पम्पा सरोवर के तट पर पहुँचकर श्रीराम और लक्ष्मण ने सरोवर में स्नान किया। फिर सुग्रीव की खोज में दोनों आगे बढ़े।
उस समय सुग्रीव भी पम्पा के निकट ही घूम रहे थे। सहसा उनकी दृष्टि राम और लक्ष्मण पर पड़ी। उन्हें देखते ही सुग्रीव को भय हुआ कि इन दोनों को अवश्य ही वाली ने मुझे मारने के लिए भेजा है। यह सोचते ही सुग्रीव का मन उद्विग्न हो उठा। वे अब अपनी रक्षा की चिंता में डूब गए।
तुरंत ही ऋष्यमूक पर्वत पर वापस लौटकर सुग्रीव ने अपने मंत्रियों से कहा, “अवश्य ही इन दोनों को मेरे शत्रु वाली ने ही यहाँ भेजा है। हम लोग इन्हें पहचान न सकें, इसलिए इन्होंने चीर वस्त्र धारण कर लिए हैं।”
तब तक सुग्रीव के अन्य साथी वानर भी वहाँ पहुँच गए थे। वे सब सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए। सुग्रीव की बातों से सभी लोग आशंकित हो गए थे।
सबको इस प्रकार भयभीत देखकर सुग्रीव के बुद्धिमान साथी हनुमान जी आगे आए। वे बातचीत करने में बहुत कुशल थे। उन्होंने सबको समझाया, “आप सब लोग इस प्रकार मत घबराइए। इस श्रेष्ठ मलय पर्वत पर वाली का कोई भय नहीं है। इस पवित्र स्थान पर वह दुष्ट नहीं आ सकता।”
“आपका चित्त चंचल है, इसलिए आप अपने विचारों को स्थिर नहीं रख पाते हैं। दूसरों की गतिविधियों को देखकर अपनी बुद्धि और ज्ञान से उनके मनोभावों को समझें और उसी के अनुसार उचित कार्य करें। जो राजा बल और बुद्धि का उपयोग नहीं करता है, वह प्रजा पर शासन नहीं कर सकता।”
हनुमान जी की बात सुनकर सुग्रीव ने भी अपना तर्क दिया, “इन दोनों वीरों की भुजाएँ लंबी और नेत्र बड़े-बड़े हैं। ये धनुष, बाण और तलवार धारण किए हुए हैं। इन्हें देखकर कौन भयभीत नहीं होगा?”
“राजाओं पर विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके अनेक मित्र होते हैं। मुझे संदेह है कि इन दोनों को वाली ने ही छद्मवेश में भेजा है। छद्मवेश में विचरने वाले शत्रुओं को पहचानने का प्रयास करना विशेष रूप से आवश्यक है क्योंकि वे स्वयं किसी पर विश्वास नहीं करते, किन्तु दूसरों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर अवसर मिलते ही प्रहार कर देते हैं। वाली इन सब कार्यों में बड़ा कुशल है।”
“कपिश्रेष्ठ हनुमान! तुम भी एक साधारण पुरुष की भाँति यहाँ से जाओ और उन दोनों मनुष्यों की बातों से, हावभाव से और चेष्टाओं से उनका वास्तविक परिचय प्राप्त करो। तुम उनके मनोभावों को समझो। यदि वे प्रसन्नचित्त लगें, तो बार-बार मेरी प्रशंसा करके मेरे प्रति उनका विश्वास जगाओ।”
“तुम मेरी ही ओर मुँह करके खड़े होना और उन दोनों से इस वन में आने का कारण पूछना। यदि उनका मन शुद्ध लगे, तब भी तरह-तरह की बातों और हावभाव से यह जानने का प्रयास करना कि वे मन में कोई दुर्भावना छिपाकर तो नहीं आये हैं।”
सुग्रीव का यह आदेश सुनकर हनुमान जी तत्काल उस दिशा की ओर बढ़े, जहाँ श्रीराम और लक्ष्मण थे। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अपने वानर रूप में वहाँ जाऊँगा, तो वे दोनों मुझ पर विश्वास नहीं करेंगे। अतः अपने उस रूप को त्याग कर उन्होंने एक सामान्य तपस्वी का रूप धारण कर लिया।
उन दोनों वीरों के पास पहुँचकर हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम किया और अत्यंत मधुर वाणी में उनसे वार्तालाप करने लगे। सबसे पहले हनुमान जी ने उन दोनों को बहुत प्रशंसा की। उसके बाद उन्होंने आदर-पूर्वक दोनों से पूछा, “वीरों! आप दोनों अत्यंत प्रभावशाली और तपस्वी प्रतीत होते हैं। यह चीर वस्त्र आपके शरीर पर बहुत शोभा देता है। आप दोनों बड़े धैर्यवान लगते हैं। आपके कंधे सिंह के समान हैं और आपकी भुजाएँ विशाल हैं। आपके अंगों की कान्ति स्वर्ण के समान है। आप दोनों को देखकर ऐसा लगता है, मानो सूर्य और चन्द्रमा ही इस भूमि पर उतर आए हैं। आपके धनुष बड़े अद्भुत एवं स्वर्ण से विभूषित हैं। भयंकर बाणों से भरे हुए आपके ये तूणीर बड़े सुन्दर हैं। मैं आपका परिचय जानना चाहता हूँ। आप दोनों वीर कौन हैं? इस वन्य प्रदेश में आपका आगमन किस कारण हुआ है?”
“यहाँ सुग्रीव नामक एक श्रेष्ठ वानर रहते हैं। वे बड़े धर्मात्मा और वीर हैं। उनके भाई वाली ने उन्हें घर से निकाल दिया है, इससे दुःखी होकर वे मारे-मारे फिर रहे हैं। उन्होंने ही मुझे आपका परिचय जानने के लिए यहाँ भेजा है। वे आप दोनों से मित्रता करना चाहते हैं। मुझे आप उन्हीं का मंत्री समझें।”
“मेरा नाम हनुमान है। मैं भी वानर जाति का ही हूँ। मैं वायुदेवता का पुत्र हूँ। मेरी अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकता हूँ और कोई भी रूप धारण कर सकता हूँ। इस समय सुग्रीव का आदेश पूरा करने के लिए ही मैं अपने वास्तविक रूप को छिपाकर इस प्रकार भिक्षु के वेश में यहाँ आया हूँ। ”
हनुमान जी की ये बातें सुनकर श्रीराम को बड़ी प्रसन्नता हुई।
उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ये वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं। तुम इनसे मीठी वाणी में बात करो। अवश्य ही ये अत्यंत विद्वान हैं क्योंकि इतनी देर के संभाषण में इन्होंने एक भी शब्द का अशुद्ध उच्चारण नहीं किया है। बोलते समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह आदि किसी अंग से भी कोई दोष प्रकट नहीं हुआ है। इन्होंने बहुत संक्षेप में भी अपना अभिप्राय स्पष्ट रूप से बताया है और इनका उच्चारण भी पूर्णतः स्पष्ट है।”
“इन्होंने अवश्य ही ऋग्वेद की शिक्षा पाई है, यजुर्वेद का अभ्यास किया है और ये सामवेद के भी ज्ञाता हैं। इसके बिना कोई भी इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता। इन्होंने संपूर्ण व्याकरण का भी अनेक बार स्वाध्याय किया होगा। जिस राजा के पास ऐसा कुशल व बुद्धिमान दूत हो, उसके कार्यों की सफलता में तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता है।”
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)