विष्णु के ऐसे अवतार जिनकी चर्चा प्रायः कम ही की जाती है। उत्तर भारत में तो शायद ही कोई मंदिर हो जो हयग्रीवको स मर्पित हो लेकिन दक्षिण ने हिंदुत्व के कई तत्वों को सुरक्षित रखा और हयग्रीव अवतार’ उनमें से एक है।
पुराणों के अनुसार एक ‘अश्वमुख राक्षस’ हयग्रीव ने स्वयं के विषय में ‘अन्यपुरुष’ के रूप में उल्लेख करते हुए वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु ‘हयग्रीव’ के हाथों ही हो। उसका आशय था कि उसकी मृत्यु स्वयं के हाथों ही हो लेकिन ‘अन्यपुरुष’ के रूप में स्वयं के उल्लेख ने उसकी मृत्यु का द्वार खोल दिया।
हयग्रीव ने ऋषियों को बंदी बना लिया और समस्त वैदिक ज्ञान को हथिया लिया।
हाहाकार मच गया।
देवगण ब्रह्माजी के नेतृत्व में विष्णु के पास पहुँचे जो एक वृक्ष के नीचे अपने धनुष के सहारे से योगनिद्रा में लीन थे।
ब्रह्माजी ने दीमक का निर्माण किया जिसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी और झन्न की आवाज के साथ कटी प्रत्यंचा ने भगवान विष्णु का सिर काट दिया।
सभी स्तब्ध रह गए।
ब्रह्माजी ने योजनानुसार एक घोड़े के सिर को विष्णु के धड़ पर रोप दिया और जन्म हुआ ‘भगवान हयग्रीव’ का।
असुर हयग्रीव ‘भगवान हयग्रीव के हाथों मारा गया और वेद व ऋषिगण मुक्त हुए।
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क्या बस यह एक पौराणिक कहानी है?
वास्तव में बात यह है कि हिंदुओं ने सुदूर अतीत से ही इतिहास व घटनाओं को याद करने का एक निराला तरीका निकाला।
उन्होंने इतिहास व ऐतिहासिक घटनाओं को याद करने के लिए उन्हें धर्म व परंपराओं में मिश्रित कर दिया।
इसलिये हयग्रीव की कथा न तो कोई मिथक है और न ही मात्र धार्मिक दिव्य गाथा।
यह भारत ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास की ऐसी घटना थी जिसने दुनियाँ को और युद्धों की दिशा को बदल डाला था।
हयग्रीव की कथा वस्तुतः सुदूर ‘उत्तर कुरु’ में अश्वों को ‘वॉर मशीन’ के रूप में उतारे जाने की गाथा है जिसे आज किर्गिज-कजजाकिस्तान कहा जाता है।।
यह वह घटना है जिसने संसार को एक ऐसी ‘टोटम’ जाति से परिचित कराया जो पुराणों में ‘गंधर्वों’ के नाम से प्रवेश करने वाली थी।
सुदूर ‘बोटाई’ से लेकर ‘भीमबैठका’ तक बिखरे पुरातात्विक, साहित्यिक साक्ष्यों के आलोक में जानिए कि संसार को कैसे अश्व व सामवेद की सौगात मिली।
Written By – देवेन्द्र सिकरवार

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