Home नया वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 98
वह नाद सुनकर रावण ने कुछ सोच-विचार करके अपने मंत्रियों की ओर देखा। किसी का नाम लिए बिना उसने व्यंग्य करते हुए कहा, “आप लोगों ने राम के बल-पराक्रम की जो बातें बताई हैं, वे सब मैंने सुन ली हैं। यद्यपि इस समय आप सब चुपचाप एक-दूसरे का मुँह ताक रहे हैं, किन्तु मैं तो आप लोगों को पराक्रमी वीर ही समझता हूँ।”
इस पर रावण के नाना माल्यवान राक्षस ने उत्तर दिया, “राजन्! जो राजा चौदहों विद्याओं में सुशिक्षित तथा नीति का अनुसरण करने वाला होता है, वह दीर्घकाल तक शासन करता है। जो समय के अनुसार शत्रुओं से संधि एवं विग्रह करता है तथा अपने पक्ष की वृद्धि में लगा रहता है, वह महान ऐश्वर्य प्राप्त करता है। अपने समान अथवा अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। तुम सीता को लौटाकर श्रीराम की सेना का यह आक्रमण टाल दो और उनसे संधि कर लो।”
“अपने अहंकार में तुमने दिग्विजय के लिए सब लोकों का भ्रमण करते हुए धर्म का नाश किया है और अधर्म को गले लगाया है। इसी कारण सब हमारे शत्रु हो गए हैं और वे अब हमसे प्रबल हैं। तुम्हारे मनमाने आचरण से ऋषि-मुनि भी क्रोधित हैं। उनके वेदमंत्रों की ध्वनि के विस्तार से राक्षस संपूर्ण दिशाओं को छोड़कर भाग रहे हैं क्योंकि ऋषियों के अग्निहोत्र से निकला धुआँ दसों दिशाओं में व्याप्त होकर राक्षसों के तेज को हर लेता है।”
“तुमने देवताओं, दानवों और यक्षों से अवध्य होने का वरदान पाया है, किन्तु यहाँ तो मनुष्य, वानर, रीछ और लंगूर आकर गरज रहे हैं। वे सब बहुत बलवान और सैन्य-शक्ति से संपन्न तथा सुदृढ़ पराक्रमी भी हैं। देवता, ऋषि और गन्धर्व सब श्रीराम की ही विजय चाहते हैं, उन सबसे विरोध मोल लेना उचित नहीं है।”
“राक्षसों के विनाश का संकेत देने वाले अनेक अपशकुन भी मुझे इन दिनों दिखाई दे रहे हैं। भयंकर गर्जना के साथ मेघ गर्म रक्त की वर्षा कर रहे हैं। घोड़े-हाथी आदि रो रहे हैं; चारों ओर धूल की आँधी चल रही है; मांसभक्षी हिंसक पशु, गीदड़ और गीध आदि भयंकर बोली बोलते हैं तथा लंका के उद्यानों में झुण्ड बनाकर बैठ जाते हैं; सपने में काले रंग की स्त्रियाँ अपने पीले दाँत दिखाई हुई जोर-जोर से हँसती हैं और घरों में घुसकर सामान चुरा लेती हैं; घरों में बलि के लिए रखी जाने वाली सामग्री को कुत्ते खा जाते हैं; गायों से गधे व नेवलों से चूहे जन्म ले रहे हैं; बाघों के साथ बिल्लियाँ, कुत्तों के साथ सूअर तथा राक्षसों व मनुष्य के साथ किन्नर समागम करते हैं; लाल पंजों वाले सफेद कबूतर चिल्लाते हुए सब-ओर विचरते हैं; घरों में रहने वाली सारिकाएँ (मैना) अन्य पक्षियों से लड़ती हैं और पराजित होकर भूमि पर गिर जाती हैं; पक्षी और मृग सभी सूर्य की ओर मुँह करके रोते हैं। ऐसे अनेक अपशकुन मुझे दिखाई देते हैं।”
