कथा-लखनऊ की जब बात चली तो अपने घर गोरखपुर की भी याद आई। साथ ही कथा-गोरखपुर की भी योजना जब प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो को बताई तो वह सहर्ष तैयार हो गए। बिना किसी ना-नुकुर के। तो कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर पर काम एक साथ शुरु किया। रोमांच दोनों जगह था। आत्मीयता भी और रोमांस भी दोनों ही जगह था। कोरोना का क़हर था पर इधर कथा-गोरखपुर और कथा-लखनऊ का जूनून था। अनुभव दोनों शहर का अलग-अलग था लेकिन। बकौल देवेंद्र आर्य ‘ कितना कष्टसाध्य होता है / दिल्ली में गोरखपुर होना !’ की तरह ही। तो लखनऊ के साथ गोरखपुर के कथाकारों और उन की कहानियों का संधान आसान नहीं था। बहरहाल कथा-गोरखपुर की भूमिका हाजिर है।