Home विषयइतिहास संविधान दिवस
संविधान के मुख्य निर्माता डॉ. अंबेडकर ने ही दो बार, वह भी संसद में, पूरी जिम्मेदारी से कहा था कि वे “इस संविधान को जला देना चाहते” हैं। प्रथम अवसर पर (2 सितंबर 1953) उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं इस संविधान को पसंद नहीं करता। यह किसी के काम का नहीं।’’ दूसरे अवसर पर (19 मार्च 1955) उन्होंने बताया कि ‘‘जो मंदिर बनाया गया, उस पर देवताओं के बजाए राक्षसों ने कब्जा कर लिया।”
वैसे भी, संविधान राजनीतिक तंत्र चलाने का दस्तावेज है। देश उस से बहुत ऊँची वस्तु है। संविधान में बदलाव होते रहते हैं। यहाँ तो इसे मनमाने बदला गया है। जैसे, 42वें संशोधन (1976) द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’ व ‘सेक्यूलर’ जोड़कर बुनियादी रूप से इसे विकृत किया गया। तब से यह केवल समाजवाद और सेक्यूलरवाद मानने वालों का संविधान है। ऐसी मतवादी तानाशाही थोप कर भिन्न विचार वाले नक्कू बना दिए गए। इसलिए तब से वामपंथी, इस्लामी और इस्लामपरस्त ही ‘संवैधानिक मूल्यों’ की अधिक दुहाई देते हैं।
देश की आकांक्षा, आवश्यकता, भीतरी-बाहरी-भावी चुनौतियों, इस्लामिक कट्टरता वादियों द्वारा लोकतंत्र को ठेंगे पर रखने की आम प्रवृत्तियों, कश्मीर-केरल-पश्चिम बंगाल में बहुसंख्यकों के नरसंहार एवं पलायन को न रोक पाने को ध्यान में रखते हुए इसमें समयानुकूल बदलाव ही एकमात्र विकल्प है। राष्ट्रीय सुरक्षा, सह-अस्तित्व, सुशांति की स्थापना के लिए मैं इसमें संशोधन की माँग करता हूँ।
अनुच्छेद 25 से 30 के मध्य का भाग अल्पसंख्यकों को सब प्रकार के मनमानेपन की भयावह छूट प्रदान करता है। ये ऐसे अनुच्छेद हैं, जो मदरसों-मस्जिदों-चर्चों में किसी भी प्रकार के अवैधानिक कार्य को वैधानिकता प्रदान करते हैं। भारत की सरकार चाहकर भी मदरसों-मस्जिदों में चलने वाले क्रियाकलापों पर रोक नहीं लगा सकती, उसे वैधानिक चुनौती नहीं दे सकती! वे जब चाहें तब कोई ट्रस्ट बनाकर इसका संचालन कर सकते हैं। वे अपने मदरसों-चर्चों-विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा के नाम पर जो चाहें, पढ़ा सकते हैं।
इस देश के संविधान ने भयावह रूप से अल्पसंख्यकों को ऐसे-ऐसे अधिकार एवं छूट प्रदान किए हैं, जो समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व आधारित आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के नितांत विरुद्ध हैं। वहीं दूसरी ओर इस संविधान में बहुसंख्यकों के लिए कोई प्रावधान नहीं। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि इस देश के संविधान ने अधिकार केवल अल्पसंख्यकों को दिए हैं, बहुसंख्यकों का वहाँ जिक्र तक नहीं। यहाँ तक कि बहुसंख्यकों की आस्था-विश्वास जैसे नितांत निजी अधिकारों में भी संविधान की आड़ लेकर हिंदू-विरोधी सरकारें अनावश्यक हस्तक्षेप करती रही हैं। एक दृष्टांत ही इसे समझाने के लिए पर्याप्त है। यदि किसी विद्यालय में आदि शंकराचार्य जी द्वारा दिया गया विश्व-दर्शन #अद्वैतवाद पढ़ाया जाय तो कोई भी अल्पसंख्यक उसे चुनौती देने का वैधानिक अधिकार रखता है कि यह उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है, वहीं कतिपय मदरसों-मस्जिदों में आतंकी तैयार किए जा रहे हों, चर्चों में मतांतरण का षड्यंत्र पल-पनप रहा हो, पर एक चुनी हुई सरकार को उसमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं।
आपने स्वयं देखा होगा कि तमाम सरकारें जहाँ हिंदू मंदिरों के प्रबंधन-पूजन तक में बलात हस्तक्षेप करती हैं, वहीं वे मस्जिदों-चर्चों में क़दम तक रखने से पूर्व सौ बार सोचती हैं। इन सब मनमानेपन के लिए अल्पसंख्यकों को संविधानसम्मत अधिकार दे दिया गया है। एक देश में दो प्रकार के विधान को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है? इसे बदला जाना ही न्याय एवं समय की माँग है।

Related Articles

Leave a Comment