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हमारे घर एक संन्यासी आये थे। मेरे पिता यों तो उनके गुरुभाई थे लेकिन फिर भी पिता उन्हें गुरु की गद्दी के रूप में बहुत आदर देते थे।
उनकी गुरुभक्ति व अहिंसा का आलम यह था कि विषैले सर्प से डंसे जाने के बाद भी उन्होंने साँप को मारने न दिया और गुरु के नाम पर घुटने से ऊपर कसकर रस्सी बांध दी।
जहर ऊपर तो न चढ़ा लेकिन उसके असर से उस पैर के ऊतक विकृत हो गए और उन्हें आजीवन परेशानी रही। अस्तु!
एक बार वह ग्रीष्म ऋतु में घर पधारे और उनकी व्यवस्था नीचे के कमरे में हुई। कूलर, बिस्तर आदि ठीक लगाए गए लेकिन मच्छरों का कोई इलाज न था।
उन दिनों बल्व के ऊपर मॉस्कीटो रिपेलेंट रखने का प्रचलन था लेकिन उनकी जीवदया की भावना के अनुरूप उसे प्रयोग में नहीं लाया गया।
शाम से ही मच्छरों ने धावा बोल रखा था।
थोड़ी देर में उनका बुरा हाल हो गया।
उन्होंने परेशान होकर पिताजी को बुलवाया।
“आपकी वजह से मच्छर मारने की टिकिया नहीं लगाई थी।”, पिताजी ने स्पष्टीकरण दिया।
“अरे लगा गुरुभाई।” अपनी लाल हुई देह को रगड़ते वे बोले।
“पर वो जीवहत्या का ….” पिताजी ने हिचकते हुए कहा।
“लगने दे पाप मुझे और मार सालों को। तेरे ऊपर जो पाप लगेगा, उसे भी मैं अपने सिर लेता हूँ। बस तू इन्हें निपटा।” संत फटाफट तड़-तड़ बोले।
संत ने पूर्ण निर्ममता से मच्छरों का सामूहिक संहार करवा डाला और फिर चैन से अपने ध्यान में बैठे।
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मुस्लिमों के सूफी, दरवेश, मुल्ला आदि हमेशा अपने शासकों को इस बात के लिए प्रेरित करते रहे कि वे ‘काफिरों’ को मारकर, मंदिर तोड़कर इस्लाम को फैलाएं, लेकिन भारत में पिछले डेढ़ हजार वर्ष में माधव विद्यारण्य को छोड़कर एक ऐसा संत पैदा नहीं हुआ जो हिंदू शासकों को इस बात के लिये प्रेरित कर सके कि वे शांति स्थापना के लिए पृथ्वी पर ‘आतंक के सबसे बड़े मजहब’ को जड़मूल से नष्ट करना वस्तुतः मानवता व अध्यात्म की सबसे बड़ी सेवा है।
भारत के धर्म मठाधीश या तो शास्त्रचर्वण करके मंदिर में कौन प्रवेश करेगा कौन नहीं, इसपर बकवाद करते रहे या फिर हिंदुत्व व इस्लाम की समानता का कायरतापूर्ण उद्घोष करते रहे।
काश कोई संत हिंदू राजाओं से कहता–
“मार सबको लाइन से, इन सारी हत्याओं के पाप मेरे सिर पर रहेंगे।”
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शुक्र है, कम से कम इजरायल के धर्म निर्देशक #रब्बी लोग तो ऐसे ही हैं।

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