Home विषयमुद्दा अर्जुन को तो सिर्फ एक द्रौपदी जीतनी थी

अर्जुन को तो सिर्फ एक द्रौपदी जीतनी थी

580 views

अर्जुन को तो सिर्फ एक द्रौपदी जीतनी थी पर लोक कवि को हरदम कोई न कोई द्रौपदी जीतनी होती। यश की द्रौपदी, धन की द्रौपदी और सम्मान की द्रौपदी तो उन्हें चाहिए ही चाहिए थी। इन दिनों वह राजनीति की द्रौपदी के बीज भी मन में बो बैठे थे। लेकिन यह बीज अभी उनके मन की धरती में ही दफन था। ठीक वैसे ही जैसे उनकी कला की द्रौपदी उनके बाजारी दबाव में दफन थी। इतनी कि कई बार उनके प्रशंसक और शुभचिंतक भी दबी जबान सही, कहते जरूर थे कि लोक कवि अगर बाजार के रंग में इतने न रंगे होते, बाजार के दबाव में इतना न दबे होते और आर्केस्ट्रा कंपनी वाले शार्ट कट की जगह अपनी बिरहा पार्टी को ही तरजीह दिए होते तो तय तौर पर राष्ट्रीय स्तर के कलाकार होते। नहीं तो कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्ला खां, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार तो वह होते ही होते। इससे कम पर तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता था। सच यही था कि बिरहा में लोक कवि का आज भी कोई जवाब नहीं था। उनकी मिसरी जैसी मीठी आवाज का जादू आज भी ढेर सारी असंगतियों और विसंगतियों के बावजूद सिर चढ़ कर बोलता था। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि कोई और लोक गायक बाजार में उनके मुकाबले में दूर-दूर तक नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि लोक कवि से अच्छा बिरहा या लोक गीत वाले और नहीं थे। और लोक कवि से बहुत अच्छा गाने वाले लोग भी दो-चार ही सही थे। पर वह लोग बाजार तो दूर बाजार की बिसात भी नहीं जानते थे। लोक कवि भी इस बात को स्वीकार करते थे। वह कहते भी थे कि ‘पर ऊ लोग मार्केट से आउट हैं।’ लोक कवि इसी का फायदा क्या उठाते थे बल्कि भरपूर दुरुपयोग करते थे। दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर कहीं उनकी बहार थी। पैसा जैसे उनको बुलाता रहता था। जाने यह पैसे का ही प्रताप था कि क्या था पर अब गाना उनसे बिसर रहा था। कार्यक्रमों में उनके साथी कलाकार हालांकि उन्हीं के लिखे गाए गाने गाते थे पर लोक कवि जाने क्यों बीच-बीच में दो-चार गाने गा देते। ऐसे जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। धीरे-धीरे लोक कवि की भूमिका बदलती जा रही थी। वह गायकी की राह छोड़ कर आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन कम मैनेजर की भूमिका ओढ़ रहे थे। बहुत पहले लोक कवि के कार्यक्रमों के पुराने उदघोषक दुबे जी ने उन्हें आगाह भी किया था कि, ‘ऐसे तो आप एक दिन आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बन कर रह जाएंगे।’ पर लोक कवि तब दुबे जी की यह बात माने नहीं थे। दुबे जी ने जो ख़तरा बरसों पहले भांप लिया था उसी ख़तरे का भंवर लोक कवि को अब लील रहा था। लेकिन बीच-बीच के विदेशी दौरे, कार्यक्रमों की अफरा तफरी लोक कवि की नजरों को इस कदर ढके हुए थी कि वह इस ख़तरनाक भंवर से उबरना तो दूर इस भंवर को वह देख भी नहीं पा रहे थे। पहचान भी नहीं पा रहे थे। लेकिन यह भंवर लोक कवि को लील रहा है, यह उनके पुराने संगी साथी देख रहे थे। लेकिन टीम से ‘बाहर’ हो जाने के डर से वह सब लोक कवि से कुछ कहते नहीं थे। पीठ पीछे बुदबुदा कर रहे जाते।
और लोक कवि?
