मोबाइल, इन्टरनेट के युग में मनोरंजन के तमाम प्लेटफार्म उपलब्ध है। इसलिए आज के युवा दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले फिल्मी संगीत कार्यक्रम ‘चित्रहार’ तथा ‘रंगोली’ की कीमत क्या समझेंगे भला!! रविवार की सुबह रंगोली तथा बुधवार-शुक्रवार की रात में चित्रहार देखने की बेचैनी तथा कौतूहल को समझने के लिए हमें तीन दशक पीछे लौटना पड़ेगा। टेलिविज़न, बिजली की मौजूदगी की कीमत को समझना पड़ेगा।
यहां सबको मालूम है कि भारतीय फिल्मीं गीतों में नायक-नायिका के बीच मधुर प्रेम संवाद, चांद-तारे तोड़ने का प्रलोभन, नायिका के जुल्फ,रूप,लावण्य,चाल,गति लचक, मचल, छलक की अतिरेक प्रशंसा के बीच उनके आपसी निकटता, मसखरी उतावलेपन को नृत्य में नत्थी करके पर्दे पर प्रस्तुत किया जाता है।
यदि औप गौर करेंगे तो महसूस करेंगे कि मनोरंजन की दुनिया में सबसे बड़ा झूठ हमारे फिल्मी गानों में बोला जाता है।(राजनीति में तो खैर कोई सीमा ही नहीं)
नायक, नायिका से कुछ हासिल करने के लिए हर सम्भव-असम्भव चीजों को दिनदहाड़े देने का वादा करता है। चीख-चीख कर कहता पाया जाता है…
जैसे- “तूं जो कह दे तो चांद तारे को तोड़ लाऊंगा मैं।”
हांलांकि नायिका, नायक से सिर्फ़ इतना कह दे कि आप मुझे अपनी छाती से एक बाल तोड़ने को दें दे तो मैं मान लूंगी कि आप मेरे लिए कुछ भी तोड़-उखाड़ लेंगे। यकीन मानिए इतने में ही नायक की सारी हेकड़ी निकल जाती।
खैर! किशोरावस्था में सिर्फ़ रंग दिखता है और चीजें तो तब समझ आती हैं जब हमारे बाल के रंग बदलने लगते हैं।
मैंने पहले भी बताया कि पिताजी से फिल्मी गाने देखने की इजाजत मांगना ऐसे ही था जैसे लॉकअप में बंद मुजरिम द्वारा कुर्सी पर बैठे थानेदार से गांजा पीने के लिए चीलम मांग लेना। मतलब चीलम तो मिलने से रही.. लेकिन दिन बन जाना है इसमें कोई दो राय नहीं।
ऐसे में, मैं और मुझसे दो साल बड़े (मझले) भाई, आपस में मिलकर जेल में ही सुरंग बनाने लगे। मतलब एक भाई पापा के मूवमेंट पर नजर रखता तो दूसरे ‘आपरेशन चित्रहार’ पर।
अमूमन पिताजी बाहरी बरामदे की तख्त पर घंटों बैठकर कुछ कागज़ी कार्य करते और इसी बीच हम दो भाई सुरंग खोदने में लगे जाते। हां तो जब मैं, पर्दे से छिपकर पापा के मूवमेंट पर नजर रखता उस वक्त मेरे भाई टेलीविज़न के स्पीकर पर कान सटाकर बेहद मंद, उतना, जितना टीवी का नॉब घुमाते (ऑन) वक्त आवाज़..खैरात में मिल जाती थी। यदि नॉब हाथ से थोड़ा फिसल कर दाहिने खिसक गया तो अविलंब उसे बायें व्यवस्थित कर दिया जाता था (आज के परिप्रेक्ष्य में आप यूं समझें जैसे आज हम कोई गोपनीय बात या रिकार्डिंग के वाल्यूम को तलछट पर लाकर कान से सटाकर सुनते हैं)
ऐसे में कान तो अपने ड्यूटी पर तैनात हो जाते थे… मामला फंसता था आंखों का। अब ऐसे जोखिम आपरेशन को अंजाम देने में सब चीजें मन माफिक तो हो नहीं सकतीं इसलिए नजरों को स्क्रीन पर ऐसे सटाकर देखना पड़ता था जैसे कोई आदमी बाथरूम के बंद दरवाजे के बाहरी फर्श पर गाल सटाकर बाथरूम के भीतर के दृश्य देखने के लिए सांसों को टांगकर टिका रहे।
किसके हिस्से में कौन सा गाना आयेगा यह तो भाग्य पर था। यदि गाने के बोल याद हैं तो रखवाली करने वाला व्यक्ति, चित्र के भाव-भंगिमा को देखकर अपने भीतर के टेपरिकॉर्डर को ऑन करके आंशिक आनन्द प्राप्त कर सकता था। लेकिन इसमें सबसे कठिन होता था दो भाईयों के बीच चित्रहार के पांच गानों को आपस में बराबर-बराबर बांटकर देखना। तिसपर सबसे चुनौतीपूर्ण था पहले (जो लास्ट में आता था) गाने का बंटवारा क्योंकि पहला गाना सबसे नवीन और लोकप्रिय होता था। ऐसे में एक पैरा वो सुनते तो दूसरा मैं। तीन या पांच पैरे में बड़ी रस्साकस्सी होती। कभी ऐसा भी हुआ कि दोनों भाई अन्तिम गाने पर अड़ गये तथा अपने रिस्क पर अन्तिम पांच मिनट बिना रखवाली जान पर खेलकर देख लिया अन्तिम गाना-
“फासले और कम हो रहें हैं।
दूर से पास हम हो रहें हैं।
तूं किसी और की हो न जाना
कुछ भी कर जायेगा
ये दिवाना
तूं हां कर या ना कर
तूं है मेरी किरन
तूं है मेरी किरन।”
हांलांकि एक सिपाही लगाने तथा लाख चौकन्ना रहने के बाद नायक की धड़कनों से तेज हमारी धड़कने चलतीं थी। भले नायक अपनी नायिका को अपने गले में सटाकर अपनी धड़कनों को सुनने की गुहार ही क्यों न लगा रहा हो। लेकिन वास्तविक स्थिति में हमारी धड़कने और पैर दोनों कंपन की स्थति में रहते थे।
“आपरेशन चित्रहार” के पांचों चरणों को सकुशल निपटाने के बाद भी दस पन्द्रह मिनट खुद को सहज करने में लगता था। ऐसे जैसे उड़ाका दल के सामने से चिट लेकर पार हो जाने वाला परीक्षार्थी महसूस करता हो।
सच! दुर्लभ था.. जोखिम भरा था लेकिन उसका महत्व था..उसमें रस था… इक उतावलापन था।

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