मुर्दों का गांव

by Isht Deo Sankrityaayan
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शास्त्र कहता है कि किसी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को देखकर, श्मशान घाट पर मृतक को देखकर और संभोग के बाद वीर्यपात हो जाने के बाद इन तीन स्थानों पर क्षणिक वैराग्य जगता है। आज हम इन तीनों विषयों पर बात करेंगे। एक दिन मैंने ही वो वीडियो रील शेयर किया था जिसमें ओशो रजनीश कहते हैं कि मरघट को गाँव के बाहर नहीं बल्कि गाँव के बीचोंबीच बनाना चाहिए, जिससे लोग दिनभर में वहाँ से पच्चीस बार गुजरें और यह मरघट उन्हें याद दिलाये कि यही तुम्हारा अंतिम निवास स्थान होनेवाला है। बुद्ध जब भी किसी को संन्यास देते थें तो उसे तीन महीने के लिए मरघट पर भेज देते थें कि वहाँ संन्यासी राख होती हुई चिताओं को देखे और उसमें शरीर की क्षणभंगुरता का स्मरण करे जिससे उसके मन में संसार के प्रति वैराग्य जग जाए।
2 मई 2016 के दिन कोलकाता में मेरे पिता जी का देहांत हुआ था। उनके शवदाह के लिए हमलोग उनके पार्थिव शरीर को लेकर निमतला घाट पहुँचे थें। चारों तरफ कोलाहल शोर हो रहा था और मैं शान्त बिना रोये-धोये जैसा लोग कह रहे थें वैसा विधि-विधान यंत्रवत किये जा रहा था। उस समय मेरा माथा भन्नाया हुआ था और पता नहीं मैं किस लोक में विचरण कर रहा था। बीच-बीच में कोलाहल के कारण ध्यान वहाँ आ जाता था और मैं आसपास के घटनाओं के प्रति सजग हो जाता था।
ऐसे ही याद आ रहा है कि एक कोलाहल जिसने मेरा ध्यान वहाँ आकर्षित किया वो था हमारे कुल पुरोहित उमेश पाठक जी पिता जी के शव के बगल में महापात्र ब्राह्मण से चीख-चीखकर लड़ रहे हैं। उमेश पाठक जी हमारे पिता जी के घनिष्ठ मित्र थें। वे उस महापात्र ब्राह्मण के डिमांड से कम धन में ही क्रियाकर्म करवा लेने को ही आज अपना मित्र धर्म निभाना मान रहे थें। मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे लग रहा था कि जो यह माँग रहे हैं, देकर छुट्टी करो।
फिर शवदाह के बाद के अस्थी निकालने के क्रियाकर्म में डोम की दादागिरी देखने को मिली। वो तो अधिक धन लेने के लिए महापात्र ब्राह्मण से भी आक्रामक रुख अपना लिया। फिर से, उमेश पाठक जी अपना मित्र धर्म निभाने के लिए उससे भीड़ गयें। लेकिन वह डोम टस से मस नहीं हुआ और अपनी शर्तों पर ही काम किया। दिनभर में यह महापात्र ब्राह्मण और डोम न जाने कितनी चिताओं को न सिर्फ जलते देखते हैं, बल्कि उसके क्रियाकर्म में सक्रिय होकर भाग लेते हैं। यह काम ये लोग वर्षों से कर रहे हैं, पर कभी इनका वैराग्य नहीं जगा। ऐसे ही उस श्मशान घाट के आसपास के पूरा आर्थिक तंत्र से जुड़े किसी भी एक व्यक्ति में वैराग्य का एक लक्षण दिखाई नहीं दिया।
इसलिए ओशो का यह कहना कि मरघट को गाँव के बीच में होना चाहिए जिससे लोगों में वैराग्य जगेगा, यह सरासर गलत है। ऐसा हुआ तो गाँव के लोग उस मरघट से इतने सहज हो जायेंगे कि रोज वहीं हर प्रकार के कुकर्म करने लगेंगे, युवा वहीं दिनभर फुटबॉल, क्रिकेट, कबड्डी खेलेंगे, रिटायर्ड बुजुर्गों के ताश खेलने का वो अड्डा बन जायेगा और कुछ बाकी बचा होगा तो लोगों का दिनभर का राजनीतिक चर्चा इसे पूरा कर देगा; आज जो दो-चार लोगों को श्मशान जाने के बाद वैराग्य जग रहा है, उसकी भी संभावना खत्म हो जायेगी।
अब इस बिन्दु पर विचार करते हैं कि क्या सचमुच रोगी व्यक्ति को देखने के बाद वैराग्य जग जाता है? मैंने अनेक अवसरों पर देखा है कि लोग किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के बीमार पड़ने पर इस अवसर को अपने संबंध प्रगाढ़ करने के सुअवसर के रूप में लेते हैं। एक बार किसी हॉस्पिटल में किसी नेता के एडमिट हो जाने के बाद तो उनसे भूतकाल में उपकृत हुए या भविष्य में उपकृत होने की संभावना रखनेवाले छुटभैया से लेकर बड़े नेताओं का सैलाब उस हॉस्पिटल पर टूट पड़ता है। वहाँ दिनभर राजनीतिक चर्चाओं का दौर चलता है। किसी व्यक्ति में कोई वैराग्य नजर नहीं आता है, बल्कि उनका स्वार्थ और दृढ़ हुआ ही नजर आता है। इसके अतिरिक्त, आज बड़े-बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल्स का बीमार लोगों से धन उगाहने का खेल किसी से छिपा नहीं है। कहाँ है वैराग्य? किसको हो रहा है वैराग्य?