लोक कवि इन दिनों किसिम-किसिम की लड़कियों की छांट बीन में रहते। पहले सिर्फ उनके गाने डबल मीनिंग की डगर थामे थे, अब उनके कार्यक्रमों में भी डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो शायरी और कामुक नृत्यों की बहार थी। कैसेटों में वह गाने पर कम लड़कियों की सेक्सी आवाज भरने के लिए ज्यादा मेहनत करते थे। कोई टोकता तो वह कहते, ‘इससे सेल बढ़ जाती है।’ लोक कवि कोरियोग्राफर नहीं थे, शायद इस शब्द को भी नहीं जानते थे। लेकिन किस बोल की किस लाइन पर कितना कूल्हा मटकाना है, कितना ब्रेस्ट और कितनी आंखें, अब वह यह ‘गुन’ भी लड़कियों को रिहर्सल करवा-करवा कर सिखाते क्या घुट्टा पिलाते थे। और बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़-पकड़ कर। गानों में भी वह लड़कियों से गायकी के आरोह-अवरोह से ज्यादा आवाज को कितना सेक्सी बना सकती थीं, कितना शोख़ी में इतरा सकती थीं, इस पर जोर मारते थे। ताकि लोग मर मिटें। उनके गानों के बोल भी अब ज्यादा ‘खुल’ गए थे। ‘अंखिया बता रही हैं, लूटी कहीं गई है’ तक तो गनीमत थी लेकिन वह तो और आगे बढ़ जाते, ‘लाली बता रही है, चूसी कहीं गई है’ से लेकर ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है’ तक पहुंच जाते थे। इस डबल मीनिंग बोल की इंतिहा यहीं नहीं थी। एक बार होली पहली तारीख़ को पड़ी तो लोक कवि इसका भी ब्यौरा एक युगल गीत में परोस बैठे, ‘पहली को ‘पे’ लूंगा फिर दूसरी को होली खेलूंगा।’ फिर सिसकारी भर-भर गाए इस गाने का कैसेट भी उनका खूब बिका।
अच्छा गाना गाने वाली एकाध लड़कियां ऐसा गाना गाने से बचने के फेर में पड़तीं तो लोक कवि उसे अपनी टीम से ‘आउट’ कर देते। कोई लड़की ज्यादा कामुक नृत्य करने में इफ बट करती तो वह भी ‘आउट’ हो जाती। यह सब जो लड़की कर ले और लोक कवि के साथ शराब पी कर बिस्तर में भी हो ले तो वह लड़की उनके टीम की कलाकार नहीं तो बेकार और आउट! एक बार एक लड़की जो कामुक डांस बहुत ढंग से करती थी, पी कर बहक गई। लोक कवि के साथ बेडरूम में गई और साथ में लोक कवि के बगल में जब एक और लड़की कपड़े उतार कर लेट गई तो वह उचक कर खड़ी हो गई। निर्वस्त्रा ही। चिल्लाने लगी, ‘गुरु जी यहां या तो यह रहेगी या मैं।’
‘तुम दोनों रहोगी!’ लोक कवि भी टुन्न थे पर पुचकार कर बोले।
‘नहीं गुरु जी!’ वह अपने खुले बाल और निर्वस्त्रा देह पर कपड़े बांधती हुई बोली।
‘तुम तो जानती हो एक लड़की से मेरा काम नहीं चलता!’
‘नहीं गुरु जी, मैं इस के साथ यहां नहीं सोऊंगी। आप तय कर लीजिए कि यहां यह रहेगी कि मैं।’
‘इसके पहले तो तुम्हें ऐतराज नहीं था।’ लोक कवि ने उसका मनुहार करते हुए कहा।
‘पर आज ऐतराज है।’ वह चीख़ी।
‘लगता है तुमने जादा पी ली है।’ लोक कवि थोड़ा कर्कश हुए।
‘पिलाई तो आप ही ने गुरु जी!’ वह इतराई।
‘बहको नहीं आ जाओ!’ गुस्सा पीते हुए लोक कवि ने उसे फिर पुचकारा। और लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए।
‘कह दिया कि नहीं!’ वह कपड़े पनहते हुए चीख़ी।
‘तो भाग जाओ यहां से।’ लोक कवि धीरे से बुदबुदाए।
‘पहले इसको भगाइए!’ वह चहकी, ‘आज मैं अकेली रहूंगी।’
‘नहीं यहां से अब तुम जाओ।’
‘नीचे बड़ी भीड़ है गुरु जी।’ वह बोली, ‘फिर सब समझेंगे कि गुरु जी ने भगा दिया।’
‘भगा नहीं रहा हूं।’ लोक कवि अपने को कंट्रोल करते हुए बोले, ‘नीचे जाओ और रुखसाना को भेज दो!’
