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शहर में उस रोज यह ख़बर सुलगते देर नहीं लगी

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शहर में उस रोज यह ख़बर सुलगते देर नहीं लगी

कि एक पाकिस्तानी पकड़ा गया है। पर जब लोगों ने जाना कि वह पाकिस्तानी कोई और नहीं अब्दुल मन्नान हैं तो जो चिंगारी शोला बनना चाहती थी यकबयक फुस्स हो गई, पर फुसफुसाहट नहीं ख़त्म हुई। किसिम-किसिम की बातें, किसिम-किसिम के आरोप-प्रत्यारोप। बिलकुल घटाटोप ! सर्दियों का वह कोई दिन था। पर शहर में सर्दी पर इस ख़बर की गरमी तारी थी।
अब्दुल मन्नान जाति के जुलाहा थे। जुलाहा भले ही थे अब्दुल लेकिन जाहिल नहीं थे। पढ़ने-लिखने में बचपन से ही अव्वल थे। अंगरेजी में एम. ए. कर यूनिवर्सिटी टॉप किया और गोल्ड मेडलिस्ट बने। वह भी तब जब ज्यादातर मुस्लिम लड़के मदरसे में इस्लामी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते थे या फिर मदरसा से आगे नहीं जा पाते, लेकिन अब्दुल ने एम. ए. किया और जुलाहा का बेटा होने के बावजूद किया। सीमित साधनों में पढ़-लिख कर टॉपर और गोल्ड मेडलिस्ट बन के अब्दुल ने अपने ख़ानदान का नाम रौशन कर दिया। तभी उन के इस्तकबाल के लिए उन की ससुराल से भी बुलावा आ गया। उन की ससुराल तब पूर्वी पाकिस्तान में थी। वह अपनी बीवी के साथ ससुराल रवाना हो गए। वहां भी उन का बड़ा स्वागत हुआ। हालां कि शुरू-शुरू में कुछ लोगों ने मन्नान को हिंदुस्तानी जासूस कह कर बदनाम किया, लेकिन उन के ससुर की वहां इतनी धाक थी कि यह दाग मन्नान के सिर से जल्दी ही हट गया। ससुराल के लोग खाते-पीते लोग थे सो अब्दुल कुछ रोज वहीं रह गए। फिर एक डिग्री कालेज में प्रिंसिपल हो गए और बाकायदा ससुराल में रह कर जिंदगी का मजा लूटने लगे। कहने वाले कहते हैं कि वहां उन की एक साली थी, वह उस पर लट्टू हो गए थे सो वहीं रहने लगे। बहरहाल, जो भी हो धीरे-धीरे वह वहीं के हो कर रह गए।
जिंदगी चैन से कट रही थी कि तभी उन पर आफत बरपा हो गई। वह भी सर्दियों के दिन थे। भारत पाकिस्तान में जंग शुरू हो गई। जंग ख़त्म होने के बाद पूर्वी पाकिस्तान का अस्तित्व ख़त्म हो चुका था। अब नया देश बांगलादेश दुनिया के नक्शे पर उभर आया। लेकिन भारत पाकिस्तान के बीच जंग भले ही ख़त्म हो गई थी वहां बांगलादेश में आपस में लोगों में ख़ून ख़राबा जारी था। ख़ास कर बिहारी मुसलमानों की वहां ख़ैर नहीं थी। तब वहां माना जाता था कि बिहारी मुसलमान पाकिस्तान परस्त हैं। बांगलादेश बनने के पहले भी बिहारी मुसलमानों और बंगाली मुसलमानों में भारी मतभेद थे। बल्कि बांगलादेश बनने का यही बड़ा सबब बना। बिहारी मुसलमान और बंगाली मुसलमान तब के दिनों भी अगल बगल खड़े हो