यह 1998 लोकसभा चुनावों का क़िस्सा है. उस समय वोट बैलट पेपर पर होते थे. एक भाजपा का कार्यकर्ता स्थानीय सांसद से बहुत नाराज़ था. सबको शक था कि यह भाजपा को वोट तो बिल्कुल न देगा. लाइन में जब उसका नम्बर वोट डालने का आया, उसने चप्पल उतारी और बैलट पेपर को चार पाँच चप्पल मारे. फ़िर मुहर उठाई, कमल पर लगाई और सबको दिखाया कि देखो कमल पर वोट डाला है और वोट डाल दिया. तात्पर्य यह था कि वह प्रत्याशी से इतना नाराज़ है कि उसे चप्पलों मारे. पर वोट कमल को वोट अटल को.
अब यदि इस व्यक्ति से चुनाव से पूर्व कोई सर्वे वाला मिल जाता तो उसे लगता कि जनता बहुत नाराज़ है भाजपा से. अबकी भाजपा साफ़. यहीं सर्वे करने वाले चूक जाते हैं और ज़मीन की राजनीति देखे लोग समझ जाते हैं कौन जीतेगा कौन हारेगा.
सत्य है कि ब्राह्मणों के एक बड़े वर्ग की योगी सरकार से नाराज़गी रही. दस करोड़ की बस में चलने वाले अखिलेश जैसे नेता समझते हैं कि बस इस वजह से ब्राह्मण वोट उन्हें मिल गया. देखने की ज़रूरत यह थी कि जो नाराज़गी है वह क्या इतनी है कि ब्राह्मण भाजपा को वोट न देकर सपा को वोट दे? इसी बीच अखिलेश भैय्या ने अपने गुर्गों को सूचित कर दिया कि हम जीत गए. तो अखिलेश समर्थक एक जाति विशेष के लोगों ने इतना शोर और गुंडई अभी से मचा दी कि जो ब्राह्मण था भी वह भी भाग गया. बस अब नेता विशेष और उनके चंद समर्थक मात्र बचे.
नेताओं से बेहतर राजनीति कोई नहीं जानता. मैं स्वयं अच्छे जानता हूँ भाजपा के ढेरों ब्राह्मण चेहरे को सपा का ऑफ़र रहा है / है. पर सबको इतनी समझ है कि मालूम है ये नहीं जीत रहे हैं. तो ऐसे में क़द्दावर छोड़िए, वह तक जो भाजपा के इस कार्यकाल में उपेक्षित रहे वह भी सपा की ओर देख तक नहीं रहे हैं. इक्का दुक्का अति फ़्रस्टेट लोगों को छोड़ दिया जाए तो आप मुश्किल से ही किसी नामी भाजपाई ब्राह्मण चेहरे को सपा में जाते पाएँगे. हाँ सपा से इधर ज़रूर आ रहे हैं.
ओपीनियन पोल भाजपा को इन चुनावों में विजई बता रहे हैं. मैंने ज़िंदगी में ढेरों चुनाव देखे हैं. दावे से कह सकता हूँ भाजपा यदि स्वयं कुल्हाड़ी पर पैंर न रख दे, ईश्वरीय आपदा न आ जाए, भाजपा के लिए इससे शानदार चुनावी माहौल इतिहास में नहीं रहा. 2014 में भी नहीं.