‘मैं नहीं जाऊंगी।’ वह फिर इठलाई। लेकिन लोक कवि उसके इस इठलाने पर पिघले नहीं। उलटे उबल पड़े, ‘भाग यहां से ! तभी से किच्च-पिच्च, भिन्न-भिन्न किए जा रही है। सारी दारू उतार दी।’ वह अब पूरे सुर में थे, ‘भागती है कि भगाऊं!’
‘जाने दीजिए गुरु जी !’ लोक कवि के बगश्ल में लेटी दूसरी लड़की जो निर्वस्त्रा तो थी पर चादर ओढ़े हुए बोली, ‘इतनी रात में कहां जाएगी, और फिर मैं ही जाती हूं रुखसाना को बुला लाती हूं।’
‘बड़ी हमदर्द हो इसकी?’ लोक कवि ने उसको तरेरते हुए कहा, ‘जाओ दोनों जाओ यहां से, और तुरंत जाओ।’ लोक कवि भन्नाते हुए बोले। तब तक पहले वाली लड़की समझ गई कि गड़बड़ ज्यादा हो गई है। सो गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ी। बोली, ‘माफ कर दीजिए गुरु जी।’ उसने थोड़ा रुआंसी होने का अभिनय किया और बोली, ‘सचमुच चढ़ गई थी गुरु जी! माफ कर दीजिए!’
‘तो अब उतर गई?’ लोक कवि सारा मलाल धो पोंछ कर बोले।
‘हां गुरु जी!’ लड़की बोली।
‘लेकिन मेरी भी दारू तो उतर गई!’ लोक कवि सहज होते हुए दूसरी लड़की से बोले, ‘चल उठ!’ तो वह लड़की जरा सकपकाई कि कहीं बाहर भागने का उसका नंबर तो नहीं आ गया। लेकिन तभी लोक कवि ने उसकी शंका धो दी। बोले, ‘अरे हऊ शराब का बोतल उठा।’ फिर दूसरी लड़की की तरफ देखा और बोले, ‘गिलास पानी लाओ।’ वह जरा मुसकुराए, ‘एक-एक, दो-दो पेग तुम लोग भी ले लो। नहीं काम कैसे चलेगा?’
‘हम तो नहीं लेंगे गुरु जी।’ वह लड़की पानी और गिलास बेड के पास रखी मेज पर रख कर सरकाती हुई बोली।
‘चलो आधा पेग ही ले लो।’ लोक कवि आंख मारते हुए बोले तो लड़की मान गई।
लोक कवि ने खटाखट दो पेग लिए और टुन्न होते कि उसके पहले ही आधा पेग पीने वाली लड़की को अपनी ओर खींच लिया। चूमा चाटा, और उसके सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और बोले, ‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी।’ कह कर उसे अपनी बांहों में भर लिया।
लोक कवि के साथ यह और ऐसी घटनाएं आए दिन की बात थी। बदलती थीं तो सिर्फ लड़कियां और जगह। कार्यक्रम चाहे जिस भी शहर में हो लोक कवि के साथ अकसर यह सब बिलकुल ऐसे-ऐसे ही न सही इस या उस तरह से ही सही पर ऐसा कुछ घट जरूर जाता था। अकसर तो कोई न कोई डांसर उनके साथ बतौर ‘पटरानी’ होती ही थी और यह पटरानी हफ्ते भर की भी हो सकती थी, एक दिन या एक घंटे की भी। महीना, छः महीना या साल दो साल की भी अवधि वाली एकाध डांसर या गायिका बतौर ‘पटरानी’ का दर्जा पाए उन की टीम में रहीं। और उनके लिए लोक कवि भी सर्वस्व तो नहीं लेकिन बहुत कुछ लुटा देते थे।
बात बेबात !
