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भारतीय संस्कृति के शाश्वत सेतु

by Pranjay Kumar
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मुझे विश्वास है कि पूज्य शंकराचार्य जी में आपकी मुझसे भी गहरी श्रद्धा होगी, आप सनातन संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन में उनके योगदान को मुझसे भी अधिक अनुभव करते होंगें।

मैं नाम या प्रसिद्धि के लिए लेखन की ओर नहीं प्रवृत्त हुआ। मेरा लेखन ध्येयनिष्ठ है। मैं चाहता हूँ कि विदा की अंतिम बेला में मुझे इस बात को संतोष हो कि सनातन संस्कृति के अथाह-अपार सागर में बूँद बन विलीन होकर विस्तार पाने का सौभाग्य मुझे भी मिला। इसलिए अपना गिलहरी-योगदान देता चल रहा हूँ।

आप तो प्रभावी हैं, आपकी सोशल मीडिया पर बड़ी रीच है। आपके मित्रों-प्रशंसकों-परिजनों की बड़ी लंबी-चौड़ी सूची है। आप मानते भी हैं कि पूज्य आदिगुरु शंकराचार्य जी का सनातन संस्कृति पर बड़ा उपकार है। निवेदन है कि मेरे लिए नहीं, सनातन संस्कृति के लिए इसे  साझा_करें।

आपको कदाचित ज्ञात नहीं, हमारी पूरी शिक्षा में पूज्य शंकराचार्य जैसे अलौकिक-तपस्वी, महानतम विभूति पर कुल चार पृष्ठ नहीं हैं। जिस तपस्वी की स्मृति में पाठ्य-पुस्तकों में अध्याय होने चाहिए थे, अध्याय क्या अनुपूरक पुस्तकें (सप्लीमेंट्री बुक) होनी चाहिए थी, उन पर चार पन्ने भी नहीं होने का अर्थ समझते हैं आप?

इसका सीधा-सरल अर्थ यह है कि स्वतंत्र भारत का तंत्र, स्वतंत्र भारत की व्यवस्था हमको-आपको दो कौड़ी का नहीं समझती। हमारे महापुरुषों को विस्मृति के गर्त्त में डाले रहती है।

आप जगेंगें नहीं तो वे क्यों सचेत होंगें! आपका ईको सिस्टम मज़बूत नहीं होगा तो कोई क्यों आपकी सुनेगा?  उठिए,  जागिए और  शक्तिशाली बनिए। शक्तिशाली संगठित हुए बिना नहीं बन सकेंगें। और संगठन का हाल देखिए कि गिनती के 15 लोगों ने भी सनातन के सबसे बड़े उद्धारक को समर्पित पोस्ट को साझा नहीं किया है। कृपा करके इसे अधिकतम तक पहुँचाने में अपना-अपना योगदान दें।

यह सुखद संयोग था कि माननीय प्रधानमंत्री ने भी अपने संबोधन में इस लेख में वर्णित बिंदुओं से मिलता-जुलता प्रबोधन ही देशवासियों को दिया। इसे चिंतन-मनन की एकरूपता कहें या एक ही विचार-परिवार से बाल्य-काल से जुड़े होने का परिणाम कि अनेक बार ऐसा हुआ है कि माननीय प्रधानमंत्री किसी सांस्कृतिक मुद्दे पर जैसा दृष्टिकोण रखते हैं, मुझ जैसे असंख्य भारतीयों का भी मत-दृष्टिकोण वैसा ही होता है। बल्कि कई बार तो पंक्तिशः हमारी बात एक जैसी होती है। मैं इस विषय पर विगत कई वर्षों से किशोरों-तरुणों-युवाओं के बीच व्याख्यान देता आया हूँ, परिचर्चाएँ आयोजित करता आया हूँ।

मेरा निवेदन स्वीकारें। मुझे कुछ होना या पाना नहीं है। जीवन के जो थोड़े वर्ष बीते हैं, उन्हें सनातन संस्कृति की साधना में लगाना चाहता हूँ। आप भी सनातन-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ-न-कुछ भाव रखते होंगें। अतः निवेदन है कि लेख को लाइक्स-कमेंट करके छोड़ न दें, बल्कि इसे साझा कर दिया करें। क्या पता आपका यह सहयोग किसी के भीतर इस दिशा में और जानने, और समझने का भाव विकसित कर दे! हम बीज छिड़कते चलें, शेष परमात्मा पर छोड़ दें।
आदि शंकराचार्य के प्रति आपकी भी बड़ी गहरी श्रद्धा होगी।

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