जब कोई अपना, बहुत अपना, समाचार-पत्र में आपका लेख देखकर आपको कॉल या मैसेज करे तो यह लेखन का पारितोषिक मिलने जैसा सुखद होता है, यह दिन बनने जैसा होता है, यह चिहुँक पड़ने जैसा होता है, यह बल्लियों उछल पड़ने जैसा होता है। यह लेख भेजने के लिए, हार्दिक आभार, Mohit Upadhyay और Kanhaiya Jadaun । आप दोनों मुझे आज भी उतने ही प्यारे हैं, लेख में व्यक्त मेरे विचारों से आप सहमत हों या न हो, पर मुझे इस बात की सदैव प्रसन्नता रहती है कि आप दोनों राष्ट्र-यज्ञ में अपने स्तर पर अपने तरह से योगदान दे रहे हैं। आप जैसे विद्यार्थियों पर किसी शिक्षक को सदैव गर्व होता है।
यह लेख मैंने दैनिक_जागरण को #कृषि_कानून वापस लिए जाने के फ़ैसले के तुरंत बाद भेज दिया था। प्रायः मुझे जागरण विषय की पूर्व सूचना देता है या मैं उनसे पूछकर विषय तय करता हूँ। पर इस लेख का छपना अप्रत्याशित है।
यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि जब मैं यह लेख लिख रहा था, उस समय तक न तो विशेषज्ञों की कोई प्रतिक्रिया प्राप्त हुई थी, न किसान नेताओं और संगठनों का रुख़ पता चल सका था। आज जब मैं इसे पुनः पढ़ रहा था तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि किसान-संगठनों और नेताओं को मेरी नसीहत कितनी आवश्यक थी!
उनका अड़ियल रवैया उनकी साख, उनकी विश्वसनीयता, उनके एजेंडे का स्पष्ट संकेत दे रहा है! कितना अच्छा होता कि ये तथाकथित किसान नेता सीधे चुनावी राजनीति के मैदान में उतरते और दो-दो हाथ करते! पर देश-विरोधी ताक़तों की फंडिंग और विपक्षी नेताओं का बैक-सपोर्ट कदाचित उन्हें यह भी न करने दें। कितना अच्छा होता कि ये किसान जैसे पवित्र शब्द को और बदनाम नहीं करते!
