Home हमारे लेखकदयानंद पांडेय बनारस के हुस्न को ग़ालिब की नज़र से

बनारस के हुस्न को ग़ालिब की नज़र से

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काशी शिव की नगरी है, यहां के कंकड़ कंकड़ में शिव बसते हैं काशी वो शहर है जिसकी आब-ओ-हवा में ज़िन्दगी गूँजती है, चलती है, थिरकती है, बनारस में रहने वाला बहुत जल्द ही जिस्म से रूह में तब्दील हो जाता है, रूह में तब्दील होने का अर्थ ये नहीं कि अंतिम संस्कार होना बल्कि बुद्ध और कबीर की तरह जिंदा रहकर भी मोक्ष पाने की जगह है काशी।

बनारस सिर्फ़ मरने का शहर नहीं दरअसल बनारस शहर नहीं शमशान है पहले, दुनिया के हर शहर में शमशान होते हैं लेकिन काशी अकेला ऐसा शमशान है जिसके भीतर एक शहर बसा हुआ है। जहाँ लोगों ने मुर्दों के बीच जीना सीख लिया हो वहाँ ज़िन्दगी किस तरह बेपरवाह, अल्हड़ होगी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

बनारस वो शहर है कि जो मौत को भी ज़िन्दगी अता करता है, दुनिया में बहुत से खूबसूरत शहर हैं जहाँ लोग रहना चाहते हैं, जीना चाहते हैं मगर बनारस वो वाहिद शहर है जहाँ जाकर लोग मर जाना चाहते हैं, अमूमन लोग इश्क़ में मरना पसंद करते हैं तो काशी मुर्दों का नहीं मोहब्बतों का शहर है, इश्क़ का शहर है, और इसी बनारस की मोहब्बत में मिर्ज़ा ग़ालिब नें एक मसनवी ‘चिराग़-ए-दैर’ लिखी जिसका अर्थ होता है मंदिरों का चिराग़। बनारस की खूबसूरती, उसके तसव्वुफ़, उसकी हुरमत का जो तज़किरा अपनी मसनवी में ग़ालिब नें किया वैसा देखने और पढ़ने को कम ही मिलता है।

ग़ालिब अपनी मसनवी में लिखते हैं कि ‘अगर उनके पैरों में मज़हब की ज़ंजीरें ना होती तो माथे पर तिलक लगाकर उस वक़्त तक गंगा के किनारे बैठा रहता जब तक मेरा इरफ़ानी जिस्म एक बूँद बनकर गंगा में ना समा जाय।

गालिब कहते हैं कि, बनारस शहर के क्या कहने ! अगर मैं इसे दुनिया के दिल का नुक़्ता कहूं तो दुरुस्त है। इसकी आबादी और इसके अतराफ़ के क्या कहने ! अगर हरियाली और फ़ूलों के ज़ोर की वजह से मैं इसे ज़मीन पर जन्नत कहूं तो बजा है। इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है। इसकी ख़ाक के ज़र्रे मुसाफ़िरों के तलवों से कांटे खींच निकालते हैं। अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम न होता, और अगर सूरज इसके दरो-दीवार के ऊपर से न गुज़रता तो वह इतना रौशन और ताबनाक न होता।

बनारस रा मगर दीदस्त दर ख़्वाब,
कि मी गरदद ज़े-नहरश दर दहन आब।

प्राचीन इतिहास में चीनी यात्रियों ने बनारस की तुलना चीन के शहरों से की है जिस पर ग़ालिब चिराग़-ए-दैर में लिखते है कि, किसी नादान ने यह कह दिया था कि बनारस चीन के मानिंद है, तबसे गंगा की मौज इसके माथे की शिकन बनी हुई है।

बनारस रा कसे गुफ़ता कि चीनस्त,
हनोज़ अज़ गंग चीनश बर जबीनश्त।

बनारस की बराबरी क्योटो से किये जाने पर भी शायद ग़ालिब ऐसे ही रिएक्ट करते।

बनारस की हुरमत, उसकी अहमियत को बयान करते हुए ग़ालिब कहते हैं, बनारस शंख-नवाज़ों का मंदिर है, हम हिन्दुस्तानियों का का’बा है

इबादत-ख़ाना-ए-नाक़ूसियानस्त,
हमाना काबा ए हिन्दूस्तानस्त।

ग़ालिब अपने शेर में रौशन-बयान बुज़ुर्ग से, जो आसमान की गर्दिश के रहस्य को जानता था, यह सवाल करते हैं कि आप देख रहे हैं कि दनिया से नेकी रुख़्सत दो गयी है। शर्म-ओ-हया बाक़ी नहीं, धोखाधड़ी आम है। इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी क़यामत क्यों नहीं आती? आख़िर वह कौन है जिसने क़यामत को आने मे रोक रखा है?

यह सवाल सुनकर वो बुज़ुर्ग मुस्कुराते हुए काशी की तरफ़ इशारा करके बोला, ‘यह शहर’

कि हक़्क़ा नीस्त साने रा गवारा
कि अज़ हम रीज़द ई रंगीं बिनारा

ग़ालिब कहते हैं कि बनारस ज़मीन से ऊपर और आसमान से नीचे बस इस तरह है कि उसका रुतबा इतना बुलन्द है कि उस तक पहुंचना इंसानी तसव्वुरात की वुसअतों से भी बालातर है।

बुलंद उफ़ताद: तमकीन – ए – बनारस,
बुवद बर औज -ए- ऊ अंदेश: नारस।

ग़ालिब कहतें है कि, बनारस आत्माओं को सुख और शांति देता है और हृदय के तमाम दुखों को धो डालता है

जिहे आसूदगी बख्श-ए-रवाँ-हा,
कि-दाग-ए-जिस्म मी-शायद ज जां-हा।

ग़ालिब की ये मसनवी चिराग़-ए-दैर मज़हबियात और अक़ाएद से परे हमारी तहज़ीब का एक मज़बूत सरमाया है। अपनी बात ग़ालिब के इस एक शेर पर ख़त्म करूँगा, जिसे तमाम हिन्दुस्तानियों के लिए एक फ़ख़्र के तौर पर पढ़ना चाहिए, और बनारस के हुस्न को ग़ालिब की नज़र से देखते हुए इस अज़ीम विरसे को अपनी अगली नस्लों तक पहुँचाना चाहिए, ग़ालिब बनारस के बारे में कहते हैं

इबादत-ख़ाना-ए-नाक़ूसियानस्त,
हमाना काबा ए हिन्दूस्तानस्त।

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