इस्लाम का अतीत और वर्तमान निर्दोषों की हत्या से रक्तरंजित है और भविष्य पूरी मानवता के कत्ल का स्वप्न संजोए बैठा है। सबको एक ही रंग के झंडे के नीचे लाने का स्वप्न सामूहिक नरसंहार या सामूहिक धर्मांतरण के बिना संभव नहीं? बल्कि किसी के भी धर्म-परिवर्तन की आवश्यकता ही क्यों पड़नी चाहिए? धर्म तो आंतरिक परिष्करण और उन्नयन का माध्यम भर होना चाहिए। हम उसी आंतरिक उन्नयन, परिष्करण, वैज्ञानिक एवं मानवीय सोच को बचाने के लिए हिंदू जीवन-पद्धत्ति को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन देने की पैरवी कर रहे हैं, जिसे भूलवश कुछ लोग सांप्रदायिकता का नाम देते हैं।
मैं इतिहास का वस्तुपरक विवेचन करता हूँ। जब गाँधी जैसे तमाम उदारमना इस देश का विभाजन नहीं रोक सके और मुस्लिमों को साथ चलने पर राजी नहीं कर सके तो हमारी-आपकी सामर्थ्य ही क्या है? क्या गाँधी की नीति और नीयत में कोई खोट थी? बल्कि उन्होंने तो मुस्लिमों को साथ लाने के लिए खिलाफत जैसे अलोकतांत्रिक आंदोलन तक का समर्थन किया था? खिलाफत आंदोलन पूरे भारत में इस्लाम की सत्ता की स्थापना का सैद्धांतिक समर्थन था, जबकि ख़लीफ़ा के द्वारा शासित उनके अपने लोग ही उनके विरुद्ध सड़कों पर उतर हिंसक एवं उग्र प्रदर्शन कर रहे थे। स्वतंत्रता-पूर्व तमाम उदारमना व्यक्तित्व के रहते-रहते भारत अनेक खंडों में विभक्त हो गया। हिंदुओं की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती चली गई। जो बचे वे भी इसी कारण कि हमारे पूर्वजों ने धर्म के लिए प्राणों की आहूति दी, मर गए, मिट गए, पर धर्म की टेक न छोड़ी। आज इस देश में बुद्धिजीवियों की एक ऐसी पौध तैयार हो गई है जो राष्ट्र और धर्म की तुलना में मज़हब-संप्रदाय विशेष की बातों-माँगों को अधिक महत्त्व देने की वक़ालत करती है। क्या इससे मुस्लिमों की सदाशयता-सद्भावना प्राप्त की जा सकती है? शायद नहीं, क्योंकि स्वतंत्रता-पूर्व भी तो हम मुस्लिम लीग की हर अनुचित माँग को मानते चले गए थे। क्या परिणाम निकला? सच तो यह है कि अन्याय और अत्याचार को सहना उसे अंजाम देने से अधिक बुरा है। जिद्दी और शरारती बच्चे की हर माँग को मान लेना उनकी जिद और सनक को बढ़ाना है। हम सच को स्वर न देकर समुदाय विशेष की हिंसा और आक्रामकता को पोषित कर रहे हैं। समुदाय विशेष से यह कहने की हिम्मत न करना कि दुनिया छठी शताब्दी से बहुत आगे निकल चुकी है, कि आसमानी क़िताब एक व्यक्ति की सोच है और एक व्यक्ति की सोच पूरी दुनिया और भिन्न-भिन्न परिवेश के लिए कदापि उपयुक्त नहीं हो सकती- मानवता को कट्टरता के अंध कूप में धकेलने जैसा है। बदलते वक्त के साथ इस्लाम को बदलना होगा, उसके मतानुयायियों को असहमति का सम्मान करना सीखना होगा। मैं मानता हूँ कि एक लिजलिजी-पिलपिली-खोखली एकता की भावनात्मक पैरवी की बजाय हम चीजों को तर्क की कसौटी पर कसें। और संघर्ष के मूल कारणों पर विचार करें। संघर्ष का मूल कारण इस्लाम की कट्टर-विभाजनकारी-विस्तारवादी सोच है।