कर नमाज तो पढ़ लेते थे, लेकिन शादी-ब्याह और खान-पान इन के बीच नहीं था। रोटी और बेटी का रिश्ता नहीं था। दूसरे, बिहारी मुसलमानों की भाषा उर्दू थी जब कि बंगाली मुसलमानों की बांगला। एक दुश्वारी यह भी थी कि बंगाली मुसलमानों को लगता था कि उर्दू उन पर लादी जा रही है। उनको लगता था कि बिहारी उन का मजाक उड़ाते हैं। पर आबादी के हिसाब से बंगाली मुसलमान ज्यादा थे सो बिहारी मुसलमानों को जब तब सबक सिखाते रहते थे। पर ज्यादातर बिहारी मुसलमान आर्थिक रूप से संपन्न थे, ऊंची कुर्सियों पर थे। सो वह बंगाली मुसलमानों को मौका पाते ही रगड़ते रहते थे। नतीजतन दोनों वर्गों के बीच गहरी खाई खुदती गई। हालां कि तब के वहां के नेता शेख मुजीबुर्रहमान जो ख़ुद भी बंगाली मुसलमान थे, फिर भी वे चाहते थे कि दोनों वर्ग मिल-जुल कर रहें। पर बांगलादेश आजाद होने के बाद सत्ता उन्हों ने जरूर संभाल ली, लेकिन इस खाई को पाटने के पहले ही उन की हत्या हो गई। ख़ून ख़राबा शुरू हो गया। अब्दुल के ससुराल का मकान जला दिया गया था, जायदाद लूट ली गई थी। अब्दुल के ससुर और एक साले की हत्या हो गई। बाकी लोग बचते-बचाते जान लिए पाकिस्तान भाग लिए। अब्दुल ने भी भाग कर बीवी-बच्चों समेत हिंदुस्तान की राह पकड़ी।
भाग कर अपने घर आए। घर की छत के नीचे सुकून ढूंढ़ने। पर यहां तो वह पाकिस्तानी डिक्लेयर हो चुके थे। बांगलादेश से ज्यादा आफत यहां थी। वहां तो ख़ून-ख़राबा था, यहां उस से भी ज्यादा अविश्वास की नागफनी मुंह बाए खड़ी थी। और वो जो कहते हैं न कि जैसे नागफनी का कांटा नागफनी को खुद चुभ जाए! वही हालत हुई थी तब अब्दुल मन्नान की। हिंदू तो खुले आम उन्हें पाकिस्तानी जासूस कह कर ताना क्या कसते थे, लगभग जूता मारते थे, लेकिन मुसलमानों में भी कम अविश्वास नहीं था उन के प्रति। मुसलमान भी जल्दी उन से बात नहीं करते थे। करते भी तो सीधे मुंह नहीं। तो इस लिए कि अव्वल तो जुलाहों में पढ़ाई-लिखाई का अभाव था सो जाहिलियत ! दूसरे, कहीं पुलिस पाकिस्तानी होने के फेर में सब के गले में फंदा न डाल दे। तीसरे, पट्टीदार भी चाहते थे कि अब्दुल को पाकिस्तान भेज दिया जाए ताकि उन के हिस्से के मकान, जायदाद पर उन का कब्जा बना रहे।
वैसे भी हर दूसरे, तीसरे रोज पुलिस आती अब्दुल को मय परिवार के उठा ले जाती पूछताछ के लिए। जाने कौन-सी पूछ-ताछ थी जो ख़त्म नहीं होती थी और पुलिस फिर-फिर पकड़ ले जाती। तो अब्दुल मन्नान की मदद में कोई खड़ा नहीं होता। अब्दुल अपना राशन कार्ड, पुरानी वोटर लिस्ट, अपने नाम पुश्तैनी मकान के कागजात, अपनी पढ़ाई लिखाई के सर्टिफिकेट, यूनिवर्सिटी टॉपर होने, गोल्ड मेडलिस्ट होने और अपने को सभ्य शहरी होने की ढेरों दलीलें रखते। लेकिन सब बेअसर !
