना खाते-खाते बोले,”हाथ-पाँव का इस्तेमाल किया कर, जानवरों की तरह निशान छोड़ देता है।”
मुझे उस समय कुछ समझ नहीं आया था पर अमेरिका जिस तरह अरब देशों के सामने इजरायल को डांट रहा है और साथ ही अपना नौसैनिक बेड़ा खड़ा किये हुए है उससे बचपन की यह घटना याद आ गई।
साला, पता नहीं अमेरिकी लोग हमारे बुजुर्गों से कूटनीति का पाठ कब आकर सीख गये।

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