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बॉलीवुड फ़िल्म – जय भीम

by Nitin Tripathi
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अक्सर हॉलीवुड की फ़िल्मों को देखते हुवे हमें दिमाग़ में ख़्याल आता है कि ऐसी फ़िल्म बॉलीवुड में नहीं बन सकती – जय भीम ऐसी एक तमिल फ़िल्म है जिसे देख आप बोलेंगे ऐसी फ़िल्म बॉलीवुड में कभी नहीं बन सकती.
भारत में पुलिस ऑटो क्रेसीज बहुत कॉमन हैं – दुर्भाग्य यह कि हिंदी में या तो पुलिस को मोटा घूसखोर हवलदार दिखाते हैं या फिर सिंघम/ पांडे जी दिखा कर उनकी ऑटो क्रेसीज को जायज़ दिखाया जाता है. एक बड़ी जनसंख्या जिसने कभी ख़ुद पुलिस की वजह से किसी अपने को नहीं खोया वह पुलिस की नाकामियों को सिंघम आदि का नाम देकर उत्साह वर्धन भी करती है – बाली वुड ने सिखाया है.
फ़िल्म कहानी है तमिलनाडु की. एक सँपेरा जनजाति के कुछ युवकों को पुलिस ने फ़र्ज़ी चोरी में फँसा दिया. फिर फ़र्ज़ी एंकाउंटर आदि होते हुवे कहानी आगे बढ़ती है. पर यह कहानी है एक वकील की जो उन्हें न्याय दिलाता है.
इस फ़िल्म को बग़ैर किसी प्री जूडिस देखें. आप यह ना देखें कि यह कहानी किसी ट्राइब की है या यह फ़िल्म जातीय भेद भाव की है. ऐसा पीड़ित एक ब्राह्मण या एक राजपूत भी हो सकता है, फ़िल्म में मदद करने वाले कॉम्युनिस्ट नेताओं की जगह RSS वाले भी हो सकते हैं, और उस केस में फ़िल्म का सब्जेक्ट जय भीम नहीं जय गांधी भी हो सकता है क्योंकि तब इकलौती मदद गांधी बाबा के नोट ही कर सकते हैं.
फ़िल्म की किसी भी क्षेत्र में आलोचना नहीं की जा सकती. यदि यह एक हॉलीवुड फ़िल्म होती तो चार से पाँच ओस्कर जीतती. इस फ़िल्म में न वकील बड़े बड़े संवाद बोलते हैं, ना ही हीरो और टीचर के बीच रोमांस है. न ही आरोप लगाने वाली महिला के साथ रेप है न हीरो की बहन के साथ छेड़ छाड. फ़िल्म के चरित्र अपने गाँव देहात के हैं. जज/ पुलिस / वकील सब चरित्र असल जीवन के हैं.
यदि आपका भारत पर यक़ीन है, यदि आप सभ्य नागरिक हैं, यदि आप मनुष्य हैं तो यह फ़िल्म जय भीम अवश्य देखिए. फ़िल्म का रिव्यू लिखना फ़िल्म के साथ अन्याय है. फ़िल्म लम्बे समय तक दिल दिमाग़ पर छाई रहेगी

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