Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण किष्किंधा काण्ड भाग 66
वे सब लोग किष्किन्धा के निकट पहुँचे और एक गहन वन में वृक्षों की आड़ में छिपकर खड़े हो गए। तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “अब तुम वाली को युद्ध के लिए ललकारो।”
तब सुग्रीव ने वाली को ललकारते हुए भयंकर गर्जना की। यह सुनकर वाली को बड़ा क्रोध आया और वह सुग्रीव से लड़ने के लिए घर से बाहर निकला।
दोनों भाइयों में भयंकर द्वंद्व युद्ध छिड़ गया। वे एक-दूसरे पर घूँसों और तमाचों से प्रहार करने लगे। उधर श्रीराम ने वाली का वध करने के लिए हाथ में धनुष उठाया, किन्तु वे निश्चय नहीं कर पाए कि उनमें से वाली कौन है और सुग्रीव कौन। अतः उन्होंने बाण नहीं छोड़ा।
तब तक लड़ाई में सुग्रीव के पाँव उखड़ गए थे। वह बहुत थक गया था और उसका सारा शरीर वाली के प्रहारों से जर्जर व लहूलुहान हो गया था। जब उसने देखा कि श्रीराम भी सहायता नहीं कर रहे हैं, तो युद्ध छोड़कर वह तेजी से ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागा और मतंगमुनि के वन में घुस गया क्योंकि उसे पता था कि वाली वहाँ नहीं आएगा। यह देखकर वाली भी वहाँ से वापस लौट गया।
जब लक्ष्मण और हनुमान जी के साथ श्रीराम वहाँ पहुँचे, तो सुग्रीव ने उन्हें देखकर अपना सिर लज्जा से झुका लिया। वह दीन वाणी में बोला, “रघुनन्दन! अपना पराक्रम दिखाकर आपने मुझे वाली से लड़ने के लिए उकसाया, किन्तु फिर आप स्वयं छिप गए और मुझे शत्रु से पिटवा दिया। बताइये, आपने ऐसा क्यों किया? यदि आप पहले ही सच-सच बता देते कि आप वाली को नहीं मारेंगे, तो मैं उससे लड़ने जाता ही नहीं!”
तब श्रीराम बोले, “मित्र सुग्रीव! क्रोध न करो। वेशभूषा, चाल-ढाल, स्वर, कान्ति, पराक्रम और बोलचाल में हर प्रकार से तुम दोनों भाई एक समान लगते हो। तुम दोनों में इतनी समानता देखकर मैं तुम्हें नहीं पहचान पाया, इसलिए मैंने अपना बाण नहीं छोड़ा कि कहीं भूलवश मेरे हाथों तुम ही न मारे जाओ। तुम कोई चिह्न धारण कर लो, ताकि वाली के सामने भी मैं तुम्हें पहचान सकूँ। उसके बाद पुनः युद्ध प्रारंभ करो। तब मैं वाली को अवश्य मार डालूँगा। इस बात में तुम कोई शंका न करो क्योंकि इस समय वन में हम लोग तुम्हारे ही आश्रित हैं।”
ऐसा कहकर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! यह गजपुष्पी लता उखाड़कर तुम सुग्रीव के गले में पहना दो।”
लक्ष्मण ने तुरंत ही उस आज्ञा का पालन किया। इसके बाद सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान आदि को साथ लेकर श्रीराम पुनः किष्किन्धा की ओर बढ़े। किष्किन्धा के निकट पहुँचकर पुनः वे लोग वृक्षों की ओट में छिपकर खड़े हो गए।
तब सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “प्रभु! इस बार आप वाली के वध की अपनी प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्ण कर दीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम बोले, “सुग्रीव! अब लक्ष्मण ने तुम्हें यह कण्ठहार पहना दिया है, अतः मैं तुम्हें पहचान सकता हूँ। अब तुम निश्चिंत रहो। एक ही बाण से मैं वाली का वध कर दूँगा। कितने ही संकट में होने पर भी मैं कभी झूठ नहीं बोलता हूँ। अतः तुम भय और घबराहट को अपने हृदय से निकाल दो और आगे बढ़कर वाली को युद्ध के लिए ललकारो। अपने पराक्रम को जानने वाले वीर पुरुष, विशेषतः स्त्रियों के सामने किसी शत्रु द्वारा तिरस्कार किए जाने पर उसे कभी सहन नहीं करते हैं। इसलिए वाली अवश्य ही तुमसे युद्ध करने आएगा।”
