फ्रांसीसी युवा वैज्ञानिक की दृष्टि, प्रतिबद्धता, सक्रियता, दर्द और भारतीय समाज
फ्रांस का एक युवा, स्नातक का छात्र, बचत करके भारत आकर अत्यधिक पिछड़े बंजर क्षेत्र में पहुंचता है। वहां वह किसी को नहीं जानता, खानपान व भाषा से परिचित नहीं, उसका शरीर वहां के मौसम व वातावरण को झेलने का आदी नहीं। फ्रांसीसी युवा का भारत से कोई संबंध नहीं फिर भी युवा खोज कर भारत के पिछड़े क्षेत्रों में पहुंचता है और वहां के लोगों का जीवन स्तर बेहतर करने के लिए अपने जीवन के सुखों व सुविधाओं को छोड़कर घोर संघर्ष करता है जबकि जिस देश के लोगो के लिए संघर्ष करता है वही देश उसके धरातलीय कामों को उपेक्षित करता है।
कुछ वर्ष पूर्व जब मैं भारत के विभिन्न राज्यों में पानी व खेती के जमीनी कामों के ऊपर ग्राउंड रिपोर्ट इंडिया पत्रिका के लिए विशेषांक निकालने के लिए बीस हजार किलोमीटर से अधिक की यात्रा कर रहा था, मुझे मेरे मित्र सामाजिक कार्यकर्ता अभिमन्यु सिंह से मालूम हुआ कि बुंदेलखंड में एक फ्रांसीसी युवा अकेले ही गावों में लोगों को पानी, जंगल व खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। मैं उस युवक से मिलने के लिए दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़ से लगातार बिना सोए हुए ऊबड़ खाबड़ व पहाड़ी रास्तों में एक हजार किलोमीटर गाड़ी चलाते हुए बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश पहुंचा। ऊबड़ खाबड़ रास्तों में यह मेरे जीवन में पहली बार एकमुश्त सबसे लंबा कार चलाना था।
रात्रि भोजन के समय अलेक्सिस से मुलाकात हुई, लंबी चर्चा हुई। मुझे अलेक्सिस से मिलकर अच्छा लगा। पच्चीस-तीस साल का फ्रांसीसी युवा जिसका व जिसके पूर्वजों का भारत से कोई रिश्ता नहीं था। वह अपने जीवन के लिए सरलता से उपलब्ध उन सुख-सुविधाओं जिनके लिए भारत का युवा कुछ भी करने को तैयार रहता है वह अपने इस तैयार रहने को जीवन की समझ व व्यवहारिकता कहता है, को छोड़कर भारत के ऐसे क्षेत्र में गावों में काम कर रहा था जहां बिजली व पेयजल नहीं, उपजाऊ जमीन नहीं, खाने को फल व सब्जियां उपलब्ध नहीं, गांवों में पहुंचने को संपर्क मार्ग नहीं।
ऐसी हालातों में तपती दोपहर में रूखी व सूखी जमीन में गरीब खेतिहर मजदूर की तरह घंटों काम करने से शुरुआत की अलेक्सिस ने। काम करने के लिए किसी सरकार से कोई ग्रांट व सहयोग नहीं, किसी फंडिंग एजेंसी से कोई फंड नहीं। फ्रांस में छात्र पढाई करते हुए छोटे-मोटे काम करके पैसे कमाते हैं। अलेक्सिस ने भी पढाई करते हुए काम करके पैसे कमाए थे। फ्रांस जैसे अमीर व विकसित देश का अलेक्सिस चाहता तो अपनी मेहनत से कमाए पैसों को बाजार में उपलब्ध विभिन्न वस्तुओं को खरीदने में खर्च करता, अपने शौक पूरा करता, अपनी सुविधाएं बढ़ाता। अलेक्सिस ने जीवन में सुख-सुविधाएं छोड़कर स्वेच्छा से असुविधाओं व कष्टों को अंगीकार किया क्योंकि उसको अपने जीवन में बाजार की बजाय सार्थकता खोजनी थी। अलेक्सिस को अपनी जीवनी ऊर्जा व आर्थिक संसाधनों को सुविधा संग्रह करने वाले उपभोक्ता बनने में अपव्यय करने की बजाय दुनिया के जरूरतमंद मनुष्यों के विकास के लिए सदुपयोग करने में जीवन का उद्देश्य देखना था।
