आज भारत माता के सर्वोत्तम सुपुत्रो में से एक, वीर विनायक दामोदर सावरकर जी का जन्म दिवस है, जिनको वर्तमान की पीढ़ी, ‘वीर सावरकर’ के नाम से जानती है। सावरकर जी उन स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों में से है, जिनके योगदान को, स्वतंत्रता के बाद से ही कांग्रेस की सरकारों ने और वामपंथी इतिहासकारो द्वारा नकारा गया है। भारत के लिखे गए इतिहास में वीर सावरकर जी को वह सम्मान कभी नही दिया गया, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे।
वीर सावरकर जी एक ऐसे क्रन्तिकारी थे, जिन्होंने ने अपनी लेखनी से न सिर्फ क्रांति का सिंहनाद किया था बल्कि 20वीं शताब्दी के आरंभिक काल के सभी क्रांतिकारियों में अलख जगाई थी। वर्तमान का स्थापित सत्य यही है की उस काल में, भारत में क्रांति की मशाल को सावरकर जी की लेखनी ने प्रज्वलित की थी।
यह सावरकर जी ही थे जिन्होंने 1857 में अंग्रेजो के विरुद्ध भारतीयों द्वारा किये गए सशस्त्र विद्रोह को, अंग्रेजो द्वारा ‘सिपोय म्यूटिनी’ कहे जाने को पूर्णता अस्वीकार कर, उसे भारत का ‘स्वंत्रता संग्राम’ की संज्ञा दी थी। उन्होंने सर्वप्रथम 1857 को हुये विद्रोह का एक प्रमाणिक इतिहास,’द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857′, नाम से लिखा था। यह पुस्तक मूलतः मराठी में लिखी गयी थी लेकिन उसके छपने से पहले ही, ब्रिटिश सरकार ने इसकी मूल प्रति जब्त कर, उसके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया था। 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को फिर अंग्रेजी में लिखा गया और भारत मे इसके प्रकाशन में आरही कठिनाइयों को देखते हुए, उसे हॉलॅंड में छपाया गया। फिर इस पुस्तक की प्रतियों को फ्रांस के रास्ते, भारत पहुंचाई गई थी। इस पुस्तक के प्रतिबंधित होने के कारण लेखक के रूप में सावरकर जी का नाम नही दिया गया था। उसे एक छद्म, ‘ऐन इन्डियन नेशनलिस्ट'(एक भारतीय राष्ट्रवादी) के नाम से छापी गयी थी।
वीर सावरकर जी के पुरे क्रन्तिकारी दर्शन पर इटली के प्रख्यात राजिनैतिक विचारक ‘गुइसेप्पे मज़्ज़नि’ का बहुत प्रभाव था और उन्होंने अपने जीवनकाल में स्वयं कई बार इस प्रभाव को स्वीकार भी किया था। वीर सावरकर जी ने भारत में क्रांति की अलख जगाने और लोगों को क्रांति के प्रति प्रेरित करने के लिए, क्रांतिकारियों और क्रांतियों पर लेखन करने का मार्ग चुना था। अपने लेखन में क्रन्तिकारी की जो व्याख्या सावरकर जी ने की और इसको लेकर अपने विचारों को जो अभिव्यक्त किया, उसे उन्होंने परंपरागत रूप से कोई व्यवस्थित आलोचनात्मक स्वरूप नही दिया था। इस कारण से बहुतों को उनके विचारों की विवेचना करना दुःसाध्य प्रतीत हुआ और इसी लिए, स्वतंत्रता के बाद के, वाद की पाश में बंधे, बुद्धजीवियों व इतिहासकारों ने सावरकर जी और उनके लेखन की उपेक्षा की। भारत के वामपंथी इतिहासकार, सावरकर जी की इस अवधारणा की, कि ‘एक क्रांति के युद्ध के संभव होने में, क्रांतिकारी की महत्ता होती है’ को निरर्थक मानते रहे है।