“रावण! इस प्रकार सेतु बाँधकर समुद्र को लाँघ जाना कोई साधारण बात नहीं है। मैं तो समझता हूँ कि साक्षात् भगवान विष्णु ही मानव का रूप धारण करके श्रीराम बनकर आए हैं। इसलिए तुम उनसे संधि कर लो और लंका को तथा समस्त राक्षसों को विनाश से बचा लो।”
इतना कहकर माल्यवान चुप हो गया।
दुष्टात्मा रावण की बुद्धि पर इतना अहंकार छाया हुआ था कि अनुभवी माल्यवान की हितकर बातों का भी उस पर उल्टा ही प्रभाव पड़ा। क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गईं। उसने भौहें टेढ़ी करके माल्यवान को घूरते हुए कहा, “तुमने शत्रु का पक्ष लेकर मेरे अहित की बात कही है। मुझे तो आशंका है कि तुम मेरी वीरता के कारण मुझसे ईर्ष्या रखते हो अथवा शत्रु से मिल गए हो।”
“वह राम एक मानव ही तो है, जिसे उसे पिता ने ही त्याग दिया। तब उसने वन की शरण ली और अब उसने कुछ बंदरों का सहारा लिया है। उसमें ऐसी कौन-सी विशेषता है कि तुम उसे बड़ा सामर्थ्यशाली मान रहे हो? केवल भाग्यवश उसने समुद्र पर सेतु बाँध लिया, तो इसमें विस्मय की ऐसी कौन-सी बात है, जिससे तुम इतने भयभीत हो रहे हो? मैं राक्षसों का स्वामी हूँ तथा सभी प्रकार से संपन्न हूँ। देवता भी मेरे नाम से काँपते हैं। उन राम-लक्ष्मण को तो मैं कुछ भी दिनों में मार डालूँगा।”
रावण की ये बातें सुनकर माल्यवान ने कुछ और कहना उचित नहीं समझा। इसलिए ‘महाराज की जय हो’ कहकर उसने रावण की आज्ञा ली और अपने घर चला गया।
उसके जाने पर रावण ने अपने मन्त्रियों से विचार-विमर्श करके लंका की रक्षा का प्रबन्ध किया। पूर्वी द्वार पर उसने राक्षस प्रहस्त को नियुक्त किया, दक्षिणी द्वार की रक्षा का दायित्व महापार्श्व एवं महोदर को सौंपा तथा पश्चिमी द्वार अपने मायावी पुत्र इन्द्रजीत को भेजा। नगर के बीच में स्थित सैन्य-छावनी की रक्षा के लिए उसने विरुपाक्ष को नियुक्त किया। शुक और सारण को उत्तरी द्वार की रक्षा के लिए जाने की आज्ञा देकर उसने कहा, “‘मैं स्वयं भी उत्तरी द्वार पर जाऊँगा।”
इस प्रकार लंका की रक्षा की व्यवस्था करके वह अपने अन्तःपुर में चला गया।
उधर श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान जी, जाम्बवान, विभीषण, अंगद आदि भी आपस में विचार-विमर्श करने लगे। विभीषण ने श्रीराम से कहा, “मेरे चारों मन्त्री अनल, पनस, सम्पाति और प्रमति लंका में जाकर वापस लौट आए हैं। ये सब लोग पक्षी का रूप धारण करके शत्रु की सेना में गए थे और वहाँ की पूरी व्यवस्था अपनी आँखों से देखकर यहाँ लौटे हैं। नगर के पूर्वी द्वार पर प्रहस्त खड़ा है, महापार्श्व तथा महोदर दक्षिणी द्वार पर हैं, पश्चिमी द्वार पर इन्द्रजीत है तथा शुक, सारण आदि अनेक शस्त्रधारी राक्षसों के साथ रावण स्वयं उत्तरी द्वार पर खड़ा है। वह मन ही मन अत्यंत उद्विग्न लग रहा है। नगर के बीच वाली छावनी की रक्षा में विरुपाक्ष नियुक्त है। रावण की सेना में दस हजार हाथी, दस हजार रथ, बीस हजार घोड़े और एक करोड़ से अधिक सैनिक हैं। वे सभी बड़े वीर, पराक्रमी और आततायी हैं। इसलिए आप भी वानर सेना का व्यूह बनाकर ही रावण का विनाश कर सकेंगे।”