एकबार मेरे पास उत्तर प्रदेश के आबकारी विभाग में चयनित होकर प्रशिक्षण ले रहे दो अधिकारी मिलने आयें। ये दोनों प्रेमी युगल थें। मैं लड़की को पहले से जानता था। लड़का मेरे लिए नया था। उस लड़की को मैं वर्षों से जानता था। वो जब भजन गाते हुए राग अलापती थी- “अंतर क्या दोनों की चाह में बोलो, एक प्रेम दिवानी, एक दरस दिवानी” तो मन भक्तिमय हो जाता था। मैं ईमानदारी से कहूँ तो ऐसी भक्ति की गंगा बहानेवाली लड़की से परिवार वाले विवाह के लिए मिलवायें तो मैं ही क्या, कोई भी तुरन्त विवाह के लिए हामी भर देता। उस भजन से ही लगता था कि यह आधुनिक मीरा पूरा परिवार संभाल देगी।
इस पृष्ठभूमि के कारण मैं पहले से ही उसके लिए श्रद्धा भाव से भरा था। दोनों प्रेमी मुझसे कुण्डली दिखवाते-दिखवाते ही आपस में लड़ने लगें। लड़की कह रही थी कि यह आजकल मुझे प्रॉपर टाइम नहीं दे रहा है, यह जरूर कहीं और फँसा हुआ है। मेरी सिम्पैथी लड़की के ही तरफ थी और मैं लड़के को विलेन मानकर चल रहा था। लड़का बहुत भावुक होकर दैनीय हालत में मेरी ओर देखकर बोला कि इसने बुरी तरह मुझ पर कब्जा कर रखा है, मैं अपने लड़के दोस्तों से भी नहीं मिल सकता, ये जब भी मिलती है मेरे मोबाइल का पोस्टमार्टम होता है; लेकिन यह सब ये रोते-धोते आँख से, नाक से पानी निकालते हुए करती है तो मुझे सब प्रेम लगता है और मैं कुत्ता बना रहता हूँ।
यह सुनने के बाद लड़की अचानक तिलमिला कर उसके ऊपर दोषारोपण करने लगी और इसी उत्तेजना में बोल दी कि राहुल सर, ये पहले दिन में छ: बार मेरे पास आता था और आजकल एकदिन में केवल एक बार मेरे पास आता है, ये मेरे हिस्से का प्यार कहीं और लुटा रहा है। मुझे तो पहले बात ही समझ नहीं आया कि यह कह क्या रही है कि पहले छ: बार पास आता था और अब बस एक बार आता है और इस आधार पर कैसे निर्धारित किया जा सकता है कि लड़का बेवफा है?
फिर लड़के की आँखों में आँसू उतर आयें और जिस कातर नजर से देखकर उसने मुझे रोते हुए कहा कि सर आरम्भ में तीन-चार महीने या सालभर तक कोई ऐसा परफॉर्मेंस दे सकता है, लेकिन कोई जीवनभर प्रतिदिन छ: बार कैसे कर सकता है, आप भी पुरुष हैं, आप ही बताइये क्या यह प्रैक्टिकल बात है? उसने आगे बताया कि सिर्फ इस वजह से बिना किसी सबूत के उसे बेवफा घोषित कर दिया गया है और उनका यह संबंध अब टूटने जा रहा है।
मैं तब जाकर बात समझा और मुझे ऐसे लगा कि मैं आसमान से औंधे मुँह जमीन पर गिर गया। मुझे एक मिनट में चाणक्य, भर्तृहरि, कबीर, विलियम शेक्सपीयर, जॉर्ज बर्नार्ड शा, सैमुएल बटलर आदि के शब्द कान में गूँजने लगें कि आखिर सभी स्त्री को लेकर इतने भयाक्रांत क्यों हैं? मैं अभी तक जिस लड़के को विलेन समझ रहा था, अचानक उसके लिए करुणा उत्पन्न हो गयी। और फाइनली उस लड़की ने उसे छोड़ दिया और दूसरे लड़के से विवाह कर लिया।
अब जो शास्त्र कहता है कि सहवास के बाद वीर्यपात होने के बाद वैराग्य जग जाता है उस बात को कैसे स्वीकार किया जाए? यहाँ वैराग्य जगना दूर की बात है, लोग आधे घंटे में सेकण्ड राउंड के लिए तैयार होकर मल्लयुद्ध में लग जाते हैं। किसी का कोई वैराग्य नहीं जग रहा है।
जब किसी मनिषी ने यह बात लिखी होगी तब उन्होंने अपना और अपने जैसे साधनारत मनिषियों का अनुभव लिख दिया होगा। वे वीर्यवान ऋषि ब्रह्मचर्य व्रत को जीवन में धारण करते रहे हैं और जब भी अपनी पत्नी के साथ सहवास करते होंगे तो वीर्यपात उनके भीतर ब्रह्मचर्य व्रत टूटने की ग्लानि उत्पन्न करता होगा। यह सब इसलिए हो रहा होता है, क्योंकि वे पहले से वीतरागी हैं। यह नियम जनसामान्य पर नहीं लागू हो सकता।
