Home हमारे लेखकसुमंत विद्वन्स महिला और पुरुष दोनों……

महिला और पुरुष दोनों……

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हमारे खिलाड़ियों के मैडल नहीं आने पर हम रोने लगते हैं, जैसे कि सबकुछ नीचे जा रहा है. निराशा और हताशा की मार्केटिंग करने वाला पूरा गैंग इसे अच्छी मार्केटिंग ओपॉर्चुनिटी के रूप में देखता है. सच तो यह है कि हमारा कोई खेल कल्चर ही नहीं है. हमने खेलों को अधिक से अधिक मनोरंजन का माध्यम समझा है, जीवन की शैली नहीं. खेल स्पर्धा की भावना देते हैं, जीत का जज्बा देते हैं,

सहअस्तित्व का मंत्र देते हैं. अगर कोई खेलों को सिर्फ स्वास्थ्य का माध्यम या मनोरंजन का साधन समझता है तो यह एक तरह की सांस्कृतिक निरक्षरता है. यह कहना खेलों की आत्मा को न समझना है. यह कुछ ऐसा ही निष्कर्ष है जैसे शिक्षा को सिर्फ रोजगार का माध्यम समझना या परिवार को बच्चे पालने का टूल समझना.ऑस्ट्रेलिया जैसे देश में खेलों की परंपरा इतनी मजबूत है कि व्यक्ति के जीवन में एक खेल का न होना, अशिक्षित होने के समकक्ष है. उसके मुकाबले हमारी खेल-संस्कृति के (अभाव के) बारे में जो भी कहा जाए वह कम है.

फिर भी हम आज पहले के मुकाबले आगे आये हैं, ऊपर जा रहे हैं. हम एक सिविलिजेशनल हीनता की ग्रंथि से निकलने का प्रयास कर रहे हैं. हमारे बच्चे और बच्चियाँ पिछली पीढ़ी के मुकाबले बेहतर कर रही हैं. हम पहले पदक तालिका में भारत को खोजते ही नहीं थे. हमारी पीढ़ी श्रीराम सिंह के ओलिंपिक 800 मीटर में 7वें स्थान को और पी टी उषा के चौथे स्थान को सेलिब्रेट करते हुए बड़ी हुई है. 76, 84, 88, 92 ओलंपिक्स में हम शून्य पर थे. फिर एक एक ब्रॉन्ज से संतोष करते रहे. 2008 में पहली बार हमने एक से अधिक पदक जीते थे.

आज हमारी महिला और पुरुष, दोनों हॉकी टीमें ब्रॉन्ज के मुकाबले खेल रही हैं. हमने तीन पदक जीते हैं, रवि फाइनल में है, अन्य कई खिलाड़ी अभी भी पदक की दौड़ में हैं. यह मेरे बचपन की यादों के सामने सुखद स्वप्न सा है.

ना, 1.3 बिलियन के देश के लिए यह काफी नहीं है. मानता हूँ. पर जिस देश की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा एक आईआईटी की सीट और एक मल्टीनेशनल की नौकरी से ऊपर नहीं जाती, उस देश में आज भी लाखों बच्चे खेलों को अपना जीवन बनाये हुए हैं तभी तो ये मैडल आ रहे हैं. देश की जनसंख्या की बात मत कीजिये, उसमें खेलों को अपने जीवन में स्थान देने वालों की संख्या गिनिए तो हम यूरोप के किसी छोटे देश की तुलना में भी नहीं आएँगे.

नहीं, समस्या और कहीं नहीं है, समस्या हमारी सोच में सबसे पहले है. हम बेहतर कर सकते हैं नहीं, हम ऑलरेडी पहले से बेहतर कर रहे हैं. मुझे विश्वास है कि आने वाली पीढ़ी हमारी और हमसे पहले की पीढ़ी की सभ्यतागत हीन भावना की विरासत से बाहर आकर दुनिया से बराबरी के स्तर पर कंपीट करेगी. 2024 में भारत का ओलिम्पिक हॉकी स्वर्ण, और मोदीजी की तीसरे टर्म की सरकार एक साथ आएँगे.

राजीव मिश्रा

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