यह सुनकर श्रीराम बोले, “कपिश्रेष्ठ नील पूर्वी द्वार पर जाकर प्रहस्त का सामना करें, वालीकुमार अंगद दक्षिणी द्वारा पर महापार्श्व और महोदर से युद्ध करें, पवनपुत्र हनुमान पश्चिमी द्वार पर जाएँ तथा रावण का वध करने के लिए लक्ष्मण के साथ मैं स्वयं उत्तरी द्वार पर आक्रमण करूँगा। वानराज सुग्रीव, रीछों के राजा जाम्बवान तथा महाराज विभीषण नगर के बीच वाले मोर्चे पर आक्रमण करें। वानर इस युद्ध में मनुष्यों का रूप धारण न करें। वानर सेना की पहचान के लिए यही हमारा संकेत चिह्न होगा। केवल हम सात लोग अर्थात विभीषण, उनके चार मन्त्री, लक्ष्मण तथा मैं ही मनुष्य रूप में रहेंगे।”
इस प्रकार आक्रमण की पूरी योजना का निर्देश देकर श्रीराम ने आगे कहा, “मित्रों! हम सब लोग अब इस सुवैल पर्वत पर चढ़कर वहाँ से लंका का अवलोकन करेंगे और आज की रात यहीं निवास करेंगे।”
तद्नुसार श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण, हनुमान जी, अंगद, नल, नील आदि सहित सैकड़ों वानर कुछ ही देर में सुवैल पर्वत पर चढ़ गए और वहाँ से लंका का निरीक्षण करने लगे। त्रिकूट पर्वत के बहुत ऊँचे शिखर पर लंकापुरी बसी हुई थी। वह नगरी दस योजन चौड़ी व बीस योजन लंबी थी। ऊँचे-ऊँचे गोपुर और चाँदी के परकोटे उसकी शोभा बढ़ाते थे।
नगर के एक गोपुर की छत पर उन लोगों को निशाचर रावण बैठा हुआ दिखाई दिया। उसके सिर पर छत्र सजा हुआ था और दोनों ओर श्वेत चँवर डुलाए जा रहे थे। रावण का शरीर काले मेघ के समान काला था। उसके सारे शरीर पर रक्त चन्दन लगा हुआ था और उसने लाल रंग के आभूषण पहने हुए थे। उसके वस्त्र भी खरगोश के रक्त जैसे लाल रंग के थे और उन पर सोने का काम किया हुआ था। ऐरावत हाथी के दाँतों से आहत होने के कारण उसके सीने में एक घाव का चिह्न दिखाई दे रहा था।
रावण पर दृष्टि पड़ते ही सुग्रीव सहसा क्रोध से उठकर खड़ा हो गया और अचानक ही उसने उस गोपुर की छत पर छलांग लगा दी। रावण के सामने जाकर सुग्रीव ने कठोर वाणी में कहा, “राक्षस! मैं श्रीराम का सखा और दास हूँ। आज तू मेरे हाथ से बच नहीं सकेगा।”
ऐसा कहकर सुग्रीव झपटकर रावण पर कूद पड़ा और उसके मुकुट को खींचकर पृथ्वी पर गिरा दिया। तब रावण ने भी क्रोधित होकर सुग्रीव को पकड़ लिया और दोनों हाथों से उठाकर उसे फर्श पर पटक दिया। फिर सुग्रीव ने भी गेंद की तरह उछलकर रावण को उठा लिया और उसी फर्श पर जोर से पटका। अब वे दोनों आपस में गुँथ गए और लात, घूँसे, थप्पड़, कोहनी व पंजों की मार से एक-दूसरे को आहत करने लगे। लड़ते-लड़ते दोनों पसीने से तरबतर व लहूलुहान हो गए। इस प्रकार बहुत देर तक उनका मल्ल-युद्ध चलता रहा। उसी बीच रावण ने माया के प्रयोग का विचार किया। इसका अनुमान होते ही सुग्रीव ने सहसा आकाश में छलाँग लगा दी और रावण को चकमा देकर वानर सेना में वापस लौट आया।
