Home लेखकBhagwan Singh सभ्यता का प्रसार भाग -2

सभ्यता का प्रसार भाग -2

Bhagwan Singh

by Bhagwan Singh
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के.एम.मुंशी ने सच्चे इतिहास को परिभाषित करते हुए, अपेक्षा की थी, यह किसी देश के निवासियों की कहानी होनी चाहिए। “To be a history in the true sense of the word, the work must be the story of the people inhabiting a country. K.M. Munshi, Foreword, 2] ऐसी कहानी जनता की अपनी भाषा और शैली में ही हो सकती है, और इस दृष्टि से पुराण भारतीय इतिहास को समझने में निर्णायक भूमिका रखते हैं। परंतु लगता है पुराणों की अंतर्वस्तु का सही उपयोग करने की सूझ मुंशी जी में भी नहीं थी, जिन्होंने इसी इरादे से ‘द हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपल’ (1951) की योजना बनाई थी। इसकी समझ ए. डी. पुसालकर को भी न थी, जो इस ग्रंथावली के प्रकाशक भारतीय विद्या भवन में सहायक निदेशक थे, संस्कृत के विद्वान थे, इतिहास के ज्ञाता थे और ग्रंथावली के प्रथम खंड ‘द वेदिक एज’ के तीन अध्यायों के लेखक थे, जिनमें दो अध्याय पुराणों से संबंधित थे और एक सैंधव सभ्यता से। इन दोनों के बीच गहरा संबंध था।
ए. कर्ज़न ने 1904 में कहा था, “आर्य आक्रमण की मान्यता ब्रिटिश साम्राज्य का फर्नीचर है।” [यह कर्जन संभवतः लॉर्ड कर्जन के भाई थे। इस मान्यता की व्यर्थता को यूरोप का प्रत्येक अध्येता जानता था, पर इसे दो टूक शब्दों में कर्ज़न ने ही स्वीकार किया था। दूसरे यूरोपीय विद्वान आर्यों के मूल देश पर विचार का अभिनय करते हुए किसी भी क्षेत्र पर विचार करने को तैयार रहते थे, परंतु भारत के विषय में विचार करने को तैयार नहीं होते थे।]
जिस फरेब को यूरोप के सभी विद्वान जानते थे, फिर भी पैंतरे बदलते रहते थे, उसे भारत के सभी अनुशासनों के विद्वान सचाई ही नहीं, पत्थर की लकीर मानते थे।
इसलिए मुंशी जी को यह शिकायत तो थी कि जिन इतिहासों को हमें पढ़ाया जाता है उनमें भारतीय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की समझ नहीं है और उनको पीढी-दर-पीढ़ी पढ़ते हुए हमारी मानसिकता उन्हीं के अनुसार ढल जाती है [The history of India, as dealt with in most of the works of this kind, naturally, therefore, lacks historical perspective. unfortunately for us, during the last two hundred years, we had not only to study such histories but unconsciously to mould our whole outlook on life upon them. 9]। परंतु उन्हें यह बोध नहीं था कि उनका अपना मानस भी उसी सांचे में ढल चुका है।
उनको उन इतिहासों से जिन बातों की शिकायत थी उनमें एक यह था कि उनमें विदेशी आक्रमणों के विषय में तो बताया जाता है पर यह नहीं बताया जाता कि हमने किस दृढता से उनका सामना किया, और यह तो उससे भी कम बताया जाता है कि हमने कितनी विजयें प्राप्त की. [Generations after generation, during their school or college career, were told about the successive foreign invasions of the country, but little about how we resisted them and less about our victories. 9]
मुंशी जी कहते हैं भारत पर केवल तीन आक्रमण हुए और इनमें से पहला आर्यों का आक्रमण था [Of the foreign conquests,, which changed the course of history and the texture of the life and culture, there were only three. First, the Aryan conquest in the pre-historic times, which wove the essential pattern of national life. 12] वह इस आक्रमण को श्लाघ्य भी मानते हैं [The older School of historians believed that imperialism of the militaristic political type was unfamiliar to this ‘the mystic land’. but the Aryan conquest of India, which forms the subject matter of volume 1 of this series was as much militaristic- political as religious and cultural. KMM.11]
यहीं पर पार्जिटर का यह निष्कर्ष कि भारत पर आर्यों का आक्रमण तो हुआ ही नहीं, प्राचीन भारतीय उपलब्धियां भारत की अपनी थीं, बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
पार्जिटर ब्रिटिश नौकरशाह थे। उन्होंने मार्कंडेय पुराण का अंग्रेजी में अनुवाद किया था और 30 वर्ष का समय पुराणों के विवेचन पर लगाया था। उनकी पुस्तक भारतीय इतिहास के उस सनसनी भरे ऐतिहासिक दौर में लिखी और प्रकाशित की गई (1922) जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था। अंग्रेज भारत पर शासन करने का नैतिक औचित्य सिद्ध करने के लिए यह तर्क देते आए थे कि भारत पर पश्चिम से आक्रमण होते रहे हैं और इस पर आक्रमणकारियों का ही राज्य रहा है। यह तर्क मुसलमानों के भी उस वर्ग को रास आता था जो अपनी विदेशी पैतृकता का दावा करते थे। पार्जिटर इस मान्यता से परिचित थे और उन्होंने स्वीकार किया की भारतीय पौराणिक साहित्य के अध्ययन से वह जिस नतीजे पर पहुंचे हैं. वह इस मान्यता से विपरीत है और इसलिए अपने निष्कर्ष को उन्होंने पूरे विश्वास के साथ सामने रखा था। इसको हम पीछे देख आए हैं। इसे वह बार बार दुहराते हैं:
“भारतीय परंपरा अफगानिस्तान की ओर से ऐलों या आर्यों के प्रवेश और क्रमशः पूर्व की ओर बढ़ते जाने से पूरी तरह अनभिज्ञ है। इसके विपरीत वह साफ साफ इस बात का दावा करती है कि द्रुह्यु पश्चिमोत्तर से भारत से बाहर की ओर गए थे और इस तरह उन देशाें में अपने धर्म का प्रचार किया था।[2]
[2]Indian tradition knows nothing of any Aila or Aryan invasion of India from Afghanistan, nor of any gradual advance from thence eastwards. On the other hand it distinctly asserts that there was an Aila outflow of the Druhyus through the north-west into the countries beyond, where they founded various kingdoms and so introduced their own Indian religion among those nations. 298
हैरानी की बात है कि भारतीय इतिहासकार पार्जिटर को समझ तक न सके। कुछ ही बाद उसी दशक में मोहेंजोदड़ो की खुदाई ने भारतीय सभ्यता की स्थानीयता और प्राचीनता और स्वविशिष्टता से पूरे जगत को चकित कर दिया था और पार्जिटर की स्थापना के अनुरूप उसका विश्लेषण करना जरूरी था। यह काम कम से कम राष्ट्रवादी माने जाने वाले इतिहासकारों को करना चाहिए था। परंतु राष्ट्रवादी इतिहासकारों का दिमाग उसी सांचे में ढला था जिससे उन्हें शिकायत थी।
कुछ और बाद में पुरातत्व की खुदाइयों से पता चला भारतीय सभ्यता की जड़ें तो भारत में ही हैं, हड़प्पा सभ्यता से वैदिक सभ्यता का विरोध नहीं है तो उसे एक स्वामिभक्त नौकरशाह के रूप में भारतीय पुरातत्व के महानिदेशक सर जान मार्शल ने खुदाई की रपटों में धांधली करते हुए, उलट दिया था।
पौराणिक कृतियां हों, या पौराणिक व्याख्याएं, इन्हें बहुत सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए, और आंतरिक संगति, तर्कसंगति/विसंगति, पोषक साक्ष्य, सांस्कृतिक और पुरातात्विक अवशेषों का ध्यान रखते हुए समझा जाना चाहिए। कहा गया है कि वेद का विवेचन इतिहास और पुराण के आधार पर किया जाना चाहिए, इसे उलट कर यह भी कहा जा सकता है की इतिहास और पुराण को समझने के लिए वेदों से सहायता दी जानी चाहिए। ऐसा प्रयत्न किया नहीं गया। यद्यपि यह बात बार-बार दोहराई जाती है कि पुराणों के विवरण विश्वसनीय नहीं हैं और जहां अपनी ओर से तुक ताल मिलाने की कोशिश की गई, वहां निष्कर्ष सतही रह गया। यदि यदि समग्र दृष्टि हो तो मात्र एक शब्द से, स्थान नाम से, व्यक्ति नाम से इतिहास का सत्य सामने आ सकता है। जो कुछ जैसा लिखा हुआ है उसे मान लेना या उसके आधार पर अटकलें लगाना दोनों भ्रामक होता है। उदाहरण के लिए पुराणों के अनुसार, ‘मनु के पुत्र रथीतर नाभाग क्षत्रिय थे । उनका पुत्र जन्मना क्षत्रिय था पर वह आंगिरस बन गया, इसलिए उनकी गणना आंगिरसों में होती है। राजा भरत ने आंगिरस ऋषि भरद्वाज को अपना दत्तक पुत्र बना लिया जिससे वितथ पैदा हुए और उनसे पौरव वंश परंपरा चली । परिणाम यह कि भरत गण अपने क्षत्रियत्व या ब्राह्मणत्व या दोनों का दावा करते थे।’[Descended from Manu’s son Nabhaga was Rathitara (p. 98). His sons, born ksatriyas, became Angirasas, and the Rathitara gotras were ksatriyan brahmans.’^ Accordingly they are named, among” the Angirasas. It has been pointed out (p. 159) that king Bharata adopted the Angirasa rishi Bharadvaja as his son, and Bharadvaja begot Vitatha who continued the Paurava dynasty, and consequently that the Bharatas could assert either] 297-98

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