Home लेखक और लेखदेवेन्द्र सिकरवार ओलंपिक पदक और राष्ट्रीय संपन्नता सूचकांक

ओलंपिक पदक और राष्ट्रीय संपन्नता सूचकांक

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पिछले सत्तर साल से हर ओलंपिक पर यही प्रश्न उठता आ रहा है कि जनसंख्या के अनुपात में हमें उतने पदक क्यों नहीं मिलते जितने अन्य देशों को? दरअसल हम केवल ‘जनसंख्या और सुविधा’ केवल दो पैरामीटर्स पर ओलंपिक पदकों की संख्या की गणना करते हैं जबकि इसमें एक साथ कई कारक काम करते हैं।

अगर छोटे छोटे अफ्रीकी या दक्षिण अमेरिकी देशों द्वारा एक या दो प्रतियोगिताओं में जीते पदकों और वह भी अधिकतर व्यक्तिगत कौशल वाली प्रतियोगिताओं में, तो यह बात साफ साफ नजर आती है कि प्रतियोगितात्मक खेल स्पर्धाओं में खिलाड़ियों का प्रदर्शन सीधे सीधे उस देश के आर्थिक विकास, सामाजिक संगठन, शिक्षा व्यवस्था व राष्ट्र के रूप में उसके नागरिकों के प्रदर्शन से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है।

हॉकी को छोड़ दिया जाये तो भारत का कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन ओलंपिक में अभी तक नहीं रहा है और उसके साथ तुलना कर लीजिए अभी तक भारत की अर्थव्यवस्था, सामाजिक व शैक्षणिक पतन व नागरिकों के रूप में बेहद निराशाजनक प्रदर्शन से।

जहाँ तक मुझे याद है पी वी नरसिंहराव के सुधारों के बाद जब अटलजी के काल में व्यवस्था कुछ पटरी पर आने लगी थी तब एक यूरोपियन अर्थशास्त्री ने घोषणा की थी कि आने वाले समय में भारत की आर्थिक-सामाजिक स्थिति कम से कम पाँच स्वर्ण पदकों को डिजर्व करेगी।

-भारत ने 2008 में एक स्वर्णपदक एकल स्पर्धा में पहली बार अभिनव बिंद्रा के माध्यम से जीता।

-2012 में भी 6 पदकों के साथ ठीक ठाक रहे पर स्वर्ण नहीं मिला।

इसके बाद भारत के आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक माहौल में जिस संस्थागत भ्रष्टाचार ने जन्म लिया उसकी सफाई होने में एक दशक और लगेगा तब कहीं हमें परिणाम मिलने शुरू होंगे।

अगर आपने कभी हॉकी या क्रिकेट के पूर्व और वर्तमान खिलाड़ियों की लंबाई डीलडौल आदि पर ध्यान दिया हो तो आपको आज से चालीस साल पहले के और वर्तमान भारत की पीढ़ी में आया अंतर समझ आ जायेगा। भारत की सबसे बड़ी समस्या है खंड विकास और खराब शैक्षिणिक व्यवस्था।

भारत में कुछ क्षेत्र बहुत विकसित हैं और कुछ बहुत पिछड़े। यही कारण है कि खिलाड़ी उन क्षेत्रों से ही निकल रहे हैं जहाँ या तो अच्छी आर्थिक उन्नति व परंपरागत रूप से अच्छा खानपान रहा है जैसे पंजाब-हरियाणा या वहाँ से जहाँ अच्छी शिक्षण व्यवस्था व बेहतर खुला निर्भीक सामाजिक वातावरण है जैसे कि पूर्वोत्तर।

जेटली सैकिया जी और राजश्री जी के लेखन व चित्रों से उत्तरपूर्व के बेहतर सामाजिक वातावरण का अंदाजा लगाया भी जा सकता है। अगर अभिनव बिंद्रा व राज्यवर्धन सिंह को छोड़ दें तो अधिकतर पदक इन्हीं दो क्षेत्रों से आ रहे हैं।

लेकिन जरा सोचिये जहाँ भयंकर आर्थिक भ्रष्टाचार, भारतीय पुरुषों की असीम यौन उत्सुकता व लव जेहादियों के कारण लड़कियों के लिए असुरक्षित वातावरण हो, हंगर इंडेक्स में 107 देशों में 94 वां स्थान हो, शिक्षा व्यवस्था पूर्णरूप से रोजगार केंद्रित हो वहाँ खेलों का वातावरण कैसे पनप सकता है?

उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात व दक्षिण के राज्य खेलों में क्यों पीछे हैं आप समझ सकते हैं। जब तक भारत में संसाधनों को चरते हुये इंसान के वेश में 30 करोड़ जानवरों की फौज रहेगी, शिक्षा को राष्ट्रवादी प्रशिक्षण से और खेलों को रोजगार से नही जोड़ा जायेगा पदक कभी नहीं आएंगे।

और हाँ चीन की सफलता से न तो चमत्कृत होइये और न हीन भावना में आइये क्योंकि वहां से खिलाड़ी नहीं बल्कि तानाशाह चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा टॉर्चर द्वारा ‘प्रोग्राम्ड जूम्बीज’ आते हैं जो इन तानाशाहों के लिए पदक काटकर लाते हैं।

वास्तविक खिलाड़ी यूरोप, यू एस, जापान व दक्षिण कोरिया से आते हैं जहाँ बच्चे अपनी इच्छा व लगन से खिलाड़ी बनते हैं न कि टॉर्चर द्वारा।

तो कुल मिलाकर भारत को अपने आर्थिक-सामाजिक विकास पर केंद्रित करना होगा व देशभक्त व जिम्मेदार नागरिक के रूप में जीना सीखना होगा फिर पदकों के ढेर लग जाएंगे।

देवेन्द्र सिकरवार

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