बीच कार्यक्रम में ही वह ग्रीन रूम में लड़कियों को शराब पिलाना शुरू कर देते थे। कोई नई लड़की आनाकानी करती तो उसे डपटते, ‘शराब नहीं पियोगी तो कलाकार कैसे बनोगी?’ वह उकसाते हुए पुचकारते, ‘चलो थोड़ी सी चख लो!’ फिर वह स्टेज पर से कार्यक्रम पेश कर लौटती लड़कियों को लिपटा चिपटा कर आशीर्वाद देते। किसी लड़की से बहुत खुश होने पर उसकी हिप या ब्रेस्ट दबा, खोदिया देते। वह कई बार स्टेज पर भी यह आशीर्वाद कार्यक्रम चला देते। और फिर कई बार बीच कार्यक्रम में ही वह किसी ‘चेला’ टाइप व्यक्ति को बुला कर बता देते थे कि कौन-कौन लड़की ऊपर सोएगी। कई-कई बार वह दो के बजाय तीन-तीन लड़कियों को ऊपर सोने का शेड्यूल बता देते। महीना पंद्रह दिन में वह खुद भी आदिम रूप में आ जाते और संभोग सुख लूटते। लेकिन अकसर उनसे यह संभव नहीं बन पाता था।
कभी कभार तो अजब हो जाता। क्या था कि लोक कवि की टीम में कभी कदा डांसर लड़कियों की संख्या टीम में ज्यादा हो जाती और उनके मुकाबले युवा कलाकारों या संगतकर्ताओं की संख्या कम हो जाती। बाकी पुरुष संगतकर्ता या गायक अधेड़ या वृद्ध होते जिनकी दिलचस्पी गाने बजाने और हद से हद शराब तक होती।
बाकी सेक्स गेम्स में न तो वह अपने को लायक पाते न ही लोक कवि की तरह उनकी दिलचस्पी रहती। और एक-दो युवा कलाकार आखि़र कितनों की आग शांत करते भला? एक-दो में ही वह त्रस्त हो जाते। लेकिन लोक कवि के आर्केस्ट्रा टीम की लड़कियां इतनी बिगड़ चुकी थीं कि गाने बजाने और मयकशी के बाद देह की भूख उन्हें पागल बना देती। वह आधी रात झूमती-बहकती बेधड़क टीम के किसी भी पुरुष से ‘याचना’ कर बैठतीं। और बात जो नहीं बनती तो होटल के कमरे में मचलती वह बेकल हो जातीं और जैसे फरियाद कर बैठतीं, ‘तो कहीं से कोई मर्द बुला दो!’ इस कहने में कुछ शराब, कुछ माहौल, कुछ बिगड़ी आदतें तो कुछ देह की भूख सभी की खुमारी मिली जुली होती। और ऐसी बातें, सूचनाएं लोक कवि तक लगभग नहीं पहुंचतीं। ज्यादातर टीम के लोग ही खुसुर-फुसुर करते रहते। छन-छन कर बिखरी-बिखरी बातें कभी कभार लोक कवि तक पहुंचतीं तो वह उबल पड़ते। और ‘संबंधित’ लड़की को फौरन टीम से ‘आउट’ कर देते। बड़ी निर्ममता से।
बावजूद इस सबके लोक कवि की टीम में एंट्री पाने के लिए लड़कियों की लाइन लगी रहती। कई बार ठीक-ठाक पढ़ी लिखी लड़कियां भी इस लाइन में होतीं। गाने की शौकीन कुछ अफसरों की बीवियां भी लोक गायक के साथ गाने को न सिर्फ उत्सुक दीखतीं, बल्कि लोक कवि के गैराज में मय सिफारिश के पहुंच जातीं। लेकिन लोक कवि बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ लेते। कहते, ‘मैं हूं अनपढ़ गंवार गवैया। गांव-गांव, शहर-शहर घूमता रहता हूं, नाचता गाता हूं। होटल मिल जाए, धर्मशाला मिल जाए, स्कूल, स्टेशन कहीं भी जगह मिल जाए सो लेता हूं। कहीं न जगह मिले तो मोटर या जीप में भी सो लेता हूं।’ वह फिर हाथ जोड़ते कहते, ‘आप लोग हाई-फाई हैं, आपकी व्यवस्था हम नहीं कर पाऊंगा। माफ कीजिए।’
