कोई पूर्वाग्रह

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जब कोई पूर्वाग्रह किसी विषय से संबंधित हो तो प्रतिपाद्य सिद्धांत भी पूर्वाग्रह से दूषित ही निकलेंगे।

यह समस्या केवल वामपंथियों की ही नहीं बल्कि आर्यसमाजियों, शास्त्रवादी

जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावादियों, दलित चिंतकोंऔर शाकाहारवादियों की भी है।

-वामपंथियों को किसी भी मूल्य पर आर्य आक्रमण सिद्धांत सत्य सिद्ध करना है ताकि ‘आर्य/हिंदू संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद को रोक सकें। लेकिन भाषाई, नस्ली या माइटोकॉन्ड्रियल व वाई गुणसूत्र के नये विश्लेषणों के उल्लेख भर से बौखलाकर विद्वानों को संघी सिद्ध करने लगते हैं

-मुस्लिमों को किसी भी मूल्य पर स्वयं को अरब या तुर्क नहीं तो कम से कम पठानों का डीएनए सिद्ध करना चाहते हैं ताकि भारत भूमि पर हिंदुओं के ऊपर अपनी डोमीनेन्सी को सिद्ध कर सकें। अगर कोई उनका हिंदू मूल सिद्ध कर देता है तो वे उसे फिरकापरस्त घोषित करने लगते हैं। उनके पास इस सप्रमाण किये गए इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं कि उनका अरब, तुर्क व मुगल बादशाहों से खून का कौन सा रिश्ता है।

-आर्यसमाजियों का तो हाल ही निराला है। अपने मूल उद्देश्य को छोड़कर बस इस बात पर पिले पड़े हैं कि मूर्तिपूजा पाप है, कृष्ण और द्रौपदी का एक ही विवाह हुआ था और आयुषी राणा भारती ने त्रिपुंड लगा लिया तो वह पाखंडवादियों के फेर में आ गईं। इन्हें अगर वेदों में इन्द्रमूर्ति व दारुब्रह्म की पूजा के सूक्त दिखाए जाते हैं तो बस तुरंत अगले को विवेकानंद व शांकर मत का पाखंडी अनुयायी घोषित कर देते हैं।

-शास्त्रवादी जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावादियों का हाल तो बहुत ही दयनीय है। इन्हें वामपंथियों, मुस्लिमों से तो लड़ना ही है साथ ही आर्यसमाजियों, रामकृष्ण मिशन, इस्कॉन से भी घोर समस्या है। शूद्र व दलितों से तो इनकी भयानक घृणा जगजाहिर है। इनका बस चले तो पूरी पृथ्वी के समस्त मानवों को शाप देकर भस्म कर दें लेकिन जब कोई इनसे शास्त्रों के अंतर्गत आने वाले ग्रंथों के नाम और वर्तमान शंकराचार्यों की उपयोगिता के विषय में भी पूछ ले तो तुरंत ब्रह्मदंड उठा लेते हैं। इनका मानना है कि वे जन्म से ही श्रेष्ठ हैं और सारी सरकारी नौकरियों पर उनका जन्मना अधिकार है।

-दलित चिंतकों का पूरा जोर बस एक ही बात पर है कि उनका उत्पीड़न यूरेशियाई ठाकुर, पंडित व बनियों द्वारा किया गया अतः अनंत काल तक का आरक्षण और सवर्णों की सुंदर बेटियों से विवाह उन्हें ‘मुआवजे’ के तौर पर मिलना चाहिए। पर उन्हें जब उन्हें यह बताया जाता है कि बाबा साहेब अंबेडकर ने स्वयं आर्य आक्रमण सिद्धांत का सप्रमाण खंडन किया था तो वे उत्तर देने के स्थान पर तुरंत आपको श्रेष्ठतावादी मानसिकता से ग्रसित दलितविरोधी घोषित करने लगेंगे।

-शाकाहारविरोधियों की स्थिति सबसे ज्यादा हास्यास्पद है। एक ओर तो उन्हें शाकाहार के मुद्दे पर आर्यसमाजियों के साथ होना पड़ता है वहीं आरक्षण के मुद्दे पर जन्मनाजातिगतश्रेष्ठतावादियों के साथ माँस की कढाई में करछुल हिलाना पड़ता है। जब इनसे पूछा जाता है कि आखिर तुम विरोध किसका कर रहे हो माँसाहार का या शास्त्रों का या आरक्षण का तो इनके पास कोई ढंग का उत्तर नहीं होता।

इन सबकी मूल समस्या एक ही है और वह है इनके पूर्वाग्रह जो दो तरीके से विकसित होते हैं-
1-पारिवारिक माहौल जिसके अनुरुप उसकी वैचारिक पीठिका का निर्माण होता है और उनके ‘अहं’ से जुड़ जाता है। ऐसे लोगों के विचार बदलना बहुत मुश्किल काम है।

2-किसी विद्वान के मत की पुस्तक या प्रवचन सुनकर बना पूर्वाग्रह। इनका टूटना और भी मुश्किल है असंभव प्रायः होता है क्योंकि पारिवारिक संस्कार निजी होते हैं लेकिन पुस्तक या प्रवचन से उपजे विचार उसे ‘नैतिक कवच’ से भी आवृत्त कर देते हैं और उसका टूटना असंभव है।

-इस्लाम के अनुयायियों में जेहाद और जन्नत में
-यहूदियों का स्वयं को ‘Chosen people’ मानना
-ब्राह्मणों का स्वयं को ‘परम पुरुष के सिर से उत्पन्न’ मानना’,
-आर्यसमाजियों का ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को इतिहास मानना,
-शाकाहारवादियों का वैदिक आर्यों को शाकाहारी मानना,
-यूरोपियनों का गौर वर्ण को श्रेष्ठ रंग मानना,
-चीनियों को चीन को सभ्यताओं का केंद्र मानना,
-पठानों का स्वयं को अपराजेय मानना,
-हिंदुओं का अपने धर्म का जन्म लाखों वर्ष पूर्व मानना।

ऐसे पूर्वाग्रह ही सारी समस्याओं की जड़ हैं और जब भी कोई इनपर तथ्यात्मक प्रहार करे तो उनके संचित अहं के घायल होने के कारण वे तुरंत हमलावर हो जाते हैं।

अगर विश्वास न हो तो तालिबान के कारण ही अफगानिस्तान के किसी भगोड़े पठान से कहकर देखिये कि तालिबान कायर है तो फिर उसकी प्रतिकिया देखिये।
पिछले दिनों मैंने भी कुछ लोगों से ऐसा ही एक सवाल पूछ लिया था।
फिर क्या था……….
….सबरे पठान बन गये

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