Home लेखकBhagwan Singh मतान्धता मदान्धता पैदा करती है

मतान्धता मदान्धता पैदा करती है

by Bhagwan Singh
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हमारी चिंता किसी को गिराने, मिटाने और उनकी कीमत पर अपने को उठाने की नहीं, संभलने, संभालने और आगे बढ़ने की है। हम जब भी दूसरों की आलोचना करते हैें तो आत्म निरीक्षण भी करना चाहिए।
धार्मिक उत्तेजना को उभार कर धर्मांध लोगों और देशों को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, यह सूझ अमेरिका की थी जिसे उसने अंग्रेजों से पाया था। इसकी मामूली खरोंच उन्हें भी आई। पर सबसे अधिक नुकसान उन देशों और समुदायों का हुआ जो उस जाल में न केवल फंसे, बल्कि एक बार फंसने के बाद इसे अपनी आदत में शामिल कर लिया और इसे बढ़ाते गए।
यदि कोई सोचता है कि वे धर्मांध हैं तो हम क्यों पीछे रहें, तो उससे कोई बहस नहीं। वह सेना और पुलिस और कानून के रहते रामसेना, शिवसेना, परशुराम सेना, भीम सेना, बजरंग दल, पाटीदार सेना, करणीसेना, राणाप्रताप सेना, महिषासुर सेना, बनाएगा और अपनी करनी से सेना, पुलिस और न्याय व्यवस्था के लिए समस्याए खड़ी करेगा। यदि इन सेनाओं की एक तालिका पश्चिमी समाज के सामने कोई पेश कर दे और वे अपने देश के हाल के इतिहास के उन उपद्रवी संगठनों की छवि में उन्हें गढ़ कर देखें तो उनको लगेगा, भारत जैसा उपद्रवग्रस्त और हिंदुओं से अधिक उपद्रवी समाज इतिहास में पैदा ही न हुआ। मुस्लिम आतंकवादियों की छवि में उनको ढालने पर,( जिसका प्रयत्न इर्फान हबीब जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पेशेवर (पेशा करने वाले) इतिहासकार करते हुए मुस्लिम आतंकवाद का बचाव करते रहते हैं) इस नतीजे पर पहुंचेंगे और पहुंचते हैं कि उपद्रवी हिंदू संगठनों के कारण बेचारे आतंकवादियों को आतंकवाद का रास्ता अपनाना पड़ा है।
आप कहेंगे कि सूचना के अकल्पनीय उन्नत साधनों के रहते हुए वे भारत के विषय में इतने अनजान कैसे हो सकते हैं? विश्वास मानें पश्चिम का जो व्यक्ति भारत में पहुंचकर यहां के यथार्थ से परिचित नहीं है वह भारत के विषय में उससे भी कम जानता है जितना आप अपने पड़ोसी और सांस्कृतिक दृष्टि से जुड़े हुए म्यांमार , स्याम, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, कंपूचिया आदि के बारे में जानते हैं। जिसे आप सूचना का विस्तार कहते हैं, वह, एक खास अर्थ में सूचनाओं का अंधड़ भी है. जिसमें से बहुत सावधानी से उसको सहेजना होता है जिसे जानना जरूरी होता है। मेरा अनुभव है कि दूसरे देशों के आम नागरिक भारत के विषय में बहुत कम जानते हैं इसलिए इस तरह की सूचनाएं उनके सामने रखी जाएं तो वे इस तालिका के आधार पर भारत के विषय में धारणा बनाएंगे। भारत के विरुद्ध विदेशों में पाकिस्तान के प्रचार तंत्र को इसी कारण सफलता मिलती रही है।
आप सेना का मतलब जानते हैं? जानते होंगे, परंतु इसका एक मतलब यह है कि यह ऐसी मशीन होती है जिसके पास अपना दिमाग नहीं होता अन्यथा वह एक आदेश पर ( बटन दबाते ही) पूरी तरह सक्रिय नहीं हो सकती।
2. इसके पास संहार शक्ति होती है, उपद्रव कर सकती है, परंतु इसके पास शांति के दौर में देश को आगे ले जाने की कोई योजना नहीं होती।
3. अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए इसे छोटी से छोटी बात पर उपद्रव करना होता है, अर्थात् संकटकाल में सही रास्ता चुनने और दिखाने की क्षमता इसमें नहीं होती।
4. ये सेनाएं हंगामा मचा सकती हैं पर आपदाओं का सामना नहीं कर सकती हैं अन्यथा इनको यह शिकायत नहीं होती कि हमारे रहते ही अत्याचार हो गया, या हो रहा है।
हिंदू का अपमान जितना हिंदू करता है उतना किसी दूसरे मजहब का आदमी नहीं। दूसरा उसको इस अपमान की याद दिला कर अपने पास बुलाता है। मुसलमानों ने हिदू मंदिर तोड़े। आप ने हिंदू को अपने मंदिरों में घुसने नहीं दिया, हिंदू को अस्पृश्य बना कर रखा, फिर भी वह दूसरों के बुलाने पर नहीं गया। हिंदुत्व की रक्षा किसने की? हिंदू को अपमानित करने वाले ने या अपमान सह कर भी हिंदुत्व को बचाने वाले ने?
