सेंगोल (राजदण्ड) हमारी स्वतंत्रता का अभिन्न अंग था लेकिन कांग्रेसी सत्ता के मनरेगा मजदूर वामपंथियों ने इसे एक संग्रहालय के कोने में ‘नेहरू जी के चलने की छड़ी’ के रूप में चित्रित किया। ऐसा भी नहीं है कि नेहरू नहीं जानते थे कि राजदंड क्या है! लॉर्ड माउंटबेटन के पूछने और राजगोलाचारी जी के बताने के बाद तो कम से कम जान ही चुके थे। लेकिन वो चाहते नहीं थे कि राजदंड भारतीय संस्कृति का स्मृतिचिन्ह बन जाए और भारत के लोग अपनी सनातनी जड़ों के प्रति सजग हो जाएं!
क्योंकि नेहरू, कांग्रेस और उनके सत्ताई छायावाद में पलते वामपंथियों को अपनी कथित सेक्युलरिज्म के कदमों में रख कर सनातन को अपमानित करने के साथ साथ दूषित करना था।
कांग्रेसी पेरोल और क्लासिफाइड डॉक्यूमेंट के नशे में जीने वाले ये तमाम अय्याश गिरोहबाज इतना भी नहीं समझ सके कि भविष्य की पीढ़ी जब एक दिन अतीत की सच्चाई में झांकेगी तो उन पर खखार कर लाल बलगम थूकेगी।
आज देश की नयी संसद के उद्घाटन के अवसर पर चोल सम्राज्य से चले जिस भारतीय सनातन संस्कृति के राजदण्ड को स्थापित किया जा रहा है- वह राजदण्ड कांग्रेस समेंत उसके पूरे इकोसिस्टम के यथा स्थान प्रविष्ट होकर उनकी बिलबिलाहट के तौर पर मुँह से निकल ही नहीं रहा बल्कि लोकतंत्र के मंदिर संसद में सनातन भारतीय संस्कृति के पुनर्स्थापित होने के पावन अवसर पर बहिष्कार की कालिख पोतने पर मजबूर कर रहा है।
स्वागत है इस बहिष्कार का जिसे करते हुए ये तमाम खुद को इतिहास के पन्नों में भारतीय संस्कृति के ऊपर एक काले धब्बे के रूप में दर्ज कराने लिए अभिशप्त हैं।