जिस भारत देश के लोगों के लिए अलेक्सिस हजारों किलोमीटर की यात्रा करके, खोज कर अति पिछड़े क्षेत्र में असुविधा झेलते हुए काम करने पहुंचता है, उस भारत का युवा बाजार का उपभोक्ता बनने को विकास, प्रगति व सामाजिक परिवर्तन मानता है, जो लोग बाजार के उपभोक्ता नहीं है उनको उपेक्षित करता है, तिरस्कृत करता है। भारत में माता पिता बच्चे पैदा होते ही यही सपना पालते हैं कि कितनी जल्दी उनका बच्चा बाजार का बड़ा उपभोक्ता बन जाए, शैशवास्था से ही बाजार का उपभोक्ता बनने की ट्रेनिंग देते हैं। बच्चा किशोर होने पर भारत से जल्द से जल्द छुटकारा पाकर किसी विकसित देश में सुख-सुविधा भोगने के लिए भागना चाहता है या उन तिकड़मों को सीखना व करना चाहता है जिनसे वह शोषक बनकर, मानसिक वैचारिक व आर्थिक भ्रष्ट बनकर शोषण करते हुए अपने लिए बाजार से सुविधाएं खरीद सके। जीवन का उद्देश्य बाजार का उपभोक्ता बनना ही होता है। अपने देश व अपने समाज के लिए कोई वास्तविक सोच नहीं। देश व समाज को निर्मित करने की कोई सोच नहीं, पूर्वजों की आलोचना करना उनको गरियाना, यही क्रांतिकारिता है भारतीय युवा की, यही ट्रेंड है। जबकि भारत देश व भारतीय समाज की हालातें भारतीय युवाओं के अशर्त समर्पण व प्रतिबद्धता की पुरजोर मांग करती हैं।
भारत के युवाओं को जीवन की वास्तविकता की समझ के लिए अलेक्सिस जैसे युवाओं से सीखने की जरूरत है। यदि बेहतर कर व जी पानें की सोच, समझ व दृष्टि नहीं तो तर्को, वितर्कों व कुतर्कों से खुद को महान साबित करने के ढोंगों की बजाय अलेक्सिस जैसे युवाओं के कार्यों से सीखने व उनमें हाथ बटानें का ही काम किया का सकता है। भारतीय युवा को अपनी सोच व मानसिकता बदलने की महती जरूरत है।
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**अलेक्सिस रोमन की जुबानी**
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फ्रांसीसी युवक अलेक्सिस का अनुभव भारतीय समाज को शाब्दिक महानता से इतर समझने की दृष्टि देता है और भौतिक वास्तविकता से रूबरू कराता है। अलेक्सिस रोमन की जुबानी उनका अपना भीतरी संघर्ष जो उन्हें नए कार्यों की ऊर्जा भी देता है।
“””” नवंबर 2009 की बात है, मानसून गुजर चुका था, कुयें महीनों से प्रयोग नहीं किए गए थे। गांव वालों ने कहा कि यह लगातार सातवां साल है जबकि सूखा पड़ रहा है। जब मैं गांव से बाहर निकल रहा था तब एक महिला चिल्लाकर बोली – ‘हम मर रहे हैं, हमारी सहायता करो’। आठ महीने बाद मैं एक गांव की बंजर जमीन पर खड़ा था और पिछले महीनों के बारे में सोच रहा था। लोगों ने वर्षा जल संग्रहण करने और जंगल लगाने में रुचि दिखाई थी। किंतु बहुत कुछ ऐसा था जिसके कारण मैं खुद से सवाल कर रहा था कि –
मैं यहां क्या कर रहा हूं जबकि इस क्षेत्र में सौ किलोमीटर के दायरे में मैं अकेला विदेशी हूं, भीषण गर्मी, तपती लू में अकेला बीमार और खोया-खोया हुआ? मैं क्यों अपनी जीवनी ऊर्जा यहां लगा रहा हूं जबकि लोग धन्यवाद ज्ञापन तक नहीं करते हैं? मैं योजना बनाता हूं, प्रबंधन करता हूं, धन की व्यवस्था करता हूं, सोचता हूं, अपना समय व ऊर्जा लगाता हूं और गांव वाले बुलाई गई चर्चा में आते तक नहीं हैं।
मैं क्यों ऐसे क्षेत्र में आया हूं? जहां लोग आज भी आधुनिक काल के पहले वाले काल में रहते हैं जहां पानी नहीं है, बिजली नहीं है, स्वास्थ्य आदि की व्यवस्था नहीं है। कोई अंग्रेजी नहीं बोलता, लोग मेरी और मैं लोगों की भाषा नहीं समझता। यहाँ से प्रकृति जा चुकी है, पेड़ नहीं हैं, पानी नहीं है, जानवर नहीं हैं केवल गरीबी है। क्या इन लोगों को सच में ही मेरी व मेरे सहयोग की जरूरत है?
