जिस दिन लोग देश को अपना घर समझ लेंगे , अपनी संपत्ति समझ लेंगे , अपनी धरोहर समझ लेंगे , उलटी , पुलटी बातें करना बंद कर देंगे । सेक्य्यूलरिज्म के ठेकेदारों से अगर आज कह दिया जाए कि दो-दो…
दयानंद पांडेय
दयानंद पांडेय
आत्म-कथ्य : पीड़ित की पैरवी कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।
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गांधारी बनी सोनिया गांधी और दुर्योधन की कथा दुहराते अधीर रंजन चौधरी नहीं जानते कि राष्ट्रपति शब्द कैसे बना राष्ट्रपति पद को , राष्ट्रपति शब्द को , इस की गरिमा को कभी राष्ट्रपत्नी की गाली में तब्दील होते हुए हम…
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लोग नाथूराम गोडसे को भूल नहीं पाते
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लखनऊ में लगायी मूर्ति तिलक, तराजू या तलवार का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं करती
by दयानंद पांडेय 354 viewsकांशीराम कभी अयोध्या में राम मंदिर की जगह शौचालय बनवाना चाहते थे। जो लोग कभी अयोध्या में राम मंदिर की जगह शौचालय , अस्पताल और विद्यालय बनाने की बात करते थे , वही लोग अब अयोध्या में मंदिर बनाने की…
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मुलायम के शासन काल में पुलिस भर्ती
by दयानंद पांडेय 250 viewsजब मुलायम ने पुलिस भर्ती में लंबाई को सीने में , सीने को लंबाई में एडजस्ट कर भर्ती करने को कह दिया इधर कुछ बरस से जब भी बच्चों के परीक्षा परिणाम आते हैं तो कुछ विघ्न संतोषी अपना ज़माना…
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मीडियाअपराधदयानंद पांडेयमुद्दासामाजिक
विक्रम जोशी की हत्या, आप की अस्मिता अब पूरी तरह खतरे में है
by दयानंद पांडेय 224 viewsमी लॉर्ड कहलवाने वाले हरामखोर जज लोगों , आप की अस्मिता अब पूरी तरह खतरे में है अपने को माननीय और मी लॉर्ड कहलवाने वाले हरामखोर जज लोगों आप की अस्मिता अब पूरी तरह खतरे में है। गंभीर खतरे में।…
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महामहिम द्रौपदी मुर्मू को ले कर वामपंथी बुद्धिजीवियों में ख़ामोशी है। अद्भुत सन्नाटा है। मरघट सा सन्नाटा ! न विरोध , न समर्थन। न कवि की कविता फूट रही है , न व्यंग्यकार का व्यंग्य। जैसे लकवा मार गया है।…
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पानी को लेकर लखनऊ में एक सेमिनार में वह उपस्थित है। पर्यावरणविद हैं, अफ़सर हैं, समाजसेवी हैं, आयोजक हैं, आयोजक के कारिंदे हैं। लंच है, नाश्ता है, कवरेज के लिए प्रेस है। बस श्रोता नहीं हैं और लोगों की आंखों…
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मुद्दाकहानियादयानंद पांडेयभारत निर्माण
टैक्स और मरदाना कमज़ोरी वाला डाक्टर
by दयानंद पांडेय 209 viewsदूध , दही पर तो टैक्स लगा ही दिया है मोदी सरकार ने अब मिट्टी , गोबर , प्राकृतिक पानी , हवा , और आसमान , सूरज , चांद आदि-इत्यादि पर भी टैक्स का इंतज़ार है। वेलकम है ! टैक्स…