मेरी दादी जीवित नहीं थीं। मां थी। वह मेरे तीसरे साल में विदा हो गई। मुझे मेरी विमाता ने पाला और दादी की कहानियां सौतेली मां के मुख से सुनने को मिलीं। और कुछ और बड़ा होने पर बचानी की मां से। बचानी की मां का अर्थ है, वह मां जो एकमात्र संतान लड़की की मां हो, जिसके बुढ़ापे के लिए कोई सहारा न हो। उनके पति दूधनाथ सिंह कुबड़े थे, साक्षर थे और ज्ञान की खान थे। किसी रहस्यमय कारण से वह भी कुबड़ी हो गई थीं। पतिपरायण इतनी कि लगता वह किसी अन्य लोक में रहती हैं । स्वभाव से कर्कश और दूसरे सभी लोगों से दूरी बनाकर अपने दो कमरों के मकान में रहती थीं। मेरी अग्नि साधना का प्रसंग यहां न आए तो ही अच्छा। परंतु जब मुझे कहीं से आग नहीं मिलती थी तो अपनी झुंझलाहट प्रकट करने और विमाता को कोसने के बाद निराश नहीं करती थीं। आग भी वहीं से मिलती थी और कुछ बाद में ज्ञान का प्रकाश भी वहीं से मिला। मुझे सौतेली माताओं की क्रूरता की कहानियां विमाता से सुनने को मिलीं और विचित्रता की कहानियां बचानी की मां से। आप में से कम लोग मुझ जैसे सुभागे रहे हो सकते हैं जिन्हें दादी या नानी के लाड़ के साथ ये कहानियां सुनने को न मिली हों या जो अभागे हैं कि अपने पितरों की आधुनिकता के कारण इतिहास के इस पुरातन स्रोत से वंचित हैं। ये कहानियां कब से सुनी और सुनाई जा रहीं हें इसका पता आपको है? पता मुझे भी न था इसलिए मैक्स मूलर के चिप्स फ्रॉम जर्मन वर्कशॉप के दूसरे खंड मैं आई कुछ पुस्तक समीक्षाओं पर मेरा ध्यान न गया होता । मैं बिना किसी टिप्पणी के मूल के अनुवाद के कुछ अंशों को आप में से जो लोग आगे इस विषय पर काम करना चाहते हैं उनके लिए उद्धृत करना चाहता हूं । यह बता दें कि संस्कृत की यूरोपीय भाषाओं से समानता से उत्साहित होकर यूरोप के दसियों अध्येताओं ने पुराण कथाओं, देवकथाओं, परीकथाओं, जंतुकथाओं आदि का बड़े परिश्रम से संग्रह किया था कि कहीं से कोई ऐसा सूत्र मिल जाए जिससे यह साबित किया जा सके कि उनका प्रभाव भारत पर पड़ा है परन्तु सभी से केवल इस बात की पुष्टि होती थी कि इनका प्रसारण भारत से हुआ है।
“एड्डा” (“एडडा एक शब्द है जिसका उपयोग दो आइसलैंडिक पांडुलिपियों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जिन्हें 13 वीं शताब्दी सीई में कॉपी और संकलित किया गया था। साथ में वे नॉर्स पौराणिक कथाओं और स्काल्डिक कविता के मुख्य स्रोत हैं जो धर्म, ब्रह्मांड से संबंधित हैं। , और स्कैंडिनेवियाई और प्रोटो-जर्मनिक जनजातियों का इतिहास।” किम्बर्ली लिन) जो वेद के छंदों की तरह लगते हैं। डॉ. डेसेंट ने बड़े “एड्डा:” से निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत कीं –
“टी समय की सुबह थी,
जब अभी तक कुछ नहीं था,
न रेत थी न समुद्र,
न ही ठंडी धाराएँ;
पृथ्वी नहीं बनी,
न ऊपर स्वर्ग;
जम्हाई की खाई थी, और घास कहीं नहीं थी।”