पागल हो गए थे अब्दुल मन्नान। खाने के लाले पड़ गए। फाका होने लगा। कोई मकान तक ख़रीदने या गिरवी रखने को तैयार न था। कोई मामूली-सा काम या नौकरी देने को तैयार न था। अब्दुल काम मांगने बाद में जाते, उन से पहले उन के पाकिस्तानी होने की ख़बर पहुंची रहती। उन की पत्नी थोड़ी ख़ूबसूरत थीं सो थक हार कर पत्नी को साथ ले वह तमाम छोटे बड़े नेताओं, मौलानाओं, अफसरों के घर भी गए, सिर पटका, गिड़गिड़ाए, अपने सोलहो-आने हिंदुस्तानी होने का वास्ता दिलाया, सुबूत दिया, कुरआन की कसमें खाईं। पर सब बेकार, सब बेअसर ! एक बार मय बीवी बच्चे के जहर खा कर मरने की कोशिश भी की अब्दुल मन्नान ने। पर खाना न देने वाले, काम न देने वाले लोग ही उठा कर उन्हें अस्पताल ले गए और वह सपरिवार बच गए। यह बात सारे शहर में आग की तरह फैल गई। हिंदुओं में तो फिर भी नहीं, मुसलमानों में थोड़ी-थोड़ी सहानुभूति अब्दुल के प्रति उपजने लगी। ऐसे ही मुसलमानों में एक थे मुहम्मद शफी।
मुहम्मद शफी एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। प्रेस उन का काफी बड़ा था। इस प्रेस से वह उन दिनों सोलह पेज का एक साप्ताहिक अख़बार भी निकालते थे। और चूंकि तब शहर में कोई दैनिक अख़बार नहीं था सो उन के अख़बार की तूती बोलती थी। बनारस, लखनऊ से छप कर कुछ हिंदी, अंगरेजी अख़बार तब वहां पहुंचते जरूर थे, कुछ साप्ताहिक, पाक्षिक अख़बार और भी थे शहर में, पर जो हनक और रसूख मुहम्मद शफी के अख़बार की थी, किसी और अख़बार की तब के दिनों बिलकुल नहीं थी। मुहम्मद शफी ने भी बड़ा संघर्ष किया था। थे तो धुर देहात के। पिछड़े हुए तराई इलाके के और बीड़ी बना-बना कर पढ़ाई की थी। सोशियोलाजी में एम. ए. थे। पर अब्दुल मन्नान की तरह टॉपर या गोल्ड मेडलिस्ट नहीं थे। पर जिंदगी जरूर वह सलीके से ऐश करते हुए जी रहे थे। कुछ सालों तक मुहम्मद शफी ने दिल्ली के एक बड़े अख़बार में भी काम किया था और वहां के पोलिटिकल सर्किल में अपनी पैठ भी बनाई थी। प्रधानमंत्री तथा कई मंत्रियों के साथ अपनी फोटो भी अलग-अलग खिंचवा रखी थी उन्हों ने। उन की प्रतिभा को देखते हुए पूर्वांचल के एक केंद्रीय मंत्री उन्हें वापस यहां लाए और एक अख़बार निकालने का पूरा सेटअप दिया। लंबा चौड़ा स्टाफ रखा। उन दिनों जब पत्रकार चप्पलें चटकाते घूमते थे वैसे में हैंडसम सेलरी विथ कार एंड ड्राइवर दिया। तो मुहम्मद शफी ने भी अच्छा अख़बार निकाल कर तहलका मचा दिया। उन की महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगीं। जल्दी ही उन्हों ने मंत्री जी का सब कुछ गड़प कर अपना अख़बार शुरू कर दिया। यह अख़बार भी चल निकला। अब शफी ही शफी थे, हर तरफ। इसी बीच संसदीय चुनाव आ गया। शफी ने अपने तराई क्षेत्र की सीट से कांग्रेस का टिकट जुगाड़ लिया। प्रतिद्वंद्वियों को
अच्छी टक्कर दे वह जीत भी रहे थे लेकिन तब के जनसंघियों ने कांग्रेस उम्मीदवार शफी को हराने के लिए एक निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर
दिया था। वह निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार शफी के काफी मुस्लिम वोट काट रहा था। शफी ने उसे कई बार चुनाव में अपने पक्ष में बैठाने की कोशिश की। पैसे आदि का प्रलोभन दिया, डराया धमकाया। गरज यह कि साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाया पर वह निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार शफी की बातों, धमकियों या प्रलोभन में आया नहीं। उसे शफी के विरोधियों ने दरअसल समझा दिया था कि अब तो तुम्हीं जीतोगे और वह इसी गुमान में अड़ा रहा। चुनाव में शफी को कड़ी टक्कर देता रहा कि उस की एक रात अचानक हत्या हो गई। तोहमत शफी के सिर आ गई। शफी कहते रहे, चिल्लाते रहे कि, ‘यह मुझे हराने की जनसंघियों की साजिश है, मुझे फंसाया जा रहा है।’ पर शफी की किसी ने एक न सुनी। मुसलमानों ने भी नहीं। बल्कि क्षेत्र के मुसलमानों ने तो उन से नफरत शुरू कर दी। शफी चुनाव हार गए। हत्या दरअसल उस निर्दलीय मुस्लिम प्रत्याशी की नहीं वास्तव में मुहम्मद शफी की हुई थी। राजनीतिक हत्या !
