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राजनीती और पत्रकारिता

by Nitin Tripathi
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रवीश कुमार दानिश सिद्दीक़ी की क्रूर हत्या पर तालीबान के ख़िलाफ़ एक शब्द ना लिख पाए उलटे उस गोली को ज़िम्मेदार बताया जिसने दानिश की जान ली.
गलती रवीश की नहीं है. यक़ीन मानिए आज से दस वर्ष पूर्व के भारत में सौ प्रतिशत रिपोर्टर ऐसा ही लिखते/ बोलते. भारतीय सेक्युलरिज़म का क्रैश कोर्स इसी शिक्षा पर आधारित था, कि पूरी दुनिया में कहीं भी अगर आतंकवादी वर्ग विशेष के हैं तो उसे ग्लोरिफ़ाई करो. ज़माने थे भारत में सद्दाम हुसैन और ओसामा को हीरो माना जाता था – हिंदुवों में भी. 1991 में मुझे अच्छे से याद है हज़रतगंज में सद्दाम हुसैन के पोस्टर बिकते थे – सलमान खान से भी ज़्यादा लोग सद्दाम हुसैन के पोस्टर ख़रीदते थे.
सिखाया गया था कि ऐसी कोई भी घटना हो तो कारण ढूँढो आतंकवादी आतंकवादी क्यों बना. फिर उस घटना को लेकर मातम मनाओ. बचपन में स्कूल में मार पड़ी इस लिए वह अध्यापक दोषी. मित्र आतंकवादी था उसकी राइफ़ल छिपा ली थी तो पुलिस ने मारा, पुलिस दोषी. पिता ग़रीब थे तो समाज दोषी इस आतंकवादी बनाने में.
सर्व धर्म सद्भाव के नाम पर सिखाया गया था कि उधर के चार आतंकी पकड़े जाएँ तो अपने भी चार लोगों को आतंकी बोलना आरम्भ कर दो. सिखाया गया था कि इधर की छोटी सी घटना पर पूरे धर्म पर कीचड़ उछालो और उधर से यदि बम भी फोड़ दिया जाए तो भी लिखो कि भटके हुवे युवकों की नासमझी से बम फूट गया, इसके लिए वह समाज दोषी है जिसने बचपन में शिक्षा नहीं दी कि बम कैसे हैंडल किया जाए.
यक़ीन करिए अगर मोदी सरकार नहीं आई होती तो भारत में भी एक छोटा तालीबान जैसा संगठन अवश्य आरम्भ हो गया होता और ढेरों पत्रकार, ढेरों जनता उस संगठन की वकालत कर रही होती.
वैसे अभी भी स्थिति कुछ विशेष सुधरी नहीं है. बस इंतज़ार है एक बार ये सरकार जाए तो सारी कसर निकाल ली जाए.

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