Home विषयइतिहास परम्परा का उद्भव और विषैलावामपंथ

परम्परा का उद्भव और विषैलावामपंथ

by राजीव मिश्रा
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किसी भी निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण भाग यह है कि उसे कौन ले रहा है.और उससे भी महत्वपूर्ण भाग है कि उस निर्णय की प्रक्रिया क्या है?
यह संभव है कि एक निर्णय प्रारंभ में सत्य के ज्यादा करीब हो. लेकिन यदि उस निर्णय प्रक्रिया में एक फीडबैक मेकैनिज्म नहीं जुड़ा हो तो कालांतर में वह अधिक से अधिक दोषपूर्ण होता जाएगा. जबकि एक दूसरी निर्णय प्रक्रिया यदि प्रारंभ में अधिक इन-एक्यूरेट परिणाम दे, लेकिन अपने अनुभवों से फीडबैक लेकर सुधार करने की मेकैनिज्म से जुड़ी हो तो समय के साथ वह पहले से बेहतर, और बेहतर सुधार करने में सक्षम होगी.
सामाजिक निर्णयों के परिणामों की उम्र किसी भी एक व्यक्ति की उम्र से अधिक होती है. इसलिए यह फीडबैक कोई एक व्यक्ति नहीं ले सकता, पर समाज सामूहिक रूप से कई पीढ़ियों में यह फीडबैक लेता है. यदि यह फीडबैक इस निर्णय प्रक्रिया का भाग बनता है तो हम अपने सामाजिक निर्णयों में लगातार सुधार करते हैं और प्रासंगिक बने रहते हैं.
जब समाज अपने कलेक्टिव अनुभवों के अनुसार अपने सामाजिक नियम बनाता है तो वे नियम परम्परा कहलाते हैं. परम्परा कोई एक फिक्स्ड जड़ विचार नहीं है. वह लगातार सामाजिक साझा अनुभवों के फीडबैक से सीखते हुए सतत परिवर्तित होते रहने वाला एक डायनामिक प्रोसेस है. कोई भी एक व्यक्ति ना तो उसे बनाता है,ना ही कोई एक व्यक्ति उसे सदा के लिए परिभाषित कर सकता है. हालांकि विशेषज्ञों की उपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर वे विशेषज्ञ भी इस कुल सामाजिक अनुभव का भाग हैं, उसका सबसेट हैं. कोई एक विशेषज्ञ, कितना भी विद्वान और प्रशिक्षित क्यों ना हो, वह समाज के कुल साझा अनुभव पर वीटो नहीं दे सकता. क्योंकि किसी भी सेट का कोई भी सबसेट उसका सुपरसेट नहीं बन सकता. ना तो कोई एक व्यक्ति परम्परा बना सकता है, ना ही कोई अकेला इसे बदल सकता है.
पर यह नहीं है कि दुनिया में कभी भी ऐसा समय रहा हो जब यह प्रवृत्ति नहीं रही हो. कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि उनका अनुभव, उनका ज्ञान शेष समाज से श्रेष्ठ है और समाज के हित में है कि वे उनका अनुसरण करें. वामपन्थ बस इसी प्रवृति का सैद्धान्तिकरण है.
वामपन्थ को परम्परा से हमेशा समस्या होती है. पर उनकी मूल समस्या परम्परा नहीं होती, परम्परा के निर्माण की यह डायनामिक प्रक्रिया होती है जो उन्हें उनके वीटो पॉवर से वंचित कर देती है. उन्हें समस्या परम्परा की परिवर्तनशीलता से है. उन्हें समस्या यह है कि उनकी कही हुई बात, उनका मंतव्य ही परम्परा क्यों नहीं है. वे अपने मनोनुकूल सिद्धांत को परम्परा के स्थान पर स्थापित करना चाहते हैं, और फिर उसे ही परम्परा घोषित करके उसे चिरकाल के लिए स्थायी बनाना चाहते हैं. इसीलिए वामपन्थी अपने रिचुअल्स बनाते हैं और फिर बड़ी तन्मयता से उनकी रक्षा करते हैं. वे उसे वही सामाजिक प्रतिष्ठा तो दिलाना चाहते हैं जो परम्परा को प्राप्त है, पर उस प्रक्रिया को फॉलो नहीं करना चाहते जिनसे परम्पराएं बनती हैं.
परम्पराएं पुरातन होती हैं, पर वे सतत नूतन भी होती हैं. इसीलिए वे सनातन हैं. अगर कोई व्यक्ति किसी एक पीठ पर बैठ कर उस पीठ के अधिकार से पूरे समाज को एक अपरिवर्तनीय सर्वकालिक बन्धन में बाँध कर उसे परम्परा घोषित करता है तो वह परम्परावादी नहीं है, वह जड़वादी है. उसे परम्परा की मूल भावना का कोई बोध नहीं है. वह समाज के कलेक्टिव फीडबैक की मेकैनिज्म को बाईपास करके उसपर अपना वीटो लगाने के दुराग्रह से ग्रस्त वामपन्थी ही है.

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