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टेलीविज़न आज भी खरीदे जा रहें हैं लेकिन वो दौर दूसरा था जब बहुत से घरों में टेलीविजन का आगमन ‘धार्मिक धारावाहिक’ की धारा में डूबने, तैरने एवं गोते लगाने की उत्सुकता एवं ललक में हुआ।
टेलिविज़न से पूर्व रामायण कथा को लोग-बाग अपने बड़े बुजुर्गो के सानिध्य में सुनते, अपने मस्तिष्क में कल्पना कर पात्रों को अपने तरीके से अभिनय कराते या वार्षिक रामलीला कार्यक्रम में रामायण के मुख्य घटनाओं को नाटक के रूप में देखकर जयकारा लगाते थे।
यह भी एक कड़वा सच है कि जब लोगों के लिए सौ-दो सौ रुपए जुटाने मुश्किल हुआ करते थे उस वक्त तमाम भारतीय घरों में दो हज़ार से दस हज़ार तक जोड़कर टेलीविजन नामक मशीन खरीदी गयी।
मेरे घर भी उसी दौर में बेलटेक नामक कम्पनी की पोर्टेबल टीवी आयी थी (टीवी के आगमन एवं उत्साह की चर्चा फिर कभी)
पापा के लिए धार्मिक नाटक, समाचार, कृषि दर्शन एवं किसी वैज्ञानिक परिचर्चा के अलावा दिखाये जाने वाले अन्य कार्यक्रम (यथा- फिल्म,फिल्मी गाने आदि) फालतू, संस्कार विहीन अश्लीलता को बढ़ावा देने वाले तत्व थे।
गाने का तो सवाल ही नहीं लेकिन फिल्म देखने की कुछ गुंजाइश अवश्य बन जाती थी वो भी इस शर्त पर कि फिल्म देखने के लिए इजाजत से पूर्व पिछले तीन दिन से जी-तोड़ पढ़ाई का उपक्रम करना वो भी अधिकतम पिताजी के समक्ष.. पढ़ाई में भी ऐसे विषयों को चुनकर पढ़ना जिसमें ज्ञान को स्पष्ट तौर पर ग्राह होते दिखाई दे जैसे- बोल.…बोलकर अंग्रेजी के माने, कठिन कविता, गणित के सवाल लगाते वक्त हाथ तेजी के साथ सवालों की रस्सी चटकाते हुए नीचे की तरफ़ भागते दिखे।
दूसरी कठिन शर्त यह कि फिल्म के शीर्षक में विपरीत लिंगी प्यार मुहब्बत जैसी किसी शब्द या भावना का कोई जिक्र ही न हो..
नाम भी हो तो ऐसा…जैसे- हाथी मेरा साथी,घर एक मंदिर, जय संतोषी माता,तेरी मेहरबानियां, सिंदूर आदि…
पूर्व की तैयारियां (पढ़ाई-अनुशासन) एवं फ़िल्म शीर्षक का पिताजी के रुचि के अनुरूप होने के उपरांत पिताजी से परमिट लेना नितांत आवश्यक था।
मैं घर में छोटा था इसलिए परमिट के लिए मुझे ही जाना पड़ता था वो भी तब, जब पिताजी कचहरी से आने के बाद चाय-पानी (हांलांकि वो पानी पीने के बाद चाय पीते थे) पीकर प्रसन्न मुद्रा में हो। दर्जनों बार यूं भी हुआ कि समस्त तैयारियों एवं नियम शर्तों में दुरुस्त होने के बावजूद भी पिताजी के मूड को भांपकर अपनी अर्जी को बिन लिफाफे से निकाले ही बैरंग वापस लौटा आता था।
इतनी तैयारियों एवं शर्तों के प्रोटोकॉल के बाद पापा तैयार हो जाते थे लेकिन जो सबसे ख़तरनाक बात थी वो यह कि पापा कहते थे कि “चलो हम भी देखेंगे तुम लोगों के साथ”
अब फिल्म का शीर्षक कुछ भी हो लेकिन भारतीय फिल्म में नायक- नायिका के बीच प्रेम मुहब्बत, नजदीकियां, भाव आदि न हो.. यह कैसे संभव है भला!! और फिल्म में कुछ न हो तो विज्ञापन जगत कहां मानने वाला..वो तो हर दस मिनट पर हाजिर- “चुप चुप बैठी हो जरूर कोई बात है” या फिर लिरिल साबुन की नायिका का नदी में स्नान का दृश्य, डिलक्स कनटोप!!
अब इतना प्रर्याप्त होता था टेलीविजन के नाक से ऑक्सीजन निकालने एवं अचानक एक गर्जना तथा लम्बे संस्कारित भाषण हेतु।
अमूमन ऐसा होता था कि फिल्म शुरू होने के बीस से पच्चीस मिनट गुजरते ही पापा की बुलंद आवाज़-“बंद करो टीवी, देश के नचनिया.. ब्ला ब्ला ब्ला”।
ओफ्फ! सारा उमंग,उत्साह, तैयारी धरी की धरी रह जाती थी और फिर घंटों किताब खोलकर बैठना पड़ता था और हां!! वो बात और है कि टेलीविजन बंद होने के बाद भी गोविंदा और जूही चावला टेलीविजन से उतरकर हमारी किताबों में करतब दिखाते थे।

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