शफी के हारने में यह हत्या तो एक फैक्टर था ही, एक फैक्टर और था। दरअसल शफी जब दिल्ली में थे तब एक हिंदू परिवार में उन का आना जाना बहुत बढ़ गया था। पैसे और अपने रसूख के दम पर उन्हों ने उस परिवार की मालकिन को गांठ लिया। यह लोग भी हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इटावा के ही रहने वाले थे, फिर भी शफी और उन लोगों के लिए काफी था यू. पी. – यू. पी. !
हिंदू-मुस्लिम की दीवार भी पैसे के दबाव और रसूख की आंच में बह गई। वह परिवार व्यवसाई था और शफी ने अपने रसूख के दम पर उन के बिजनेस को ख़ूब प्रमोट करवाया। कोई दिक्कत नहीं थी। अब तक उस महिला से शफी के सरोकार काफी ‘प्रगाढ़’ हो चले थे। हालां कि शफी शादीशुदा थे पर उन की अनपढ़ जाहिल पत्नी तराई के उन के गांव में रहती थी। शफी पहले तो उस के लिए भागे-भागे गांव पहुंचते थे, लेकिन तब लड़कपन था। पर अब तो वह उस की चर्चा तो दूर अपने को कुंवारा ही फरमाते। बाद में जब उन का इस शहर में भी वापस आना हुआ तो भी उन्होंने उस परिवार
से नाता नहीं तोड़ा। प्रगाढ़ ही रखा। बल्कि उस परिवार का आना जाना बाद में इस शहर में भी हो गया। बाई प्लेन। सारे खर्चे-बर्चे शफी उठाते। इस आने जाने के बीच उस हिंदू परिवार की मालकिन की दो बेटियां भी बड़ी होने लगीं। एक बेटी अंजू तो बला की ख़ूबसूरत थी। वह बोलती थी तो लगता जैसे मिसरी फूट रही हो। उस की कानवेंटी हिंदी अजीब-सा कंट्रास्ट घोलती। चलती तो लगता जैसे किसी फूल की कली फूट रही हो। उस के होंठ भी बड़े नशीले थे। और आंखें तो ऐसी गोया ख़य्याम की रुबाई हों। उस की शोख हंसी से लोगों के दिलों में मछलियां दौड़-दौड़ जातीं। तो ऐसे में शफी कौन से ब्रह्मचारी थे ? वह कैसे न फि होते इस अंजू नाम की लड़की पर। क्यों न मर मिटते उस पर ! भले वह उन की माशूका की बेटी थी। तो क्या, शफी ने भी रूसी उपन्यास ‘लोलिता’ पढ़ रखा था। फिर पड़ गए वह भी इस अंजू रूपी लोलिता के कपोलों के किलोल में। उस के कपोलों पर लटकती जुल्फों के असीर हो गए। बतर्ज मीर ’हम हुए तुम हुए कि मीर हुए, सब इसी जुल्फ के असीर हुए।’
अंजू भी सोलह-सत्तरह के चौखटे में थी। सेक्स के पाठ में जल्दी ही प्रवीण हो गई शफी के साथ। शफी के हाथ क्या पड़े उस पर कि उस की रंगत ही बदल गई। देह उस की गदराने लगी। अंजू की मां को कुछ-कुछ भरम-सा हुआ, शक-शफी पर भी गया पर जब तक शक पक्का होता हवाता बात बहुत आगे बढ़ चुकी थी। अंजू शफी के बच्चे की मां बनने वाली थी। अब क्या करे अंजू ? क्या करे अंजू की मां ? बात अंजू के पिता तक पहुंची। उन्हों ने माथा पीट लिया। बोले, ‘मुह काला करने के लिए इसे मुसलमान ही मिला था ?’ अब उन्हें कौन समझाता भला कि यह मुसलमान उन के घर में बरसों से सेंध लगाए पड़ा है। कौन बताता उन्हें कि बेटी तक तो वह बाद में आया, पहला पड़ाव तो मां बनी जो आप की बीवी है। आप की बीवी ही पुल बनी आप की बेटी तक शफी को पहुंचाने में। लेकिन बिजनेस प्रमोट करवाने के चक्कर में आप की आंख बंद रही तो कोई क्या करे भला ?
