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आत्मानं विद्धि भाग -3

Bhagwan Singh

by Bhagwan Singh
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मुझे दुख है कि हमारा समाज भीड़ बनता जा रहा है- कारण आत्मगत और बाह्य दोनों हैं। लोग सोचने को ही कायरता समझने लगे हैं जब कि अपनी कमियों को छिपा कर सारा दोष दूसरों के माथे मढ़ना बौद्धिक कायरता है और नैतिक ह्रास भी। हम इसकी व्याख्या में नहीं जाएंगे पर यह याद दिलाएंगे कि आज कोई सामुदायिक पहचान ऐसी नहीं है जो भीड़ का रूप न ले चुकी हो।

 

भीड़ का हिस्सा बने लोग पक्के दिमाग के, ठोस इरादों के, कल्पनाशक्ति से शून्य लोग होते हैं – न किसी की सुन पाते है, न सोच पाते हैं। भीड़ का हिस्सा बनने से पहले और इसके बिखर जाने पर व्यक्ति रह जाने और समाज का अंग बन जाने की अवस्था में उनमें लोच, समझ, कल्पनाशीलता, सब कुछ लौट आती है।
सूचना प्रोद्योगिकी के कमाल से भीड़ के दो रूप हो गए हैं – एक आभासिक और दूसरा वास्तविक। फेसबुक आदि माध्यमों से भीड़ का विस्तार भी हुआ है और कालावधि भी बढ़ी है। समाज को समझाया जा सकता है, भीड़ को नहीं। समझाने के चक्कर में पड़े तो गए; आप भी भीड़ का हिस्सा बन सकते हैं। जो कोई अपनी जिद पर अड़ा हो उसको समझाने के सद्प्रयास में आप उसे मनाने लगते हैं। उसे नाराज तो कर ही नहीं सकते। मुखर हो कर भले न कहें, पर व्यावहारिक भाषा में रिरियाते हैं:
‘जो तुझको हो पसंद वही बात कहेंगे,
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे’
और सोचते हैं अब तो वह मेरी भी सुनेगा ही। पर वह आपकी नहीं सुनता, सोचता है, उसे मनाना तुम्हारी जरूरत है, तुम्हें झुकाना उसका लक्ष्य, इसलिए वह संवाद की नौबत ही नहीं आने देता। एक नई मांग बढ़ा देता है:
तुम दिन को रात कह चुके, काफी नहीं है यह।
दौरे दरिंदगी है, कयामत कहो इसे।’
यह उस गंगाजमुनी तहजीब की अनिवार्य शर्त थी और है जिसमें कांग्रेस के नेता ‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, सब आपस में भाई भाई गाते थे’, ईश्वर अल्ला तेरे नाम सबको सम्मति दे भगवान और सोचते थे अब मुसलमानों का मन बदलेगा, पर उनकी रामधुन और ईश्वर-अल्ला केवल हिंदू सुनते और हिंदू दुहराते थे। मुसलमानों तक गांधी की आवाज पहुंचती ही नहीं थी, पर जिन्ना जब कहते थे, हिंदुओं के साथ मुसलमान रह नहीं सकते तो भले वे असमंजस में पड़ जाते हों, आवाज उन तक पहुंचती थी और सपनों में भी गूंजती थी।
भाई बन कर अपनी अस्मिता न खो दें इसलिए जिस सिख मत के प्रति इतना आदर था कि हिंदू अपना पहला बेटा गुरुद्वारे को सौंपते थे, जो सिख बनता था, और इस तर्क से सिख हिंदुओं के बड़े भाई और संरक्षक थे, उनकी ओर से भी आवाज उठने लगी कि हम हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते, हमें अलग खालिस्तान चाहिए। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को नकारा, स्वीकारा, मोर्चा लिया, हराती रही और हार कर कोसती रही; जिन्ना राष्ट्रवादी से तिकड़मी और हिकमती (कूटविद) लीगी नेता किसकी नासमझी से बने थे? गांधी ने देश के विभाजन की नींव उसी दिन रखी थी जिस दिन मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में जिन्ना को दरकिनार करते हुए मुहम्मद अली और शौकत अली को मुसलमानों का प्रतिनिधि मान लिया था और वह इसलिए कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे और अली बंधु उनकी ही तरह मजहबी। मजहब का राजनीति में प्रवेश कितना खतरनाक हो सकता है. इसका यह नायाब उदाहरण है। गांधी भारत-विभाजन के एकमात्र अपराधी हैं, यह कांग्रेस के इतिहास में तो मिलेगा ही नहीं, कांग्रेसी शासन में लिखवाए गए इतिहास ग्रंथों में शायद ही मिले।
यह भाई भाई राग भारत-चीन युद्ध के समय भी सुनाई पड़ा था। इसके परिणाम तीन बार प्रयोग करने और अनगिनत बार भुगतने के बाद भी, इसे आज तक दुहराया जाता है। यह सबसे आसान तरीका है अपने को उदार और मानवतावादी दिखाने और मूर्ख बनते रहने का। अपने प्रयोगों की विफलता से यह तो समझ में आ ही जाना चाहिए था कि भाई भाई का राग पाखंड है और निगेटिव सजेशन का काम करता है। इसने अपनों तक को बिदकाया है, दूसरों को अपना बनाने का तो प्रश्न नहीं।
भाई के अतिरिक्त भी सामाजिक बंधन होते हैं जो समामानजनक भी होते हैं ओर अधिक मजबूत भी होते हैं और जिनका डंका बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। जिनके टूटने या कमजोर पड़ने पर सगे भाई भी एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं। ये हैं आर्थिक संबंध।
जीवन धर्म पर नहीं टिका है, अर्थ पर टिका है और धर्म भी अर्थ पर टिका है यह बोध दस हजार साल से भी अधिक पुराना है। रामकथा में हमने विस्तार से दिखाया है धर्म की उत्पत्ति अर्थ से हुई है, धार्मिक टकरावों का कारण आर्थिक हितों का टकराव था।
यह आश्चर्य की बात है कि गांधी जी ने जो स्वतंत्रता की कुंजी आर्थिक स्वावलंबन और विदेशी वस्तुओँ का बहिष्कार मानते थे, सामाजिक सौहार्द के मामले में पारस्परिक अटूट आर्थिक संबंधों को आंदोलन का हिस्सा नहीं बनाया और अंग्रेजों की लूट से बचने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में सहभागिता की अपील नहीं की। वे वैष्णव जन गाते रहे जो ला इलाह इल अल्लाह के रूप में प्रतिध्वनित होता रहा।
जब हम पिछले अनुभवों का सम्यक विश्लेषण किए बिना मुस्लिम समाज को अशोध्य दुष्ट के रूप में पेश करते हैं और उनसे घृणा करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि उनको भी हिंदुओं को, विशेषकर सवर्णों को और उनमें भी ब्राह्मणों को उतना ही दुष्ट और घृणित मानने के लिए निमंत्रित करते हैं। कौन कहेगा कि हिंदुओं और मुसलमानों में सहयोग असंभव है जब कि घृणा और शत्रुता का पर्यावरण तैयार करने में दोनों समान उत्साह से लगे हुए हैं। जो व्यक्ति किसी व्यक्ति या समुदाय को लाइलाज मानता है वह स्वयं लाइलाज है और उससे समाज को उतना ही खतरा है।