तो लोक कवि अपनी आर्केस्ट्र टीम में अमूमन हाई-फाई किस्म की लड़कियों, औरतों को एंट्री नहीं देते थे। आम तौर पर निम्न मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग की ही लड़कियों को वह अपनी टीम में एंट्री देते और बाद में उन्हें ‘हाई-फाई’ बता बनवा देते। पहले वह जैसे अपने पुराने उदघोषक दुबे जी के परिचय में उन की डी.एसपी. पत्नी और आई.ए.एस. बेटे का बख़ान जरूर करते थे, ठीक वैसे ही वह अब स्टेज पर पढ़ी लिखी लड़कियों का परिचय फला यूनिवर्सिटी से एम.ए. कर रही हैं या बी.ए. पास हैं, या फिर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी.एस.सी. वगैरह जुमले लगा कर करने लगे। लेकिन इस फेर में कुछ कम पढ़ी लिखी लड़कियों का ‘मनोबल’ गिरने लगता। तो जल्दी ही इसकी दवा भी लोक कवि ने खोज ली।
लड़की चाहे कम पढ़ी लिखी हो चाहे ज्यादा, किसी भी लड़की को वह ग्रेजुएट से कम स्टेज पर नहीं बताते और यह सब वह सायास लेकिन अनायास अर्थ में पेश करते। बाद में वह ज्यादातर लड़कियों को किसी न किसी जगह पढ़ता बता देते। बताते कि ‘एम.ए. में पढ़ रही हैं पर भोजपुरी में गाने का शौक है तो हमारे साथ आ कर गाने का शौक पूरा कर रही हैं।’ वह जोड़ते, ‘आप लोग इन्हें आशीर्वाद दीजिए।’ यहां तक कि वह अपनी उदघोषिका लड़की को भी खुद पेश करते, ‘लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.एस.सी. कर रही हैं….’, तो उदघोषिका तो सचमुच बी.एस.सी. कर रही थी लेकिन कुछ शौक, कुछ घर की आर्थिक दिक्कतों ने उसे लोक कवि की टीम में हिंदी, अंगरेजी और भोजपुरी में एनाउनसिंग करने और जब तब कूल्हा मटकाऊ नृत्य करने के लिए विवश कर रखा था। बाद में उसकी अंगरेजी एनाउंसिंग के चलते जब लोक कवि की ‘मार्केट’ बढ़ी तो लोक कवि ने उसे एक हजार तो कभी डेढ़ हजार रुपए नाइट का भुगतान करना शुरू कर दिया। जब कि बाकी लड़कियां पांच सात सौ, ज्यादा से ज्यादा हजार रुपए नाइट तक ही पाती थीं। और वह भी नाच गाने की मेहनत मशक्श्कत के बाद की ‘सेवा सुश्रुषा’ भी जब-तब जिस तिस को करनी पड़ जाती थी सो अलग।
खै़र, एनाउंसर लड़की तो सचमुच पढ़ रही थी पर कुछ लड़कियां आठवीं, दसवीं या बारहवीं तक ही पढ़ी होतीं, न पढ़ी होतीं तो भी उन्हें स्टेज पर लोक कवि यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ बता देते। एक लड़की तो दसवीं फेल थी और उसकी मां सब्जी बेचती थी पर कभी किसी समय वह जबलपुर यूनिवर्सिटी में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रह चुकी थी, पति से झगड़े के बाद जबलपुर शहर और नौकरी छोड़ लखनऊ आई थी। पर लोक कवि उसकी लड़की को यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ तो बताते ही उसकी मां को भी जबलपुर यूनिवर्सिटी की रिटायर प्रोफेसर बता देते तो संगी साथी कलाकार भी सुन कर फिस्स से हंस देते। डा. हरिवंश राय बच्चन अपनी मधुशाला में जैसे कहते थे कि, ‘मंदिर मस्जिद बैर बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला’ कुछ-कुछ उसी तर्ज पर लोक कवि के यहां भी कलाकारों में हिंदू-मुस्लिम का भेद ख़त्म हो जाता। कई मुस्लिम लड़कियों के उन्होंने हिंदू नाम रख दिए थे तो कई हिंदू लड़कियों के नाम मुस्लिम। और लड़कियां बाखुशी इसे स्वीकार कर लेतीं। लेकिन तमाम इस सबके लोक कवि के मन में जाने क्यों अपने पिछड़ी जाति के होने की ग्रंथि फिर भी बनी रहती। इस ग्रंथि को ‘कवर’ करने के लिए वह पिछड़ी जाति की लड़कियों के नाम के आगे भी शुक्ला, द्विवेदी, तिवारी, सिंह, चौहान आदि जातीय संबोधन इस गरज से जोड़ देते ताकि लगे कि उनके साथ बड़े घरों की, ऊंची जातियों की लड़कियां भी नाचती गाती हैं।
लोक कवि में इधर और भी बहुतेरे बदलाव आ गए थे। कभी एक ठो कुर्ता पायजामा के लिए तरसने वाले, एक टाइम खाने के जुगाड़ में भटकने वाले लोक कवि अब मिनरल वाटर ही पीते थे। पानी की बोतल हमेशा उनके साथ रहती। वह लोगों से बताते भी कि, ‘खर्चा बढ़ गया है। दो-तीन सौ रुपए का तो मैं पानी ही रोज पी जाता हूं।’ वह जोड़ते, ‘दारू-शारू, खाने-पीने का खर्चा अलग है।’ अलग बात है अब वह भोजन के नाम पर सूप पर ज्यादा ध्यान देते थे। ‘चिकन सूप, फ्रूट सूप, वेजीटेबिल सूप’ वह बोलते। कई बार तो शराब को भी वह सूप ही बता कर पीते पिलाते। कहते, ‘सूप पीने से ताकत जादा आती है।’ इसी बीच लोक कवि ने एक एयरकंडीशन कार ख़रीद ली। वह अब इसी कार से चलते। बाकायदा ड्राइवर रख कर। लेकिन बाद में वह अपने ड्राइवर की मनमानी से जब तब परेशान हो जाते। पर उसको नौकरी से हटाते भी नहीं थे। अपने संगी साथियों से कहते भी थे, ‘जरा आप लोग इसको समझा दीजिए।’
‘आप खुद क्यों नहीं टाइट कर देते हैं गुरु जी!’ लोग कहते।
‘अरे, इ माली हम राजभर! का टाइट करूंगा इसको।’ कहते हुए लोक कवि बेचारगी में जैसे धंस से जाते थे।
इसी बीच चेयरमैन साहब के सौजन्य से लोक कवि का परिचय एक पत्रकार से हो गया। पत्रकार जाति का ठाकुर था और लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वासी था। लोक कवि के गानों का रसिया भी। राजनीतिक हलकों व ब्यूरोक्रेसी में उसकी काफी अच्छी पैठ थी। पहले तो लोक कवि उस पत्रकार से बतियाने में हिचकिचाते थे। संकोचवश नहीं, भयवश। कि जाने क्या अंटशंट उनके बारे में भी वह लिख दे तो! उस पत्रकार ने लिखा भी एक लेख लोक कवि के बारे में। वह भी दिल्ली के एक दैनिक में जिसका कि वह संवाददाता था। पर जैसा कि लोक कवि डरते थे कि उनके बारे में वह कहीं अंट शंट न लिख दे, वैसा नहीं। फिर उस लेख के बाद लोक कवि का यह भय भी धीरे-धीरे छंटने लगा। फिर तो लोक कवि और उस पत्रकार की अकसर छनने लगी। जाम टकराने लगे। इतना कि दोनों ‘हमप्याला, हमनिवाला’ बन गए। जल्दी ही दोनों एक दूसरे को साधने भी लगे। पत्रकार को ‘मनोरंजन’ और शराब का एक ठिकाना मिल गया था और लोक कवि को सम्मान और पब्लिसिटी की द्रौपदी को जीतने का एक कुशल औजार। दोनों एक दूसरे के पूरक बन बाकायदा ‘गिव एंड टेक’ को फलितार्थ कर रहे थे।