ख़ैर अंजू के मां बनने की ख़बर से पूरा घर तबाह था। अगर कोई निश्चिंत था तो वह खुद अंजू थी। शफी ने सपनों के ऐसे शहद चखा रखे थे अंजू को, प्यार के ऐसे पाठ पढ़ा रखे थे अंजू को, कि उसे कोई फिक्र होती भी तो कैसे ? जिंदगी के थपेड़ों की उसे थाह भी नहीं थी। वह तो अपनी ख़ूबसूरती की चाश्नी में मकलाती फुदकती रहती।
अंततः मां ने पहल की पूछा, अंजू से, ‘तू क्या चाहती है ?’
‘किस बारे में ?’ अंजू चहकती हुई प्रति-प्रश्न पर आ गई।
‘इस बच्चे के बारे में।’ मां ने साफ किया, ‘तेरे होने वाले बच्चे के बारे में?’
‘जैसा शफी साहब कहेंगे !’ वह फिर चहकती हुई बोली।
‘तुम ने कोई बात की है इस बारे में शफी से ?’
‘नहीं, बिलकुल नहीं।’
‘करेगी भी ?’
‘जरूरत क्या है ?’
‘जरूरत है।’ मां बोली, ‘मैं ट्रंकाल बुक करती हूं। बात तू कर !’
‘जल्दी क्या है अभी ?’ अंजू बोली, ‘अगले हफ्ते तो वह आने वाले हैं?’
‘कौन आने वाले हैं ?’
‘शफी साहब !’ अंजू यह कहती हुए लिरिकल हो गई।
‘अगले हफ्ते तक नहीं रुक सकती मैं।’ मां बोली, ‘तू आज ही बात कर!’
‘तो तुम ट्रंकाल बुक करो मम्मी !’
फोन पर बात के बाद मां ने अंजू से पूछा, ‘तो फिर ?’
‘ओह मम्मी !’ अंजू मां के गले में बाहें डालती हुई बोली, ‘डोंट वरी, वह शादी के लिए तैयार हैं !’
‘कौन शादी के लिए तैयार हैं ?’ मां ने चकराते हुए पूछा।
‘शफी साहब !’ अंजू इतराती हुई बोली, ‘और कौन शादी के लिए तैयार होगा?’ वह अपने पेट पर हाथ रखती हुई बोली, ‘जिस का बच्चा है वही तो तैयार होगा !’
‘ओफ्फ !’ कह कर मां ने माथे पर हाथ रख लिया। बोली, ‘तुझे पता है कि शफी तुझसे दोगुनी उमर से भी ज्यादा का है ?’
‘पता है मम्मी।’ वह बोली, ‘दिस इज नाट माई प्राब्लम !’ उस ने जोड़ा, ‘माई प्राब्लम इज दैट आई लव हिम !’ मां का मन हुआ कि अंजू को बताए कि तुझे पता है, तेरा शफी मुझ से भी लव करता रहा है ? पर यह सवाल वह पी गई। बतातीं भी तो कैसे बतातीं, बेटी से भला यह और ऐसी बात !
शफी ने सचमुच अंजू से शादी कर ली। शहर में यह बात तेजी से फैली कि शफी ने एक नाबालिग हिंदू लड़की को भगा फुसला कर शादी कर ली ! इस शादी की हवा इतनी तेज बही शहर में कि एक बार तो हिंदू-मुस्लिम फसाद की नौबत आ गई। पर गनीमत कि बात सिर्फ टेंशन तक आ कर ही निपट गई। बाद में शफी ने अपने प्रोग्रेसिव होने का सुबूत दिया। अंजू का नाम अंजू ही रहने दिया। उसे मुस्लिम बनाने पर जोर नहीं दिया। न सिर्फ इतना बल्कि अंजू के साथ वह बाकायदा होली, दीवाली भी मनाते और अंजू उन के साथ ईद, बकरीद मनाती। अंजू के एक बेटी हुई। उस के तालीम की अच्छी से अच्छी व्यवस्था की शफी ने और बाद में उसे नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया। यह अलग बात है एक बच्ची की मां बन जाने के बावजूद अंजू के हुस्न में कोई कटौती नहीं हुई उल्टे इजाफा हुआ। कई बार तो शफी ने अपनी तरक्की के लिए अंजू के हुस्न की सीढ़ी का इस्तेमाल किया और ख़ूब किया। इतना ही नहीं अंजू की छोटी बहन पर भी शफी ने डोरे डाले और उस का भी ख़ूब इस्तेमाल किया। पर अंजू के हुस्न के आगे वह फिर भी छोटी पड़ती। सुंदरता में अंजू के आगे वह कहीं ठहरती भी नहीं थी। तो एक यह फैक्टर भी शफी के चुनाव के खि़लाफ गया। कि शफी ने मुस्लिम बीवी को छोड़ हिंदू औरत को रख लिया।