कोलकाता के एक मारवाड़ी सेठ थें। अपनी दुकान चलाने के साथ जितना हो सके उतना समय ईश्वर की आराधना में व्यतीत करते थें। जब वृद्धावस्था हावी होने लगी तो मन में विचार आया कि दुकान की जिम्मेदारी बेटे को सौंपकर हरिद्वार जाकर आगे की साधना करें। मन में द्वन्द्व था कि पता नहीं पुत्र सब संभाल पायेगा या नहीं? ऐसे ही एक सुबह टहलने के लिए सड़क के बीच में चलते हुए मन में यही विचार कर रहे थें कि अभी गृहत्याग करूँ या नहीं करूँ, तभी जमादारिन सड़क बुहारते हुए बोली कि सेठ जी एक तरफ लग जाइये, बीच में क्या भटक रहे हैं।
सेठ जी ने बात को हृदय से पकड़ लिया कि इस जमादारिन के भीतर से परमात्मा ने ही मुझे एक तरफ लगने के लिए कहा है और वे दुकान की जिम्मेदारी अपने पुत्र को सौंपकर हरिद्वार चले गयें। यहाँ जमादारिन कोई गुरु नहीं है और न ही उसे कुछ मामला पता है। उसे तो झाड़ू लगाते समय सेठ जी के बीच में चलने के कारण व्यवधान हो रहा था, इस कारण उन्हें सड़क के एक तरफ हो जाने के लिए कहा था। ऐसे में सेठ जी का पूर्व जन्म के संस्कार के कारण वैराग्य जग गया और वे सबकुछ छोड़कर परमात्मा के रास्ते निकल पड़ें।
वैराग्य बाहर की किसी परिस्थिती में कभी भी निहित नहीं हो सकता। वैराग्य कई जन्मों से साधनारत जीव के भीतर पहले से बीज रूप में छिपा होता है, उसे बस जब उपयुक्त परिस्थितियाँ मिलती हैं तो वह धधक पड़ता है। बुद्ध को रोगी, मृत, वृद्ध और संन्यासी देखने के कारण वैराग्य नहीं हुआ था, बल्कि पिछले कई जन्मों के साधना के परिणामस्वरूप वैराग्य उनके भीतर पहले से था, उसे बस अनुकूल परिस्थिति की प्रतीक्षा थी। मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि बुद्ध को ये चारों न मिले होतें तो वे संन्यासी न बनतें। जिसके जन्म के समय ही मूर्धन्य वीतरागी आकर बालक के दर्शन कर रहे हों कि यह बालक बुद्धत्व को उपलब्ध होनेवाला है, उसका वैराग्य किसी न किसी बहाने जगना ही था।
गाँव के बीच मरघट होने से हमारे भीतर वैराग्य उतरेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है, लेकिन ईश्वर कृपा से जिसके भीतर वैराग्य जोर मारने लगता है उसे यह संपूर्ण वसुंधरा मरघट नजर आने लगती है और प्रत्येक पदार्थ से लेकर व्यक्ति तक क्षण-क्षण क्रमिक मरता हुआ नाश की ओर अग्रसित नजर आने लगता है। कबीर के भीतर जब वैराग्य उतरा तो उन्हें यह संसार रूपी गाँव ही मरघट नजर आने लगा। मनुष्य, कीट, पतंग, पशु, पक्षी, गुरु, शिष्य, वैद्य, रोगी, पीर, पैगम्बर, सजीव, निर्जीव आदि की कौन बात करे यहाँ तो स्थिर प्रतीत होनेवाले सूर्य और चन्द्रमा तक मरणधर्मा हैं और एक दिन वे भी मरेंगे यह कबीर का वैरागी मन ही देख सकता है। कबीर कहते हैं कि एक राम को छोड़कर सभी कोई मरनेवाला है, इसलिए हम उसी राम को पाने के लिए जोगी बन गये हैं।
साधो ये मुर्दों का गांव,
मरिहें जिंदा जोगी।
पीर मरे पैगम्बर मरिहें,
मरिहें वैद्य और रोगी।।
सूर्य मरे और चन्द्र भी मरिहें,
मरिहें जिंदा जोगी।
गुरु मरे और शिष्य भी मरिहें,
मरिहें वैद्य और रोगी।।
कहे कबीर एक राम न मरिहें,
जेहि कारण हम जोगी।।

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