इन लोगों के साथ काम कर पाना बड़ा ही मुश्किल रहा है, ये लोग हर बात के लिए ‘हां’ बोलते हैं लेकिन जब करने का समय आता है तो कोई नहीं दिखता है। मुझे हर बार उन्हें धक्का देकर काम करवाना पड़ता है वह भी वह काम जो कि उनके अपने ही लिए है। क्या मैं उन लोगों पर अपने आइडियाज थोप रहा हूं? मैं यह सब उनके लिए कर रहा हूं या अपने इगो की संतुष्टि के लिए कर रहा हूं? क्या यह मार्ग सचमुच ही मेरे जीवन की सार्थकता है? मैं क्यों कर रहा हूं, मैं क्यों कर रहा हूं? मैं उत्तर नहीं खोज पा रहा था और ये प्रश्न मुझे व्यथित किए हुए थे। मैंने खुद के मन को ढीला छोड़ दिया और खुद को फिर से कामों में व्यस्त कर लिया। अगले दिन की रात आई, मैं सोने जा रहा था तभी एक विचार आया मेरे मन में जो अनजाने में ही मेरे प्रश्नों का उत्तर दे गया।
मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं, इसका उत्तर शब्दों के द्वारा या दर्शन के द्वारा नहीं दिया जा सकता है, प्रमाणित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि यह मेरा काम है बिना ‘क्यों’ या ‘कैसे’ सोचे करते रहने के लिए। मेरी जीवनी ऊर्जा की जिनको जरूरत है, उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए लगातार कार्य करते रहा जाए ऐसा स्वतः निर्देशित है और ऐसा करते जाना ही मेरे जीवन मार्ग की सार्थकता है।
मैं पेरिस, फ्रांस लौटा पर्यावरण-विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री को पूरा करने के लिये। डिग्री पूरा करने के बाद मैंने पेरिस छोड़ दिया और भारत आया और एक बार फिर से बुंदेलखंड, उसके गांवों और लोगों को जानने, समझने और लोगों के साथ खुद को और बेहतर समझ के साथ जोड़कर अपनी जीवनी ऊर्जा से काम करने के लिए। “”””
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**मेरे दो शब्द अलेक्सिस पर**
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मैं अपने जीवन में पिछले कई वर्षों में अलेक्सिस रोमन से कई बार मिला हूं और बुंदेलखंड के गावों में इनके प्रयासों के जीवंत प्रमाण देखता रहा हूँ। सैकड़ों परिवार स्वावलंबन की ओर बढ़े, हजारों पेड़ लगाए गये, छोटे छोटे जंगल बने और गावों में तालाब बने, छोटी-छोटी स्थानीय सरिताओं में भी पानी आना शुरु हुआ, लोगों ने खेती करना शुरु किया।
अलेक्सिस रोमन मुझसे अपने मन की बात खुल कर करते हैं, कभी-कभी बहुत दुखी होकर कहते हैं कि आपके देश के लोग कहते तो बड़ी-बड़ी बाते हैं, बहुत लोगों को दर्शन की बातें मुंह में रटी हुईं हैं, किंतु जीवन के वास्तविक धरातल में जीने की बात आते ही पीछे हट जाते हैं, शब्दों और शब्दों की प्रमाणित जीवंतता में बहुत ही बड़ा अंतर है। मैं अलेक्सिस से यही कहता हूं कि यदि ऐसा नहीं होता तो फिर हमें व आपको काम करने की जरूरत ही नहीं होती, लोग अपने विकास के लिए खुद ही कार्य कर रहे होते और इतना अधिक मानसिक, भावनात्मक व वैचारिक कुंठित नहीं होते।
अलेक्सिस कहते हैं कि सहयोग का मतलब होता है कि लोग अपने विकास के लिए काम कर रहे हों उसमें कुछ किया जाये। आपके देश में तो सब कुछ आपको ही करना होता है और लोग आपके करने में कुछ करने को ही या आपके करने में विरोध न करने को ही अपनी कर्मठता व सक्रियता मानते हैं जबकि आप सब कुछ उनके अपने लिए ही कर रहे होते हैं। मैं निरुत्तर हो जाता हूं क्योंकि यही दर्द मुझ जैसों का भी है।
