एक कड़वा सच यह है कि किसान बिल वापस ही होना था, बस मौके का इंतजार था कि ऐसा न लगे सरकार डर कर / धमकी से वापस ले रही है। जैसे ही थोड़ी शांति आई, कोई भारत बंद आदि प्रस्तावित न था, गृह राज्य मंत्री के बेटे वाला किस्सा भी ठंडा पड़ गया था, चुनावी शोर अभी आरंभ नहीं हुआ है, यह बिल्कुल सही मौका था, बिल को वापस लेने का ।
इस बिल की मूल धारणा – किसानों का विकास इससे सब सहमत थे। इसके बावजूद इस बिल मे काफी कुछ, कई धाराएं / माइन्यूट डिटेल्स ऐसे थे जिसे खुद भाजपा के अधिसंख्य लोग पचा नहीं पा रहे थे। सार्वजनिक रूप से आलोचना नहीं की जा सकती थी, पर व्यक्तिगत मे शायद ही कोई समझदार परिपक्व नेता रहा हो, जिसने बिल वापसी की वकालत न की हो। यहाँ तक कि आरएसएस के किसान संघ आदि भी इस बिल से सहमत होते हुवे भी सार्वजनिक रूप से असहमत थे। वैसे मुद्दा अभी समाप्त नहीं हुआ है, पार्टी के अंदर भी कई नेताओं का msp की मांग को समर्थन है व्यक्तिगत। यह बिल परफेक्ट ईकानमिस्ट का बनाया बिल था बगैर जमीनी / सैद्धांतिक सलाह लिए हुवे।
निःसंदेह ईकानमी सिद्धांत आदि के आधार पर यह सब खारिज किया जा सकता है, पर नेता और अफसर में यही अंतर होता है। नेता सदैव दिमाग से नहीं दिल से भी काम लेता है। अन्यथा कार्य तो सारा आईएएस ही करते हैं फिर नेताओं की जरूरत क्या। पर जिस दिन ऐसा होने लगेगा उस दिन आम जनता त्राहि माम कर जाएगी।
एक और बड़ा पहलू था कि जाने अनजाने आप समाज के एक बड़े वर्ग को अपने से अलग करते जा रहे थे। भाजपा / आरएसएस इन्क्लूसिव संगठन है, वृहद विचार धारा का समर्थक। आरएसएस बुद्ध का समर्थन करता है, स्वामी महावीर को भी, साई बाबा को भी, डेरा / बाबा / संतों का भी, सिख गुरुवो का भी और उन मुस्लिमों का भी जिनका राष्ट्र / श्री राम पर यकीन है – यद्यपि उनकी संख्या काफी कम है। ऐसे मे इस लंबे आंदोलन से हम सिखों को अलग कर रहे थे, जाट भी अलग होते नजर आ रहे थे और कहीं न कहीं यह वैमनश्य सब जगह फैलता दिख रहा था। कहाँ आरएसएस पाकिस्तान और बांग्ला देश को भी भारत का अंग मानती है तो वहीं इस बिल विरोध की आँड़ मे खालिस्तानी ताकतें देश के बंटवारे मे ही शक्रिय हो रही थीं। आरएसएस तो इतना पाज़िटिव संगठन है कि अपने कार्यक्रम मे प्रणव मुखर्जी को बुलाता है और उनसे अपनी आलोचना पोसीटिव वे में सुनता है तो ऐसे मे जब देश का एक बाद वर्ग लंबे समय से किसी चीज की खिलाफत कर रहा हो तो उसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।
कहावत है देर आए दुरुस्त आए। यदि आप व्यक्तिवादी हैं और मोदी जी के व्यक्तिगत फैन हैं बगैर भाजपा को समझे तो आपको निश्चय ही बहुत निराशा होगी आज के निर्णय से। यदि आप की राजनीति सोशल मीडिया तक सीमित है तो भी आपको जबरदस्त निराशा होगी। पर यदि आप पार्टी सिद्धांत वादी हैं, जमीन पर परख है, पकड़ है – निराशा इस बात की तो हो सकती है कि कल तक बिल का बचाव करते थे, अब क्या मुंह दिखाएंगे, पर सैद्धांतिक तौर पर आपने चैन की सांस जरूर ली होगी – बला कटी। गुड रिडेन्स। बच गए।