जिन पुरोहितों-पुजारियों ने सच्चे (इसकी व्याख्या नीचे करेंगे) हिंदुओं को वंचित रखा और अपमानित किया वे उसी तरह का तिरस्कार मुसलमानों का भी करते थे। बाद में अंग्रेजों/ ईसाइयों का भी करते रहे। अंग्रेज व्यापारी थे, वे इसे हंसते हुए झेल गए। पर मुस्लिम शासक न उतने शिक्षित थे न समझदार। उनको भड़काने के लिए मुल्ले थे जो मंदिरों और पाठशालाओं को जिनमें मुसलमानों को अस्पृश्य बताया जाता था, शैतानी शिक्षा का केंद्र कहते थे और बादशाहों को उकसाते रहते थे। बुतपरस्ती के विरोध के अतिरिक्त यह एक बड़ा कारण था।
कुछ अतिसंवेदनशील दलित और कबीलाई जन खीझ कर, बहकावे में या प्रलोभन में आकर धर्मांतरण करते हैं तो यह आपको हिंदुत्व पर प्रहार लगता है। आप उनको हिंदू बने रहने को पुचकारते हैं पर इस दशा में भी सम्मान सहित जीने का आश्वासन नहीं देते।
यह एक कटु सत्य है कि जितनी आसानी से, मामूली प्रलोभन पर ब्राह्मणों ने धर्मांतरण किया है, जितने प्रलोभन पर राजपूतों ने स्वयं हिंदुओं का संहार किया या इस्लाम और ईसाइयत अननाया है, उसकी तुलना में शूद्रों और दलितों ने असाधाारण दृढ़ता का परिचय दिया है। मदुरै में नोबिली ने जिनसे संस्कृत, तेलुगु और तमिल सीखी थी वे आर्थिक प्रलोभन में धर्मांतरित ब्राह्मण थे पर वे अपनी असलियत छिपा कर पुरोहिती भी करते थे। बंगाल में सबसे पहले सवर्णों और ब्राह्मणों में गोमांस खाने का और शराब का चलन आरंभ हुआ। सबसे पहले वे इस प्रलोभन में पड़े कि यदि संस्कृत का उद्भव यूरोप को मान लिया जाय तो वे वर्तमान शासकों के बंधु सिद्ध होंगे। कश्मीर के सभी मुसलमान हिंदू और अधिकांश ब्राह्मण थे। आमेर रियासत के राजपूतों ने अपना धर्म तो बचाया पर अकबर से लेकर औरंगजेब तक के हुक्म पर जितने हिंंदुओं का वध किया उसका हिसाब नहीं। जोधपुर के राज्याधिकार के लिए औरंगजेब की सहायता पाने के लिए एक राजकुमार ने गोवध करके उसके रक्त से देव प्रतिमा को नहलाया था। बहुत हाल में सुशिक्षित और प्रतिष्ठित ब्राह्मणों ने ईसाइयत अपनाया है और अपने हिदू नाम और उपनाम को उसी तरह बचा रखा है जैसे इंदिरा, राजीव और उनकी संतानों ने किया।
मैंने अपनी व्यस्तता के बीच कई दिन इस विषय पर बर्बाद कर दिए। लोगों को जो कुछ भी वे सही मानते हैं उसकी पुष्टि करने वाला कोई विश्लेषण चाहिए। वे सोचने समझने और विश्लेषण करने की अपनी क्षमता खो चुके हैं। मैं किसी को समझा नहीं सकता, अपने विचारों का कायल करना भी नहीं चाहता, प्रयत्न व्यर्थ है। आज से मिलती जुलती स्थिति में यूरोफीलिया के शिकार टायनबी के सत्तर साल पहले पश्चिमीजगत या उसके कायल लोगों को मजहबी कट्टरता के विरुद्ध भारतीय आध्यात्मिकता की वापसी की हिमायत की थीं:
पश्चिम के लिए और हमारे पश्चिमीकरण वाले विश्व के लिए क्या संभावनाएं हैं? क्या पश्चिमी और पश्चिमीकरण करने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन के लिए संकाय के उपयोग को पुनः प्राप्त करने में सफल हो सकता है? यदि यह क्षमता उपयोग में शोष के लिए थी, तो हमें मानव होने के अपने जन्मसिद्ध अधिकार को खो देना चाहिए, और, परमाणु युग में, उप मानव पशुता में पतन का पाठ्यक्रम निश्चित रूप से ‘बुरा, क्रूर और संक्षिप्त’ होगा … प्रमुख क्या है और मनुष्य का उच्चतम अंत? मनुष्य का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की महिमा करना और हमेशा के लिए उसका आनंद लेना है। यह प्रश्न और उत्तर किसी भी हिंदू धर्मग्रंथ या किसी मध्यकालीन पश्चिमी ईसाई धर्मशास्त्रीय कार्य से नहीं आया है। वे छोटे वेस्टमिनिस्टर कैटेचिज़्म के शुरुआती शब्द हैं जो 1648 में बना था और स्कॉटलैंड के केल्विनिस्ट चर्च द्वारा अपनाया गया था। (बदलें और आदत: हमारे समय की चुनौती।
और इससे कुछ बाद में ऐसी ही चिंता से विकल हो कर लिखी एलेन गिंसबर्ग की ‘हाउल’ की कुछ पंक्तियां। इसे उसने CARL SOLOMAN को समर्पित किया था जिसने ‘Report from the Asylum: Afterthoughts of a Shock Patient’ लिखा था:
चीख़