शफी ने फिर-फिर चुनाव लड़ा और फिर-फिर हारे। कांग्रेस से टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय लड़े। संसदीय चुनाव लड़े, नहीं जीते तो विधानसभा के चुनाव लड़े। फिर भी जीत उन की झोली में नहीं आई। क्यों कि उन की तो राजनीतिक हत्या हो चुकी थी। चुनावी राजनीति में, वोट की राजनीति में मुसलमान उन के खि़लाफ थे। सो वह चुनाव हारते रहे। पर व्यावहारिक राजनीति में तो शफी की तूती बोलती थी। शहर में उन दिनों वह ‘मिनिस्टर विदआऊट पोर्टफोलियो’ कहे जाते थे। कुछ अपनी बुद्धि, तिकड़म और जोड़-तोड़ की महारथ के दम पर तो ज्यादा कुछ अपनी पत्नी अंजू के हुस्न के दम पर। हालां कि शफी थे जीनियस, लेकिन राजनीति और अख़बार दोनों एक साथ साधने में वह ‘सिद्ध’ नहीं हो पाए। दो नावों में पांव रखना उन्हें भारी पड़ा। लोग कहते थे कि अगर शफी साहब ने सिर्फ पत्रकारिता की होती तो वह बहुत बड़े पत्रकार हुए होते और जो सिर्फ राजनीति की होती तो बेहद सफल राजनीतिज्ञ हुए होते। पर दोनों के फेर में न इधर के हुए, न उधर के। हुस्न का हसिया उन को काटता रहा ! जो भी हो तमाम मंत्री, तमाम अफसर, तमाम नेता और तमाम लोग मुहम्मद शफी पर मेहरबान थे उन दिनों। और यही मुहम्मद शफी अब अब्दुल मन्नान पर मेहरबान होने जा रहे थे।
शफी ने आदमी भेज कर मन्नान को बुलवाया। मन्नान से पहले तो सहानुभूति जताई फिर सारा हाल जाना। उन के सारे कागजात देखे। पूर्वी पाकिस्तान के कालेज में उन के प्रिंसिपल वाला नियुक्ति पत्र भी देखा। मन्नान से कहा कि ‘आप पढ़े लिखे हैं। अपनी पूरी कहानी खुद लिख डालिए।’ मन्नान ने लिखा और पूरे दिल से लिखा। सारी तकलीफ, सारा अपमान, सारी जिल्लत पूरी संवेदना और शऊर से ब्यौरेवार लिखा। मन्नान के इस लिखे को शफी ने थोड़ा ‘रीटच’ किया और अपने अख़बार में मय मन्नान और उन के परिवार के फोटो सहित छापा। हेडिंग लगाई, ‘मैं कैसे नहीं हूं हिंदुस्तानी !’ दिल दहला देने वाले, रोंगटे खड़े कर देने वाले इस लेख को पढ़ कर लोगों की आंखें फैल गईं। फिर सब देख दाख कर शफी ने एक बड़े वकील से कंसल्ट किया। वकील भी मुसलमान था। उसे कुरआन शरीफ का वास्ता दिया, फिर कंसलटेंसी फीस दे कर कानूनी पेचीदगियां जानीं, तब अफसरों से संपर्क किया। दिल्ली के राजनीतिक संपर्कों को खंगाला। विदेश मंत्रालय से लगा गृह मंत्रालय तक पैरवी करवाई और इस सब के लिए शहर के मुसलमानों से चंदा लिया। मन्नान के पास तो फूटी कौड़ी नहीं थी, शफी अपना पैसा गलाना नहीं चाहते थे सो कुछ अमीर मुसलमानों को सेंटीमेंटल गिरफ्त में लिया, बताया कि यह आफत तो किसी भी उस मुसलमान पर आ सकती है, जिस की नाते-रिश्तेदारी कभी भी पाकिस्तान में रही हो। तो एकजुट होना जरूरी बताया। फिर अपना रसूख दिखाया और भारी भरकम चंदा बटोर लिया था। जो भी हो मन्नान का काम पूरा न सही, निन्यानबे फीसदी हो गया था। केस चलना था और लोकल इंटेलिजेंस यूनिट यानी एल. आई. यू. में हर महीने हाजिरी लगानी थी।