पश्चिम हम से ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी और संपन्नता में ही आगे नहीं बढ़ा हुआ है, समझदारी में भी आगे बढ़ा हुआ है। यह समझदारी पहले इसमें थी नहीं पर अनुभव से सीखा है, संभव है भारत से भी कुछ सीखा हो। यह समझ भी संपन्नता के साथ विकसित हुई है। अंग्रेजों को पता था कि मुसलमान अंग्रेजों से नफरत करते हैं और उन्हें मिटा देना चाहते हैं, जब कि हिंदुओं के साथ उनकी खटपट चलती रहती है। अंग्रेजों ने उसी तरह मुसलमानों से घृणा न की जैसे मुसलमान उनसे करते थे, वे लगातार इस प्रयत्न में रहे कि इनको सही रास्ते पर कैसे लाया जाए, और इस प्रयत्न में सफल रहे। इस पर हमने विस्तार से विचार किया है (भारतीय मुसलमान)।
जीव दया की बात केवल भारत में की जाती थी, जीव वध को पाप माना जाता था। जैन मत ने इसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था। सांप को भी दूध पिलाने वाले, उनकी पूजा करने वाले, चींटी तक को सत्तू/आटा खिलाने वाले, और मनोरंजन के लिए शुक-सारिका से लेकर सांपों, बंदरों, रीछो तक को, उपहास सह कर भी, पालने और नचाने वाले केवल भारत में रहे हैं। पश्चिमी जगत के लोग जीव दया की प्रवृत्ति पर हंसते और सत्तर अस्सी साल पहले तक हिंस्र पशुओं का शिकार करते रहे। फिर भारत में शिकार करते करते हुए शिकारी हिंस्र पशुओं से भी प्यार करने लगे, जिसका एक प्रमाण जिम कोर्बेट पार्क है, और इसका वैश्विक विस्तार यह कि जानवरों का शिकार, जिमसें खतरनाक जानवर भी आते हैं, सभ्य देशों में वर्जित है, किसी भी जानवर के साथ क्रूरता निषिद्ध है। आज खतरनाक जानवरों (अजगर, बाघ) को पालना, उनके साथ खेलना, उनको चूमना अनेक देशों में खेल जैसा है।
जब उन जानवरों का भी विश्वास जीता जा सकता है तब मनुष्यों का क्यों नही। डरा हुआ आदमी नफरत करता है, नफरत करने वाला नासमझ होता है, नासमझ आदमी समस्याएंं पैदा कर सकता है पर किसी समस्या का हल नहीं निकाल सकता। नासमझ जिसे दुश्मन समझता है उसे मिटा देना चाहता है, दुश्मनी को जारी रखता है, समझदार दुश्मनी के कारण को समझता और उसे दूर करता है, और दुश्मन को दोस्त बना लेता है।
मोदी का दूसरे नेताओं से यही अंतर है। उनकी कूटनीतिक सफलता का कारण यही है। पहले दिन ही अपनी जिस नीति को सूत्रबद्ध किया – न आंखें दिखाकर, न आंखें झुकाकर, बल्कि आंखें मिला कर सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास अर्जित करेंगे, उसका उन्होंने केवल घरेलू स्तर पर नही, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, अविचलित रूप में निर्वाह किया है और इस सफलता से घबराए हुए लोग उनकी सफलता के अनुपात सें उनको ही उन सभी हंगामों के लिए अपराधी सिद्ध करते हुए अपना भविष्य तलाशने में लगे हैं, जो सचमुच इसमें सक्रिय हैं। पर उन्हें निराशा तब होती है जब देश और देशांतर के लोगों पर इसका इस रूप में असर नहीं पड़ता। भाजपा के शत्रु जितने हिंदुत्ववादियों में हैं उतने ही सेकुलर जातिवादियों में, कठमुल्लों में और मोदी का सबसे कारगर हथियार है उपेक्षा। जो काम वे जानते हैं उन्हें करने दो, जिस काम को तुम जरूरी समझते हो उसे पूरी लगन से करते रहो। इसलिए मोदी सबको चकित करते हैं। जो मुल्ले यह प्रचार कर रहे थे/हैं कि भाजपा ऐसी सारी मसजिदों को तोड़ कर मंदिर बनाना चाहती है जो मंदिर तोड़ कर बनाई गई हैं, वे भौचक रह जाते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद में भाजपा पार्टी तक नहीं है।