जिन्होंने एल के नीचे अपने दिमाग को स्वर्ग की ओर झुका दिया और देखा कि मोहम्मडन स्वर्गदूतों को मकान की छतों पर रोशन किया गया है,
जो युद्ध के विद्वानों के बीच अर्कांसस और ब्लेक-लाइट त्रासदी की भयावह ठंडी आँखों वाले विश्वविद्यालयों से गुज़रे,
जिन्हें पागलखाने और खोपड़ी की खिड़कियों पर अश्लील शब्द प्रकाशित करने के लिए अकादमियों से निष्कासित कर दिया गया था,
जो बिना मुँड़े हुए कोठरियों में दुबके रहते थे, और अपना धन कूड़ादानों में जलाते थे, और शहरपनाह में से दहशत सुनते थे,

जो सोचते थे कि वे केवल पागल हैं जब बाल्टीमोर अलौकिक परमानंद में चमक रहा था,

जो मेट्रो में घुटनों के बल गरजते थे और जननांगों और पांडुलिपियों को लहराते हुए छत से खींचे जाते थे,
जो खुद को साधु मोटरसाइकिलों द्वारा गधे में चो** देते हैं, और खुशी से चिल्लाते हैं,
हिंदुत्व को इस रास्ते पर बढ़ने से रोकने की क्षमता मुझमें नहीं, पर हिंदुत्व की समझ हिंदुत्व के ठ्केदारों में नहीं। ब्राह्मणवाद को हिंदुत्व मान लेते हैं, जबकि हिंदुत्व वह आदर्श है जिसका प्रतिपादन बुद्ध ने अपने मत में (अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि के माध्यम से किया था और इसलिए अपने आंदोलन को धर्म की संज्ञा दी थी, धर्म अर्थात सनातन धर्म। सनातन धर्म और बौद्ध मत में कोई विरोध नहीं है। बौद्ध मत का अष्टांग मार्ग सनातन मार्ग है। बौद्ध धर्म भी सनातन मार्ग से विचलित हुआ, सनातन का डंका बजाने वालों ने सनातन का सत्यानाश किया। इसका सम्यक निर्वाह शूद्रों और दलितों ने किया और इसकी रक्षा के लिए अनंत यातनाएं सहीं। हमारे समाज का बंदनीय ब्राह्मण नहीं शूद्र है। सावरकर ने इसे समझा था। आज उनकी जन्मतिथि हैं। उनकी जीवनी पर नजर डालें। दूसरी विभूतियों से उनकी तुलना करें। उन्होंने अंदमान जेल से बचने के लिए आवेदन दिया था इस प्रचार की गहराई में जाएं। यह पता लगाएं कि किन किन क्रांतिकारियों ने मृत्युदंड से बचने के लिए आवेदन दिया था। उन्होंने अपने आवेदन में जिन शर्तों के पालन का आश्वासन दिया था उसका गांधी जी से तुलना करें। वह गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण जेल से रिहा होने पर भी कारावास की अवधि तक राजनीतिक सक्रियता से अपने को अलग रखा करते थे। यदि इस प्रतिश्रुति पर रिहा हुए थे कि सरकार का विरोध नहीं करेंगे, सामाजिक कार्य करेंगे तो इसका निर्वाह गांधी की तरह ही किया, इसकी तुलना कर के देखें। सावरकर ने हिंदू समाज में स्तरभेद छोड़ कर आपस में मिल कर खाने और शादी व्याह करने का प्रस्ताव ही नहीं रखा इस पर आचरण किया था। यदि आप इतने वर्षों बाद उन आदर्शों को अपना सके हों तो आप हिंदू हैं और तभी अपने को सनातनधर्मी कहने के अधिकारी हैं।
एक बात और। हिंदू के पास विवेक होता है, बंधन नही। वह समय और परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक मूल्यों का समायोजन करता है। इसे युगधर्म कहते हैं। आपदा में निषिद्ध आचरण करने की अनुमति है। इसे आपद्धर्म कहते हैे। इन दोनों को मध्यकाल के ब्राह्मण भूल गए थे। उनकी हठधर्मिता के कारण जितने बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ उसका हिसाब नहीं। हिंदू समाज का नेतृत्व करने की योग्यता ब्राह्मण एक हजार साल पहले खो चुका था और आज भी सबसे अधिक नुकसान उसके कारण हो रहा है। अस्तु।

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