लोक कवि पत्रकार को रोज भरपेट शराब मुहैया कराते। और कई बार तो यह दोनों सुबह से ही शुरू हो जाते। ऐसे जैसे बेड टी ले रहे हों। तो पत्रकार लोक कवि के लिए अकसर छोटे मोटे सरकारी कार्यक्रमों से लेकर प्राइवेट कार्यक्रमों तक का पुल बनता। पत्रकार ने उनके सरकारी कार्यक्रमों की फीस भी काफी बढ़वा दी। ब्यूरोक्रेसी पर जोर डाल कर। इतना ही नहीं बाद के दिनों में पिछड़ी जाति के एक नेता जब मुख्यमंत्री बने तो पत्रकार ने अपने संपर्कों और परिचय के बल पर लोक कवि की वहां भी एंट्री करवा दी। लोक कवि खुद भी पिछड़ी जाति के थे और मुख्य मंत्री भी पिछड़ी जाति के। सो दोनों की ट्यूनिंग इतनी ज्यादा जुड़ गई कि लोक कवि की पहचान मुख्यमंत्री की उपजाति के तौर पर फैलने लगी। तब जब कि लोक कवि उस उपजाति के नहीं थे। लेकिन चूंकि पहले ही से वह अपने नाम के आगे सरनेम लिखते ही नहीं थे, सो मुख्यमंत्री का सरनेम जब उनके नाम के आगे लगने लगा तो किसी को आपत्ति नहीं हुई। आपत्ति जिसको होनी चाहिए थी, वह लोक कवि ही थे पर उन्हें कोई आपत्ति थी नहीं। गाहे-बेगाहे जब उनका सरनेम जानने वाला कोई उन्हें टोकता कि, ‘का भई, यादव कब से हो गए?’ तो लोक कवि हंस कर बात को टाल जाते। टाल इसलिए जाते कि वह यादव न होते हुए भी ‘यादव’ को कैश कर रहे थे। यादव मुख्यमंत्री के करीब होने का सुख लूट रहे थे। इतना ही नहीं यादव समाज में भी अब लोक कवि ही ज्यादातर कार्यक्रमों के लिए बुलाए जाते। और बैनरों, पोस्टरों पर लोक कवि के नाम के साथ यादव भी उसी प्रमुखता से लिखा होता। यादव समाज में लोक कवि के लिए एक भावुक भारी स्वीकृति उमड़ने लगी। यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले तो आकर बड़ी श्रद्धा से लोक कवि के पांव छू कर छाती फुला लेते और कहते, ‘आपने हमारी बिरादरी का नाम रोशन कर दिया।’ प्रत्युत्तर में लोक कवि विनम्र भाव से बस मुसकुरा देते।
यादव समाज के कई अफसर भी लोक कवि को उन्हीं भावुक आंखों से देखते और हर संभव उनकी मदद करते, उनके काम करते।
कुछ ही समय में लोक कवि का रुतबा इतना बढ़ गया कि तमाम किस्म के लोगों को मुख्यमंत्री से मिलवाने के लिए वह पुल बन गए। छुटभैया नेता, अफसर, ठेकेदार और यहां तक कि यादव समाज के लोग भी मुख्यमंत्री से मिलने के लिए, मुख्यमंत्री से काम करवाने के लिए लोक कवि को संपर्क साधन बना बैठे। अफसरों को पोस्टिंग, ठेकेदारों को ठेका तो वह दिलवा ही देते, कुछ नेताओं को चुनाव में पार्टी का टिकट दिलवाने का आश्वासन भी वह देने लगे। और जाहिर है कि यह सब कुछ लोक कवि की बुद्धि और सामर्थ्य से परे था। परदे के बाहर यह सब करते लोक कवि जरूर थे पर परदे के पीछे तो लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वह पत्रकार ही था जिसे चेयरमैन साहब ने लोक कवि से मिलवाया था। और यह सब करके लोक कवि मुख्यमंत्री के करीब सचमुच उतने नहीं हो पाए थे जितना कि उनके बारे में प्रचारित हो गया था। सचमुच में यह सब कर के मुख्यमंत्री के ज्यादा करीब वह पत्रकार ही हुआ था।
