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सभ्यता का प्रसार भाग – 2.1

by Bhagwan Singh
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हमें अपने पिछले लेख के अनुसार जिन दो प्रश्नों का उत्तर देना था वे थे, “क्या भारत में सभ्यता का प्रसार करने वाले पश्चिम से आए थे? और, क्या आक्रामकों ने स्थानीय जनों को गुलाम बनाकर उन्हें शूद्र की कोटि में रखा था?
आज हम इसके पहले प्रश्न तक ही पहुंच सके।
हम इस अध्याय को अधिकारी माने जाने वाले दो विद्वानों की टिप्पणियाें से आरंभ करेंगे। ये हैं पार्जिटर और पुसालकर। पार्जिटर कहते हैं, ‘अध्याय 24 में वर्णित परंपरा के अनुसार ऐलों या आर्यों का उदय इलाहाबाद से हुआ, जहां से वे फैले और उत्तर-पश्चिम, पश्चिम और दक्षिण पर अधिकार किया और ययाति के समय में उन्होंने उस समूचेे क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था जो मध्य देश के रूप में विख्यात है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्रियर्सन के लिं.स. में भाषामूलक मध्य देश पर उनका अधिकार हो चुका था और इसलिए इसे वे अपना सच्चा और पवित्र निवास मानते थे।[1]
पुसालकर कहते हैं, पुराणों में आर्यों के मूल निवास के विषय में कुछ नहीं कहा गया है । … पारंपरिक भारतीय इतिहास् से जो परिदृश्य सामने आता है उसमें पूर्व में ओडीशा तक फैला समूचा उत्तर भारत आता है जिसको राजा मनु के 10 पुत्रों में बांटा गया था। मनु को ही भारत के सभी राजपरिवारों का जनक माना जाता है।
यहां पुसालकर से एक चूक हुई लगती है। यदि मनु भारत के सभी राजपरिवारों के जनक (the common ancestor of the ruling families of India.) हैं, तब तो सभी को सूर्यवंशी होना चाहिए। मनु कृषिकर्म अपनाने वालों के जनक हैं। पर इस पहलू को हम छोड़ दें ताे भी, मनु जिन्हें आर्यों (ऐलों/कृषकों) का जनक मानना होगा, उनकी उत्पत्ति और उनकी संतानों का क्षेत्र विस्तार भारत में होता है[2] और यहां से वे केवल पूर्व की दिशा में नहीं बल्कि पश्चिम की दिशा में भी बढ़ते हैं और इस तरह यदि मध्यदेश से पश्चिम और पश्चिमोत्तर की दिशा में आर्यत्व का विस्तार होता है तो भारत से होता है, न कि उस दिशा से भारत की ओर।
इसे पार्जिटर ने पुसालकर की तुलना में अधिक दृढ़ता से प्रतिपादित किया है, “पश्चिमोत्तर से पवित्रता की कोई प्राचीन स्मृति नहीं जुड़ी है, उसे कभी श्रद्धा पूर्वक याद नहीं किया गया। प्राचीन भारत की श्रद्धा और विश्वास मध्य हिमालय की दिशा की ओर रही है। वह भारत से बाहर पवित्र माने जाने वाला एकमात्र क्षेत्र है और इस दिशा में ही ऋषि गण और राजा श्रद्धा पूर्वक अपने चरण बढ़ाते रहे हैं, पश्चिमोत्तर की दिशा में कदापि नहीं। ऋग्वेद के दसवें मंडल के 75वें सूक्त में नदियों की परिगणना पूर्व से पश्चिम की ओर की गई है, पश्चिम से पूर्व की दिशा में प्रवेश के क्रम में नहीं, बल्कि इससे ठीक उल्टी दिशा में। यदि आर्यों ने पश्चिमोत्तर की दिशा से भारत में प्रवेश किया होता और ऋग्वेद की रचना के समय तक पंजाब से होते हुए पूर्व की दिशा में बढ़ते हुए केवल सरस्वती या जमुना तक पहुंचे होते तो यह हैरान करने वाली बात है कि उन्होंने अपने आगे बढ़ने के क्रम में नदियों का नामोल्लेख नहीं किया बल्कि गंगा से, जहां तक तो पहुंचे ही नहीं थे, उलटी दिशा में गिनती कराई। यह तथ्य ऐलों के प्रसार और पश्चिम उत्तर की दिशा से उनके बाहर फैलने से पूरी तरह मेल खाता है।”
इतना ही नहीं, वह बोगाज़कोई के साक्ष्यों पर भी विचार करते हैं, “इस विषय पर कुछ और प्रकाश बोगाज़कोई से प्राप्त हित्ती राजा और मितन्नी राजा के बीच हुई संधि से भी पड़ता है। इसमें, जैसा कि प्रोफेसर याकोवी द्वारा लक्ष्य किया गया है, कुछ वैदिक देवताओं का उल्लेख है जो मित्र, वरुण, इंद्र और नासत्या (अश्विनी कुमार) के अतिरिक्त कोई और नहीं हो सकता। ये भारतीय आर्य देवता हैं और उन्होंने प्रमाणित किया है कि वे ( वर्तमान सिद्धांत के अनुसार) ईसा पूर्व 1400 साल से अधिक पुराने नहीं हो सकते, और इसलिए मितन्नी जो इन देवों की आराधना करते थे, वे वहां इससे पहले, संभवतः 1600 ई.पू. के उत्तर चरण में पहुंचे थे। इन तथ्यों से यह सिद्ध होता है
(1) कि 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भारत से पश्चिम की ओर जन प्रवाह हुआ था;
(2) कि वे ही आर्य देवताओं को भारत से लेकर गए थे;
(3) इसलिए आर्य और उनके देवता 16 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भारत में विद्यमान थे; और
(4) कि आर्यों का भारत में प्रवेश पहले हो चुका था। ये तथ्य और निष्कर्ष आर्यों के भारत में प्रवेश से संबंधित वर्तमान सिद्धांतों से मेल नहीं खाते जिनमें यह बताया जाता है कि आर्यों ने भारत में पश्चिमोत्तर दिशा से और ऋग्वेद की ऋचाओं के साथ प्रवेश किया।
अभी तक हम अपने प्रश्न के पहले भाग तक ही पहुंच पाए हैं और सच कहें तो समस्या के कुछ आयामों को छोड़ते हुए। परंतु इतना तो सिद्ध है ही कि हमारा पौराणिक इतिहास उन सभी सवालों के उत्तर देता है जिनका उत्तर ज्ञान की सभी शाखाओं और विधाओं में माथापच्ची करने के बाद भी आज तक निर्णायक रूप में नहीं दिया जा सका। भारत से बाहर कोई स्थान, क्षेत्र, बोली और विस्तार और प्रसार का कोई तंत्र तलाश नहीं किया जा सका। कौन अधिक विश्वसनीय है ? हमारे पुराण या पश्चिमी इतिहास जो बे सिर पैर है और फिर भी धुरीण पंडितों के सिर पर सवार है। वे कूट विद हैं या इतिहासविद?
[1] अध्याय XXIV में परंपरा के अनुसार ऐला या आर्य इलाहाबाद में शुरू हुए, उत्तर-पश्चिम, पश्चिम और दक्षिण में विजय प्राप्त की और फैल गए, और ययाति के समय तक मध्यदेश के रूप में प्रसिद्ध क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उनके पास निश्चित रूप से उस मध्य-भूमि का अधिकार था और उन्होंने इसे पूरी तरह से अपना बना लिया, ताकि यह ‘उनका सच्चा शुद्ध घर’ हो, जैसा कि सर जी। ग्रियर्सन ने भाषाई रूप से वर्णित किया है। 296
[2] पुराण आर्यों के मूल घर के बारे में कुछ नहीं कहते हैं। पारंपरिक इतिहास का दृश्य भारत में खुलता है, क्षेत्र के विभाजन के साथ, जिसमें पूरे उत्तर भारत का विस्तार पूर्व में उड़ीसा तक के दस पुत्रों में शामिल है। मनु, राजा और भारत के शासक परिवारों के सामान्य पूर्वज। (पुसालकर, ट्रेडिशनल हिस्ट्री फ्रॉम द ईएलिएस्ट टाइम, द हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपल, वॉल्यूम I, 316।
[3] उत्तर-पश्चिम सीमांत में कभी भी कोई प्राचीन पवित्र यादें नहीं थीं, और इसे कभी भी सम्मान के साथ नहीं माना जाता था। सभी प्राचीन भारतीय मान्यताएं और पूजा मध्य-हिमालयी क्षेत्र के लिए निर्देशित की गई थी, जो एकमात्र मूल पवित्र बाहरी भूमि थी; और यहीं पर ऋषियों और राजाओं ने भक्ति में अपना कदम रखा, कभी उत्तर-पश्चिम की ओर नहीं। ऋग्वेद x, 75 में नदियों की सूची पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर नियमित क्रम में है – उत्तर-पश्चिम से प्रवेश का क्रम नहीं, बल्कि उल्टा। यदि आर्य उत्तर-पश्चिम से भारत में प्रवेश करते थे, और पंजाब के माध्यम से पूर्व की ओर केवल सरस्वती या जमुना तक आगे बढ़ते थे, जब ऋग्वैदिक भजनों की रचना की गई, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि भजन नदियों को उनकी प्रगति के अनुसार नहीं, बल्कि गंगा से उलटे व्यवस्थित करते हैं, जिस तक वे शायद ही पहुँचे थे। ^ यह ऐला विस्तार के पाठ्यक्रम और उत्तर से परे इसके बहिर्वाह से बेहतर सहमत है। -पश्चिम।’ Pargter, प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक परंपरा, 1922, 298
[4] इस मामले पर एक हित्ती राजा और मितानी के राजा के बीच एक संधि द्वारा बोगज़केई में पाया गया है। इसमें उल्लेख है, जैसा कि प्रोफेसर जैकोबी ने देखा है, * कुछ देवता जो मित्र, वरुण, इंद्र और नासत्य (अश्विन) के अलावा और कोई नहीं हो सकते हैं। ये भारतीय आर्य देवता हैं, ^ और उन्होंने दिखाया है कि वे भारतीय और ईरानी शाखाओं के अलग होने से पहले की अवधि (वर्तमान सिद्धांत के अनुसार) से संबंधित नहीं हो सकते। सन्धि की तिथि अब लगभग 1400 ई.पू. विश्वसनीय रूप से निर्धारित की गई है, और इसलिए मितानी के लोग जो इन देवताओं की पूजा करते थे, वहां पहले पहुंचे थे, शायद सोलहवीं शताब्दी के अंत में। ये तथ्य साबित करते हैं
[4.1] कि पंद्रहवीं शताब्दी से पहले भारत से लोगों का बहिर्वाह हुआ था। सी।
[4.2] कि वे आर्य देवताओं को भारत से लाए
[4.3] इसलिए आर्य और उनके देवता सोलहवीं शताब्दी से पहले भारत में मौजूद थे; और
[4.4] कि आर्य भारत में पहले भी प्रवेश कर चुके थे। ये तथ्य और निष्कर्ष आर्यों के उत्तर पश्चिम में प्रवेश के बारे में वर्तमान सिद्धांत के साथ शायद ही मेल खाते हों। भारत और ऋग्वेद के भजनों की रचना। 300

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