पार्टी न बनने का कारण यह नहीं कि शिव या कृष्ण में निष्ठा नहीं, पर इस तरह की मुहिम से जो दिशा खुलती है वह आगे बढ़ने में बाधा पैदा करती है और गुजरे वक्तों को वापस लाती है। हमने जब ‘न इबादत न अदावत … शीर्षक से अपनी पोस्ट लिखी थी तो मेरा एक मात्र प्रयास यह समझाने का था कि मजहब इंसान को हैवान बनाता है जिसके कारण केवल दंगे और खुराफात होते हैं. प्रगति बाधित होती है, शांति में खलल पड़ता है। आप दीखते इंसान हो पर अपने व्यवहार में कमतर होते जाते हैं। यह एक व्याधि है जिसे एट्राफी कहते हैं। हमारा एक ही आग्रह था कि यदि हम पश्चिम के पेट में जाने से बचना चाहते हैं तो हमें धार्मिक कर्मकांड से बाहर आना होगा। यह आग्रह मुसलमानों और हिंदुओं दोनों से था।
पर मुझे खेद है कि जो लोग मेरी सराहना करते हैं वे भी मुझे पूरी तरह नहीं समझते और जो लोग आहत हो कर अनर्गल बातें करते हैं, वे तो समझ ही नही सकते फिर भी शायद प्रशंसकों से कुछ अधिक समझते हैं। उनकी प्रतिक्रियाओं से ही मुझे लगता है मेरा लिखना बेकार नहीं गया, जहां चोट पहुंचनी थी वहां चोट पहुंची हैं
[1] इस चूक की प्रतीति उनको दूसरों से पहले हो गई थी और इसकी क्षतिपूर्ति के रूप में कहा करते थे कि देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा, जिसका फ्रायडिन मनोविश्लेषण में अर्थ हुआ, देश का विभाजन हो कर रहेगा। लोहिया ने भी संभवतः भारत-विभाजन के अपराधी में गांधी के प्रति श्रद्धा के कारण इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया। अकेला एक व्यक्ति था जिसने गांधी और कांग्रेस की इस बदगुमानी को समझा और उसकी आलोचना करता रहा और वह था सावरकर जिसे भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी, जैसी विभूतियों ने अपने लिए प्रेरक माना, पर ऐसे मुंहफट जिन्होंने हवालात में एक रात भी नहीं गुजारी उसकी भर्त्सना जघन्यतम शब्दों में करते रहते हैं। उनका एक आरोप यह कि उस नारकीय यातना को सहते हुए मर जाने की तुलना मे माफीनामा से बाहर निकल कर कोई उपयोगी काम करने को सावरकर ने वरीयता दी। आत्मघाती प्रवृत्ति की सराहना नहीं की जा सकती पर जिनमें देशाभिमान अधिक और दूरदर्शिता कम थी, वे वंदनीय हैं। दूसरा आरोप कि वह अंग्रेजों के वजीफे पर पलते रहे, इसको गहराई में नहीं जानता पर जो लोग गहरी जानकारियां रखते हैं उन्हें प्यारे लाल की डायरी के आधार पर गांधी जी को अंग्रेजों के वजीफे पर और अन्य स्रोतों के आधार पर मोरारजी देसाई पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी से कथित वजीफा पाने पर ही नहीं, भारतीय कम्युनिस्टों को केजीबी से मिलने वाली रकम का अध्ययन तो करना ही चाहिए, नेहरू को कैश में नहीं, काइंड में कितना मिलता रहा इसकी भी जांच करनी चाहिए। सबसे बड़ा अभियोग जिससे वह जांच से बरी हो गए, गांधी की हत्या के उनके समर्थन का है। अदालत ने छोड़ दिया; जमूरे नहीं छोड़ते। अपराधी थे; तर्क के लिए मान लिया। एक मात्र, उपहास के पात्र बन चुके गांधी का हत्यारा जघन्य फिर, लाखों हिंदुओं की हत्या के जिम्मेदार गांधी को क्या कहेंगे? यह मेरी प्रतिक्रिया है, निष्कर्ष नहीं।

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