यदि मानवता की रक्षा करनी है तो उसके लिए अनुकूल परिवेश निर्मित करना आवश्यक है। इस्लाम गैर मुसलमानों को येन-केन-प्रकारेण मुसलमान बनाने पर आमादा है। उसका पूरा चिंतन संख्या बढ़ाने और वर्चस्व स्थापित करने का है। इस्लाम में आध्यात्मिक रूपांतरण की कोई संकल्पना ही नहीं है। वह एक राजनीतिक चिंतन है। वह दिलों पर नहीं दुनिया पर छा जाने का विचार पालता है। अपने ही मतानुयायियों को पिछड़ा-प्रतिगामी-दकियानूसी बनाकर उसे इस्लाम ‘ख़तरे’ से बाहर नज़र आता है। हिज़ाब-बुर्का-दाढ़ी से लेकर अन्य इस्लामिक प्रतीकों के प्रति उसका बढ़ता जुनून एक नए किस्म की कट्टरता या यों कहें कि अंधता की ओर इशारा करता है। क्या ऐसी ज़िद एवं जुनून से शांति और अहिंसा का वातावरण निर्मित होगा? क्या इसका प्रतिवाद हिंसा कहलाएगा? आसुरी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाए बिना एक भी सद्गुण प्रस्फुटित नहीं हो सकता! इसलिए मैं जोर देकर कहता हूँ कि वैचारिक प्रतिकार और प्रतिरोध अनिवार्य है। समाधान संगठित शक्ति है। शक्ति किसी के शोषण या उत्पीड़न के लिए नहीं, बल्कि शक्ति मानव के सर्वश्रेष्ठ गुणों के विकास एवं संरक्षण के लिए। न केवल गैर मुसलमानों के लिए, बल्कि मुसलमानों के लिए भी। धर्म और सत्य का साथ दीजिए और अधर्म व असत्य का प्रतिरोध कीजिए। हम शुतुरमुर्गी सोच के साथ अपने सामूहिक अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकते। हम विकास का पहिया उल्टा नहीं घुमा सकते। आज इस्लाम के भीतर सुधारवादी आंदोलन चलाए जाने की महती आवश्यकता है और बाहर से उनके चरमपंथी तत्वों पर चौतरफा दबाव बनाने की भी। उन्हें सभ्य समाज में जीने के लिए मध्ययुगीन, बर्बर एवं क़बीलाई मानसिकता से बाहर निकलना होगा और हम जैसों को क्षद्म सेकुलरिज्म के नाम पर उनकी हर उटपटांग हरकतों का समर्थन करने से बचना होगा। मत भूलिए कि गोधरा के बाद गुजरात वार्षिक दंगों से मुक्त हो गया। 9/11 के बाद अमेरिका में एक भी दंगा नहीं हुआ। सातवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी, लगभग 300 वर्ष तक आक्रामक इस्लाम भारत की ओर झाँकने की हिम्मत नहीं कर सका, जानते हैं क्यों? क्योंकि उस दौरान ऐसे कई शासक हुए जिन्होंने न केवल उनका ठोस प्रतिरोध किया बल्कि उन्हें खदेड़-खदेड़कर मारा। सम्राट अशोक के पश्चात मौर्य वंश के पतन का मूल कारण उनकी लिजलिजी-अव्यवहारिक-पोपली अहिंसावादी सोच थी।
दुनिया के किसी इस्लामिक देश में धर्मनिरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं। उनके लिए उनका पैगंबर, उनका ग्रंथ, उनका शरीयत सबसे ऊपर है। इस्लाम सोचने पर, कुछ नया सोचने पर ताला जड़ देता है, आप उतना ही सोच सकते हैं जितने तक कि उनकी पवित्र क़िताब इजाज़त देती है और इसलिए वह कुछ हद तक इंसानियत और प्रगतिशीलता दोनों का विरोधी बन जाता है। यदि इस्लाम को युगीन बनना है तो उदारता के साथ-साथ सब प्रकार के शास्त्रों-पंथों-विचारों का स्वागत करना होगा, जिसके लिए उसके धर्मगुरु तैयार नहीं। हमको-आपको तथ्यों के आलोक में सत्य का अन्वेषण करना चाहिए। और एक नई प्रकार की कट्टरता यानी सच को सच कहने की आज़ादी पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए।