Home विषयअर्थव्यवस्था हमारी चारित्रिक-सड़ांध — झूठ, फरेब, दिखावा, अकर्मण्यता

हमारी चारित्रिक-सड़ांध — झूठ, फरेब, दिखावा, अकर्मण्यता

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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शाब्दिक व दार्शनिक तर्कशीलता के मानदंडों में अद्वितीय व विलक्षण संस्कृति, व्यवहारिक धरातल की वास्तविकता में बहुत ही अधिक अमानवीयता व खोखलाहट को ही पोषित करती व जीती रही। दर्शन को व्यवहारिक-जीवंतता के स्थान पर केवल शाब्दिक तर्कशीलता तक ही कुंठित किया जाता रहा। वास्तव में भारतीय समाज की सबसे बड़ी ऋणात्मकताएं ढोंग, अमानवीयता व असंवेदनशीलता हैं और ये तत्व ही मूलभूत कारण हैं कि भारतीय समाज बहुत ही वीभत्सता के स्तर तक आंतरिक रूप से सड़ा हुआ है, फिर भी समाज के लोग जो कि खुद अपने ही जीवन में खोखले होते हैं, किंतु रटे-रटाए दर्शन की कृतिम शाब्दिक-तार्किकता से अपने को व अपनी संस्कृति को जबरन महान सिद्ध करने में ही अपनी ऊर्जा लगाने में गौरव का अनुभव करते हैं। गीता को महान बताने वाला समाज, कर्म को ही उपेक्षित रखता आया है।
हम यदि खुद के जीवन को ध्यान से देखें तो पाएगें कि हमारा अपना पूरा का पूरा जीवन ही झूठ और दिखावा का पुलंदा है। हमें बचपन से ही दिखावेपन की पुनुरुक्ति के लिए इस तरह का अभ्यास करवाया जाता है कि हम खुद अपने आपको ही भूल जाते हैं और अपने ढोंग, खोखलेपन, निर्दयता, असंवेदनशीलता, अवैज्ञानिक-तर्कशीलता व अतथ्यात्मकता आदि को ही अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकता और सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि व उद्देश्य मानने लगते हैं।
हमें पता ही नहीं चलता और हम सड़ने लगते हैं। जब हमे अपने सड़ने की बदबू आती है, हम बदबू का कारण बाहर खोजते हैं। हम बदबू का कारण बाहर इसलिए नही खोजते क्योंकि हमे बदबू का कारण वास्तव में खोजना होता है। ढोंगो और प्रायोजन के आदी हम वास्तव में अपने से अधिक बदबूदार को खोजना चाहते हैं ताकि खुद को उसकी तुलना में खुशबूदार साबित करके खुद को बेहतर प्रायोजित कर खुद को महान मान लें। यही कारण है कि हम दिन-प्रतिदिन और अधिक सड़ते जाते हैं लेकिन फिर भी दूसरों की तुलना में खुद को खुशबूदार मानते हैं।
यह हमारी स्वयं के प्रति घोर निर्दयता व असंवेदनशीलता ही है, कि हम वास्तविक खुशबू में जीने के प्रयास करने की बजाए अपनी सड़ाँध व बदबू को ही खुशबू के रूप में प्रायोजित करने मे अपनी ऊर्जाएं लगाते हैं। हम पूरा जीवन नशे व बेहोशी में जीते हैं, और बेहोशी में जीवन जीने को हम जीवन की व्यावहारिकता कहते व साबित करते हैं; जबकि वास्तव में यह हमारा अपने खुद के प्रति ही और अधिक असंवेदनशील होना ही है।
हम स्वयं को विकसित करने के लिये, स्वयं को बेहतर बनाने के लिए कर्म, प्रयास या चेष्टा नही करना चाहते हैं। स्व-निर्माण की प्रसव पीड़ा नही झेलना चाहते हैं। इसीलिए हम अपने जीवन के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए व देश के लिए ऐसे सामाजिक-नेतृत्व प्रायोजित करते हैं; जो हमारे जैसे ही हों। सामाजिक-नेतृत्व छोड़िए हमने तो अपने ईश्वर भी अपने ही जैसे बना रखे हैं।
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*विवेक उमराव*
की पुस्तक “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” से

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