मुगल न आए होते तो भारत यतीम ही बना रहता हमारे कुछ मुस्लिम दोस्त हैं जो कुतर्क के ढेर सारे अमरुद बेहिसाब खाते जा रहे हैं । उन को गुमान बहुत है कि मुसलमानों ने इस देश को बहुत कुछ…
दयानंद पांडेय
दयानंद पांडेय
आत्म-कथ्य : पीड़ित की पैरवी कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।
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गिरधारी राय के बच्चे हालां कि अभी छोटे थे पर छोटा भाई अब बड़ा हो गया था। इंटरमीडिएट का इम्तहान भले ही नहीं पास कर पाया वह पर पिता के रसूख़ के बल पर उस की शादी एक अच्छे परिवार…
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जाति धर्मअपराधदयानंद पांडेयराजनीति
इक़बाल ने लिखा है मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
by दयानंद पांडेय 241 viewsइक़बाल ने लिखा है मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना / हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा। लेकिन यही इक़बाल मज़हब के आधार पर पाकिस्तान बनाने के अगुवा लोगों में से एक थे। यानी पाकिस्तान के संस्थापक सदस्य।…
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संजय को अपने पड़ोसी आई.ए.एस. अधिकारी भाटिया की याद आ गई। जो उसके फ्लैट के नीचे वाले फ्लैट में रहता था। और उन दिनों समाज कल्याण विभाग का निदेशक था। संजय जब अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जाता तो भाटिया…
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इतनी राजनीति तो संसद में भी नहीं होती होगी। जितनी जेल में है। और अपनी पढ़ाई लिखाई समझदारी सब यहां बेकार है। कदम-क़दमपर राजनीति। एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश। चुगलखोरी आदि औरतों के सारे गुण यहां मौजूद हैं।…
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मुद्दादयानंद पांडेयलेखकों की चुटकीशिक्षासाहित्य लेख
मदरसों में आज भी वही औरंगज़ेब के समय की मुल्ला सालेह वाली पढ़ाई जारी है
by दयानंद पांडेय 177 viewsयूरोपियन यात्री बर्नियर ने अपने यात्रा वृत्तांत में औरंगज़ेब के उस्ताद की लानत मलामत का ज़िक्र कुछ यूँ किया है , औरंगज़ेब जब तख़्तनशीन हुआ तो उसका उस्ताद मुल्ला सालेह जिसने बचपन में उसे तालीम दी थी इस आशा से…
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ऐ जस्टिस , निराला की एक कविता अबे सुन बे गुलाब की तर्ज पर जो कहूं , अबे सुन बे जस्टिस , मी लार्ड सुनते-सुनते तेरा दिमाग बहुत ख़राब हो गया है। तू मानसिक रुप से बहुत बीमार हो गया…
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अगर कांग्रेस इसी तरह का विरोध का कोहराम मचाती रही , चीन और कोरोना पर काइयांपन कूतती रही , अपनी पोल-पट्टी खुलवाती रही तो यक़ीन मानिए 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस दहाई की संख्या भी छू ले तो बहुत…
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अपराधजाति धर्मदयानंद पांडेयमुद्दाराजनीतिसामाजिक
नहीं तो योगी और भाजपा आप को सम्मानित नागरिक बना ही देंगे
by दयानंद पांडेय 242 viewsभारतीय मुसलमानों को अब से सही यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अगर वह नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनावी बिसात पर हराना चाहते हैं तो भारत देश के नागरिक की तरह रहना और सोचना शुरु कर दें।…