मन्नान, शफी के इस किए से उन के गुलाम से हो गए। अंततः शफी ने मन्नान को अपने प्रेस का मैनेजर भी बना दिया। मन्नान की बेगम भी पढ़ी लिखी थीं, उन्हें लड़कियों के एक मुस्लिम स्कूल इमामबाड़ा में टीचरी मिल गई। मन्नान की मेहनत और शफी की इनायत से मन्नान के परिवार की गाड़ी चल निकली क्या, दौड़ पड़ी। अब मन्नान के दिन अमन चैन से कट रहे थे। सब से बड़ा लड़का हैंडलूम के पुश्तैनी कारोबार में लग गया था। शादी भी हो गई थी। दूसरा लड़का उन का अब यूनिवर्सिटी पढ़ने जाने लगा था, तीसरा इंटर में था। एक लड़की थी उस की शादी हो गई थी और अब वह दूसरे लड़के की शादी के लिए फिक्रमंद हो चले थे।
हालां कि शफी के आफिस में काम थोड़ा ढीला चल रहा था। कई बार तो कर्मचारियों को वेतन की मुश्किल हो जाती। कई बार हफ्ते-दस रोज की देरी हो जाती वेतन बंटने में। कर्मचारी आते मैनेजर मन्नान से एडवांस मांगते तो मन्नान छूटते ही कहते, ‘जहर खाने को पैसा नहीं है और तुम लोग एडवांस मांग रहे हो।’ वह कहते, ‘पैसा होता तो सेलरी न तुम लोगों को बांट देता !’
मन्नान अब बूढ़े हो चले थे पर उन के काम में कहीं कोई कमी नहीं थी। फिर भी प्रेस में दिक्कत थी तो मन्नान के नाते नहीं शफी की पॉलिसी के नाते! शफी ने दरअसल अब दिल्ली से एक उर्दू अख़बार भी निकालना शुरू कर दिया था। सारा पैसा वह उसी में एडजस्ट कर देते। दूसरे, प्रेस में अब नई-नई टेक्नीक आ चली थी, कंप्यूटर की आमद हो गई थी सो काम भी कम होता जा रहा था। टी.वी. वगैरह ने अख़बारों का यूं ही धुआं निकाल रखा था। मन्नान कई बार इस तंगी से आजिज आ प्रेस की नौकरी छोड़ अपना कोई कारोबार लगाने की भी योजना बनाते लेकिन शफी की इनायतों की याद उन्हें रोक लेती। जैसे-तैसे वह काम चला रहे थे।
मन्नान उस रोज आफिस में आ कर बैठे ही थे कि तभी पुलिस आ गई। दारोगा ने कहा कि, ‘जरा आइए पुलिस आफिस चलिए !’
‘आखि़र बात क्या है ?’
‘मन्नान ने परेशान हो कर पूछा।’
‘कुछ नहीं।’ दारोगा बोला, ‘बस रुटीन बात करनी है।’
‘लेकिन मामला तो अब सब ख़त्म हो चुका है।’ मन्नान बिफरे।
‘हां, फिर भी कुछ बात करनी है !’
‘चलिए !’ कह कर मन्नान आफिस से चल दिए। इकट्ठा हुए कर्मचारियों को तसल्ली दी। बोले, ‘कुछ नहीं रुटीन बात करनी है। तुम लोग काम करो!’
पर मन्नान जब दारोगा के साथ पुलिस आफिस पहुंचे तो वहां उन की पत्नी, बच्चे सभी बैठे मिले तो उन का माथा ठनका। उन्हें बताया गया कि उन्हें
सपरिवार हिंदुस्तान छोड़ने का आदेश हो गया है। यह सुनते ही मन्नान के होश उड़ गए। पत्नी, बच्चे अलग रोए जा रहे थे। मन्नान की बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। आखि़र वह अपने लिखे पुराने लेख की हेडिंग चिल्लाने लगे, ‘कैसे नहीं हूं मैं हिंदुस्तानी !’
वह बार-बार यह हेडिंग चिल्लाते। पर कोई सुनने वाला ही नहीं था।

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