सुग्रीव को देखते ही श्रीराम ने उसे गले लगाकर कहा, “सुग्रीव! मुझसे सलाह लिए बिना ही तुमने इतना बड़ा साहस कर डाला। राजा लोग ऐसे दुःसाहस नहीं किया करते हैं। तुम्हारे इस कृत्य से हम सबको बड़ा कष्ट हुआ है। अब तुम फिर कभी ऐसा दुःसाहस मत करना।”
फिर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! अब हम लोगों को इस विशाल वानर सेना की व्यूह रचना करके युद्ध के लिए उद्यत हो जाना चाहिए। मुझे भयंकर अपशकुन दिखाई दे रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि रीछों, वानरों व राक्षसों के अनेक मुख्य वीरों का संहार होगा।”
“प्रचण्ड आँधी चल रही है, पृथ्वी काँपने लगी है, पर्वत-शिखर हिल रहे हैं, मेघ हिंसक जीवों के समान कठोर स्वर में गर्जना कर रहे हैं। रक्त से मिले हुए जल की वर्षा हो रही है। निषिद्ध पशु-पक्षी सूर्य की ओर देखते हुए दीनतापूर्वक चीत्कार करते हैं, जिससे महान भय उत्पन्न हो रहा है। रात्रि में चन्द्रमा का प्रकाश क्षीण हो जाता है तथा अपने शीतल स्वभाव के विपरीत वह तप रहा है। उसके किनारे का भाग काला व लाल दिखाई देता है। सूर्यमंडल में भी छोटा, रुखा, अमंगलकारी लाल घेरा व काला चिह्न दिखाई पड़ता है। ये नक्षत्र भी मलिन दिखाई दे रहे हैं। कौए, बाज और गीध बार-बार भूमि पर आ बैठते हैं, गीदड़ियाँ बड़े जोर से अमंगलसूचक बोली बोलती हैं।”
“इन सब लक्षणों से यह सूचित होता है कि वानरों व राक्षसों द्वारा एक-दूसरे पर चलाए गए शिलाखण्डों, शूलों तथा खड्गों से यह धरती पट जाएगी और यहाँ रक्त-माँस का कीचड़ बन जाएगा। अब हम सबको चारों ओर से लंका पर आक्रमण कर देना चाहिए।”
ऐसा कहकर श्रीराम उस पर्वत से नीचे उतर आए व उन्होंने अपनी वानर सेना का निरीक्षण किया। इसके पश्चात सेना को व्यूह में सुसज्जित करके श्रीराम ने ज्योतिष शास्त्र के अनुसार गणना की और एक शुभ मुहूर्त में अपनी सेना के साथ लंका पर आक्रमण के लिए प्रस्थान किया।
धर्नुधारी श्रीराम उस विशाल सेना के आगे चल रहे थे। लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण, हनुमान जी आदि सब उनके पीछे चल पड़े। वानर-सेना के सैकड़ों वानरों ने अपने हाथों में बड़ी-बड़ी चट्टानें और वृक्ष उठा रखे थे।
कुछ ही देर में वे सब लोग लंका के पास पहुँच गए और परकोटे के निकट पहुँचकर उन्होंने लंका नगरी को चारों ओर से घेर लिया।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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