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स्टेशनरी की दुकान

by Nitin Tripathi
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कस्बे मे एक छोटी सी स्टैशनेरी की दुकान थी – दुकान के मालिक का नाम प्रेमू था। मेरे बचपन का सपना था एक दिन बहुत पैसे कमाऊँगा और प्रेमू की दुकान से मन भर कर शॉपिंग करूंगा। हम सभी बच्चों ने अपनी विश लिस्ट भी बना रखी थी कि अंडा वाली बाल, चिड़िया, ढेर सारी पापीन्स, टंकी वाला निब पेन यह सब खरीद लेंगे।
जाहिर सी बात है जब बड़े हुवे, इस लायक हुवे कि यह सब खरीद सकें तो इनकी जरूरत नहीं रह गई। जब छोटा घर था तो रहने वाले इतने लोग होते थे कि एक एक कमरे मे दस बारह लोग हों। जब घर बड़ा हुआ रहने वाले लोग उसी अनुपात मे कम होते गए। जब खाने की इच्छाएं और सामर्थ्य होता है, तब पैसे नहीं होते हैं। जब पैसे आते हैं तब डाइबीटीज जैसी ढेरों बीमारियाँ या जाती हैं और अब खा नहीं सकते हैं।
जब घूमने का वक्त था, तब समय नहीं था नौकरी और जिंदगी के जंजाल मे। जब वक्त हुआ तो शरीर जवाब दे चुका था। जब चार हजार तनख्वाह होती है, तो लगता है अभी क्या दान दक्षिणा दें, चालीस हजार तनख्वाह हो जाए आधी तनख्वाह धर्म कर्म पर खर्च करूंगा। तनख्वाह चार लाख हो जाती है, तीन लाख ईएमआई मे चले जाते हैं, महीने के अंत तक उधारी हो जाती है।
जब रिश्ते निभाने की सामर्थ्य, इच्छा और शक्ति होती है तब रिश्ते नहीं होते हैं। बुढ़ापे तक आते आते सैंकड़ों रिश्ते बन चुके होते हैं पर अब वह अच्छे नहीं लगते, खुद से प्यार हो जाता है। ईश्वर ने आक्सीजन मुफ़्त दी है। आजीवन उसका मुफ़्त उपभोग करते हैं। अंतिम समय पता लगता है यह तो अनमोल थी। कितनी भी कीमत दे लो अंत मे इसी की कमी से प्राण चले जाते हैं।
माँ का प्रेम, प्रेयसी / पत्नी का प्यार, सूर्य की किरणें, चंद्रमा की चाँदनी सब मुफ़्त है। तब इसकी कद्र नहीं होती। जब इसकी कद्र करना आता है तब तक यह हाथ से निकल चुके होते हैं। जिंदगी का सच यही है। जब चीजें उपलब्ध होती हैं, तो उनकी उतनी वैल्यू नहीं होती है। जब वैल्यू पता लगती है तो चीजें गायब हो चुकी होती हैं। जब जहां जिस क्षण पर हैं, उसे ही परफेक्ट मानते हुवे जिंदगी का हर क्षण जीते हुवे चलें। कल की प्रतीक्षा न करें।

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