यह सुनकर सुग्रीव ने वाली को ललकारते हुए कठोर स्वर में भीषण गर्जना की। अपने अंतःपुर में वाली को वह सुनाई पड़ी। सुग्रीव का स्वर सुनते ही उसका सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। गुस्से में पैर पटकता हुआ वह युद्ध के लिए बाहर की ओर बढ़ा।
यह देखते ही वाली की पत्नी तारा भयभीत हो गई। अपनी दोनों भुजाओं से पकड़कर उसे रोकने का प्रयास करती हुई वह बोली, “वीर! मेरी बात मानिये और क्रोध को त्याग दीजिए। इस समय युद्ध के लिए आपका घर से निकलना मुझे उचित नहीं लग रहा है। आप सुग्रीव से प्रातःकाल युद्ध कीजिएगा।”
“मैं आपको रोकने का एक विशेष कारण भी बताती हूँ। सुग्रीव ने पहले भी आपको युद्ध के लिए ललकारा था और आपसे मार खाकर वह भयभीत होकर भागा। इस प्रकार पीड़ित और पराजित होने पर भी वह पुनः यहाँ आकर आपको ललकार रहा है। उसके पुनरागमन से मेरे मन में शंका उत्पन्न हो रही है। इस समय उसकी वाणी में जैसा दर्प सुनाई पड़ रहा है, उससे लगता है कि वह अपने साथ किसी प्रबल सहायक को लेकर आया है और उसी के बल पर वह इस प्रकार गरज रहा है।”
“कुछ दिनों पहले गुप्तचरों ने वन में अंगद को बताया था कि अयोध्या के दो शूर-वीर राजकुमार राम और लक्ष्मण इन दिनों वन में आए हुए हैं। वे बड़े पराक्रमी हैं तथा उन्हें युद्ध में जीतना अत्यंत कठिन है। सुग्रीव बहुत कार्यकुशल और बुद्धिमान है। उसने अवश्य ही उनका बल और पराक्रम देखा होगा व उनसे मित्रता कर ली होगी।”
“ऐसे में यही अच्छा होगा कि आप वैर को त्याग दें। सुग्रीव से युद्ध न करें। आप उसे युवराज पद दे दीजिए और राम से मित्रता कर लीजिए। इस समय भाई से सुलह कर लेना ही आपके लिए हितकर है क्योंकि राम से वैर करना उचित नहीं है।”
तारा की वह बात वाली को अच्छी नहीं लगी। उसके विनाश का समय निकट आ चुका था। उसने तारा को फटकारते हुए कहा, “वरानने! भले ही सुग्रीव मेरा भाई हो, किन्तु अब वह मेरा शत्रु ही है। उसकी उद्दंडता को मैं क्यों सहन करूँ? मैं कभी युद्ध में परास्त नहीं हुआ और न कभी पीठ दिखाकर भागा हूँ, अतः शत्रु की ऐसी ललकार को चुपचाप सह लेना मेरे लिए मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है। उस सुग्रीव का सामना करने में मैं समर्थ हूँ, अतः तुम निश्चिन्त रहो।”
“श्रीराम के बारे में सोचकर भी तुम विषाद न करो। वे धर्मज्ञ हैं और उचित-अनुचित कर्तव्य को भली-भाँति समझते हैं। वे कोई अनुचित कृत्य नहीं करेंगे। युद्ध में मेरे मुक्कों की मार से पीड़ित होकर सुग्रीव पुनः भाग जाएगा। अब तुम इन स्त्रियों के साथ वापस लौट जाओ। तुम्हें मेरी सौगंध है। मैं भी युद्ध में सुग्रीव को हराकर शीघ्र ही वापस लौट आऊँगा।”
दुःखी तारा ने यह सुनकर वाली का आलिंगन किया और फिर रोते-रोते ही उसकी परिक्रमा की। इसके पश्चात उसने वाली की मंगल-कामना से स्वस्तिवाचन किया। फिर अत्यंत दुःखी मन से वह अन्य स्त्रियों को साथ अन्तःपुर को लौट गई।
उनके जाने पर वाली भी क्रोध से भरा हुआ नगर से बाहर निकला और अपने शत्रु को देखने के लिए उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा…

Related Articles

Leave a Comment