यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थों धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
‘ जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर पार्थ हैं वहीं विजय है, लक्ष्मी है, कल्याण और शाश्वत नीति है, ऐसा मेरा अभिप्राय है’ ऐसा महर्षि व्यास ने गीता के अंतिम श्लोक में संजय के मुँह से कहलाया है।
योगेश्वर कृष्ण यानी ईशकृपा और धनुर्धर पार्थ यानी मानव प्रयत्न। इन दोनों का जहाँ सुयोग हो वहाँ क्या असंभव होगा? ऊर्ध्वगामी मानव प्रयत्न और अवतरित ईशकृपा का मिलना जहाँ हो वहाँ विजय का ही शंखनाद सुनाई देगा, यह निर्विवाद सत्य है। दशहरे का उत्सव यानी शक्ति और शक्ति का समन्वय समझाने वाला उत्सव। नवरात्रि को नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए नाच उठे यह बिलकुल स्वाभाविक है। इस दृष्टि से देखने पर दशहरे का उत्सव अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव।
भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। यदि युद्ध अनिवार्य ही हो तो शत्रु के आक्रमण की राह न देखकर उस पर आक्रमण कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। शत्रु हमारे राज्य में घुसे, लूटपाट करे फिर उसके बाद लड़ने की तैयारी करें इतने नादान हमारे पूर्वज नहीं थे। वे तो शत्रु का दुर्व्यवहार जानते ही उसकी सीमाओं पर धावा बोल देते थे। रोग और शत्रुओं को तो निर्माण होते ही खत्म करना चाहिए। एक बार यदि वे दाखिल हो गए तो फिर उन पर काबू प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।
इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे।
वर्षा की कृपा से मानव धन-धान्य से समृद्ध हुआ हो, उसका मन आनंद से पूर्ण हो, नस-नस में उत्साह के फव्वारे उछलते हों, तब उसे विजय प्रस्थान करने का मन होना स्वाभाविक है। बरसात के चले जाने से रास्ते का कीचड़ भी सूख गया हो, हवामान अनुकूल हो, आकाश स्वच्छ हो, ऐसा वातावरण युद्ध में सानुकूलता ला देता है। नौ-नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके प्राप्त की हुई शक्ति भी शत्रु का संहार करने की प्रेरणा देती रहती है।
भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था।
भारतीय प्राचीन इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे।
इस पर्व को भगवती के ‘विजया’ नाम पर भी ‘विजयादशमी’ कहते हैं। इस दिन भगवान रामचंद्र चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर अयोध्या पहुँचे थे। इसलिए भी इस पर्व को ‘विजयादशमी’ कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।
इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं अथवा महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोगों को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए। दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके बारह वर्ष के वनवास के साथ तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। तेरहवें वर्ष यदि उनका पता लग जाता तो उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्नला वेश में राजा विराट के यहँ नौकरी कर ली थी। जब गोरक्षा के लिए विराट के पुत्र धृष्टद्युम्न ने अर्जुन को अपने साथ लिया, तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान रामचंद्रजी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था। विजयकाल में शमी पूजन इसीलिए होता है।
विजयादशमी के दिन ही आयुध यानी शस्त्र पूजन का विधान है। ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज आज शास्त्र एवं शस्त्र दोनों को साधता है।
शस्त्र पूजन जोकि भारत की सैन्य परम्परा का अभिन्न अंग है। आज विजयादशमी के पावन अवसर पर सभी सनातनी अपने-अपने घरों पर शस्त्र का पूजन कर अपनी परम्परा को गौरवान्वित करतें हैं।
प्राचीन काल में कोई भी विषय जब विशिष्ट पद्धति से, विशिष्ट नियमों के आधार पर तार्किक दृष्टि से शुद्ध पद्धति से प्रस्तुत किया जाता था, तब उसे शास्त्र की संज्ञा प्राप्त होती थी ।
धर्मपूर्वक प्रजापालन, साधु-संतों की रक्षा और दुष्टों का निर्दालन; आयुध पूजन का प्रयोजन है ।
हमारे पूर्वजों ने पाककलाशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, नाट्यशास्त्र, संगीतशास्त्र, चित्रशास्त्र, गंधशास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया दिखाई देता है । इन अनेक शास्त्रों में से शस्त्रास्त्रविद्या, एक शास्त्र है । पूर्वकाल में शल्यचिकित्सा के लिए ऐसे कुछ विशिष्ट शस्त्रों का उपयोग होता था । विजयादशमी के निमित्त से राजा और सामंत, सरदार अपने-अपने शस्त्र एवं उपकरण स्वच्छ कर पंक्ति में रखते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
इसी प्रकार कृषक और कारीगर अपने-अपने हल और हाथियारों की पूजा करते हैं ।
विजयदशमी पर्व जो की “बुराई पर अच्छाई की जीत” का प्रतिक है, गुण ग्रहण का भाव रहे नित, द्रष्टि न दोषों पर जावे !!
जिसने पाँच ज्ञानेन्द्रियों आँख, नाक, कान, रसना और त्वचा तथा चार अंतः करण मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इन नौ पर विजय पा ली, उसकी विजयादशमी हो कर ही रहती है।
मन में दृढ़ निश्चय होना चाहिए कि मेरे अंदर आसुरी वृत्ति रूपी जो रावण है, उस पर मैं विजय पाकर ही रहूँगा।
“ॐकार” का गुंजन कर इष्टमंत्र का जाप आसुरी वृत्तियों को निकालने के लिए कटिबद्ध हो गये तो आपके अंदर परमात्म तत्त्व की ज्ञानशक्ति प्रकट होने लगेगी और यही तो परम विजय है।
ऐसी विजय को हमारा उपलब्ध हो जाना ही विजय है और वह विजय है आत्मज्ञान की प्राप्ति।
लौकिक विजय वहीं होती है जहाँ पुरुषार्थ और चेतना होती है, ऐसे ही आध्यात्मिक विजय भी वहीं होती है जहाँ सूक्ष्म विचार होते हैं, चित्त की शांत दशा होती है और प्रबल पुरुषार्थ होता है। जो आशावान है, पुरुषार्थी तथा प्रसन्न हृदय है, वही पुरुष विजयी होता है।
जो धर्म पर चलते हैं, नीति पर चलते हैं, हिम्मतवान हैं, उत्साही और पुरुषार्थी हैं, उन्हें परमात्मा का सहयोग मिलता रहता है।
आपके शत्रु में भले बीस भुजाओं जितना बल हो, दस सिर जितनी समझ हो फिर भी यदि आप श्री राम से जुड़ते हो तो आपकी विजय निश्चित है।
अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा चार अंतःकरणों को उस रोम-रोम में रमने वाले श्रीराम-तत्त्व में लीन करके अज्ञान, अहंकार और काम रूपी रावण पर विजय प्राप्त कर लेंगे-
यही “विजयादशमी” पर हम शुभ संकल्प करें