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अलेक्सिस जैसे लोग मेरी दृष्टि में इसलिए अधिक महान हैं क्योंकि मुझ जैसे लोग तो अपने देश व समाज के लिए ही काम करते हैं। किंतु अलेक्सिस जैसे लोग अपना कैरियर, अपनी सुरक्षा, अपना सुख, अपनी सुविधा आदि त्याग कर भारत जैसे अनजान देशों में बिना लालच, बिना नाम, बिना पहचान, बिना धन-पिपाशा आदि के काम करने आते हैं क्योंकि इनसे मानव समाज के लोगों का दुख देखा नहीं जाता, सामाजिक काम इनका व्यवसाय नहीं, कमाई करने, पुरस्कार पाने, विदेश घूमने, नाम/पहचान पाने, सेलिब्रिटी बनने आदि का जरिया नहीं है बल्कि जीवन जीने की सार्थकता है, जीवन का उद्देश्य है।
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**चलते-चलते**
(यह मूल-लेख का हिस्सा नहीं है)
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शर्म व नीचता की बात यह है कि हमारे भारतीय समाज के बहुत लोग विदेशों को गाली देना, नफरत करना को देशप्रेम मानते हैं, जबकि खुद अपने देश के लोगों के लिए वास्तव में अंदर की ईमानदारी से कुछ भी नहीं करते हैं उल्टे झूठ लफ्फाजी फरेब धोखा व भ्रष्टाचार इत्यादि जिसके बस में जो हो सकता है, में लिप्त रहते हैं।
वहीं पर विदेशों (जिन समाजों को हम रातदिन गाली देते हैं) के लोग हमारे बहुत पिछड़े इलाकों (जहां हम भारतीय होकर भी नहीं जाना चाहते हैं) में जाते हैं और भयंकर समस्याओं व सुविधाहीन तरीके से रहते हैं, अनजान लोगों के विकास का काम करते हैं। बदले में कुछ नहीं पाते हैं, हमारा भारतीय समाज उनको धन्यवाद तक नहीं देता है, मीडिया उनके कामों के बारे में बात तक नहीं करती है।
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योरपीय समाज में अलेक्सिस रोमन जैसे युवा भरे पड़े हैं, जो दुनिया के एक से बढ़कर एक पिछड़े इलाकों को चुनते हैं, वहां जाते हैं और बिना शोर-शराबे के अनजान लोगों के बीच रहकर उनके लिए काम करते हैं। वह भी परिस्थितियों को झेलते हुए। भाषा भी नहीं समझते हैं, फिर भी संवाद करते हैं। लूटपाट, दुर्व्यवहार इत्यादि के खतरे उठाते हैं।
क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारे IIT IIM के टापर हिंदू धर्म के लड़के-लड़कियां पाकिस्तान जाएं, पाकिस्तान के अत्यधिक पिछड़े इलाकों में जाकर अनजान लोगों के बीच, गैर-हिंदू धर्म के लोगों के बीच, सुविधाहीन तरीके से, बिना नौकरी, बिना वेतन के रहें और वहां रहते हुए लोगों के लिए काम करें। जब हम अपने देश के पिछड़े इलाकों में जाकर जमीन पर काम करने वाले लोगों को मूर्ख मानते हैं, उपहास उड़ाते हैं, जबकि हमारा देश हमारा धर्म हमारी भाषा। हम तो पाकिस्तान जाकर काम करने वाले को देशद्रोही बताकर उसका भारत आना प्रतिबंधित कर देंगे, उसको पाकिस्तान का जासूस बता देंगे, उसके घर-परिवार वालों पर हमला कर देंगे। और भी बहुत कुछ करेंगे।
हमें अपने गिरेबां पर ईमानदारी से झांक कर देखना चाहिए कि मनुष्य के तौर पर, मानवीय व सामाजिक मूल्यों के तौर पर, वास्तविक संस्कारों के तौर पर, संस्कृति के तौर पर वास्तव में हम कहां खड़े हैं। गिरेबां पर झांकने का मतलब मुझे तुरंत या कुछ दिनों बाद गाली देना नहीं है।
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*——विवेक उमराव——*
की लगभग 7 वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक
*”मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर”* से
{मूल्य लगभग 6500 रुपए प्रति, (भारत में विशेष-मूल्य लगभग 2500 रुपए प्रति)}
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