सही अर्थों में जो अस्तित्व को माने ही न अर्थात न रिश्ते-न नाते, न पाप- न पुण्य, न आत्मा-न परमात्मा, न सत्य-न असत्य…
इन कसौटियों पर केवल आजीवक और पदार्थवादी ही नास्तिक ठहरते हैं,मार्क्सवादी तक नहीं।
मार्क्सवादी हद से हद तक अनीश्वरवादी ठहरेंगे और अनीश्वरवादी तो कई सम्प्रदाय हैं।
वस्तुतः मार्क्सवादी अनीश्वरवादी भी नहीं हैं बल्कि ‘नकारवादी’ हैं क्योंकि उनका अनीश्वरवाद ईश्वर के अस्तित्व के होने न होने की शंका और आवश्यकता पर नहीं बल्कि ईश्वर के न होने के ‘नकारवाद’ पर टिका है जो कतई वैज्ञानिक नहीं है क्योंकि विज्ञान किसी भी संभावना को एकदम अमान्य नहीं करता केवल पुष्टि करता है।
इसी तरह संकट में ईश्वर को याद करना न करना नास्तिकता या आस्तिकता नहीं वरन सहज मानवीय मनोविज्ञान है न कि किसी सिद्धान्त की पुष्टि या अपुष्टि।
इसी तरह मंदिर जाने, कर्मकांड आदि का अंधविरोध सिर्फ राजनैतिक विचारधारा है न कि कोई नास्तिकता क्योंकि नास्तिकता एक बहुत गहरी दार्शनिक विचारधारा है।
नास्तिक होने के लिए ‘सत्य के प्रति जिज्ञासु’ और ‘सत्य का सामना करने का असीम साहस’ चाहिए।
अर्जुन तक सामने खड़े अनंत के भयावह सत्य को स्वीकार नहीं कर पाये थे और इतने भयग्रस्त हो गए कि उन्होंने पुनः स्वयं अपने ही रचे मायाजाल के भंवर में जाना चुना और उन्होंने कृष्ण से कहा कि वे सत्य को ‘चतुर्भुज विष्णु’ रूप में देखना चाहते हैं।
कृष्ण मुस्कुराए थे क्योंकि अर्जुन तैयार नहीं थे।
सत्य तो यह है कि इस जगत में ‘नास्तिक’ होना सबसे कठिन है और जो कठिन होता है लोग या तो उसे भगवान बना देते हैं या शैतान।
वस्तुतः सत्य की यात्रा अपनी आंखों की पट्टी को खोलने से प्रारंभ होती है जिसका पहला चरण है-संदेह….आत्मा, परमात्मा के विषय में संदेह और यह है ‘अनात्मवाद-अनीश्वरवाद’
मानवता की हजारों साल की यात्रा में, इस ग्रह पृथ्वी पर गुजर चुके अरबों लोगों में से बुद्ध, महावीर, कबीर, रामकृष्ण, विवेकानंद जैसे गिनेचुने व्यक्ति ही हुये जिन्होंने ‘सत्य’ अपनी स्वयं की अनुभूति से जाना बाकी के मनुष्य ईश्वर के प्रश्न पर बस जड़ ‘मुसलमान’ होते हैं, चाहे वे हिंदू हों या मोहम्मडन या ईसाई या बौद्ध या जैन या सिख।