लोक कवि तो बस मुखौटा भर बन कर रह गए थे।
इस मुख्यमंत्री ने विभिन्न विधाओं के कलाकारों में पैठ बनाने के मकसद से उन्हें उपकृत करने के लिए एक नए लखटकिया सम्मान की घोषणा की। जिस में दो, पांच और पचास लाख तक की नकद सम्मान राशि समाहित थी। साथ ही संबंधित कलाकार के गृह जनपद या जहां भी उसे सम्मानित किया जाता उसके नाम पर किसी सड़क का भी नाम रखने का प्राविधान रखा। इस सम्मान से कई नामी गिरामी फिल्मी कलाकार, निर्देशक अभिनेता, गायक तो सम्मानित किए ही गए एक सुपरस्टार को मुख्यमंत्री ने अपने गृह जनपद ले जा कर पचास लाख रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया। इस सम्मान समारोह में लोक कवि ने भी कार्यक्रम पेश किया। उनका एक गाना, ‘हीरो बंबे वाला लमका झूठ बोलेला।’ सिर चढ़ कर बोला। और उनकी खूब वाह-वाह हुई।
लेकिन लोक कवि खुश नहीं थे।
लोक कवि का गम यह था कि वह मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते थे, उनकी बिरादरी के न हो कर भी उनकी बिरादरी के माने जाते थे। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि वह कलाकार भी ख़राब नहीं थे। मुख्यमंत्री की बहुत सारी सभाएं बिना लोक कवि के गायन के शुरू नहीं होती थीं तो भी वह इस लखटकिया सम्मान से वंचित थे। तब जब कि एक माने हुए फिल्म निर्देशक ने तो मुख्यमंत्री को बाकायदा चिट्ठी लिख कर कहा था कि, ‘फलां तारीख़ को मेरा जन्म दिन है चाहूंगा कि आप इस मौके पर मुझे भी सम्मान से नवाज दें।’ और मुख्यमंत्री ने उस फिल्म निर्देशक का अनुरोध मान लिया था। उसे सम्मानित किया था। कहा गया कि यह मुस्लिम तुष्टिकरण है। वह फिल्म निर्देशक मुस्लिम था। पर यह सब कहने सुनने की बातें थीं। सच यह था कि उस फिल्म निर्देशक में सचमुच काबिलियत थी और उसने कम से कम दो लैंड मार्क फिल्में तो बनाई ही थीं। हां, लेकिन मुख्यमंत्री को फिल्म निर्देशक द्वारा चिट्ठी लिख कर अपने को सम्मानित करने का अनुरोध करना जरूर निंदा का विषय था। एक सांध्य दैनिक में फिल्म निर्देशक की इस चिट्ठी की फोटो कापी छप जाने से यह निंदा हुई भी। पर गनीमत यह थी कि यह चिट्ठी एक सांध्य दैनिक में छपी थी सो बात ज्यादा नहीं फैली। लेकिन इस सबसे न सिर्फ इस फिल्म निर्देशक की थू-थू हुई बल्कि इस लखटकिया पुरस्कार की भी ख़ूब छिछालेदर हुई।
लेकिन लोक कवि का इस सब से कुछ लेना देना नहीं था। उन की चिंता यह थी कि इस सम्मान से वह क्यों वंचित हैं।
बाद में तो कई लोग टोकते तो कुछ लोग तंज करने के अंदाज में लोक कवि से पूछने भी लगे, ‘आप कब सम्मानित हो रहे हैं?’ तो लोक कवि खिसियानी हंसी हंस कर टाल जाते। कहते, ‘अरे, मैं तो बहुत छोटा कलाकार हूं!’ पर मन ही मन सुलग जाते।
आखि़र इस सुलगन को विस्तार एक रोज शराब पीते हुए उन्होंने पत्रकार को दिया। पत्रकार टुन्नावस्था को प्राप्त हो रहा था। सब कुछ सुन कर वह उछलते हुए बोला, ‘तो आपने पहले ही क्यों नहीं यह इच्छा बताई?’
‘तो इ सब अब हमको ही बताना पड़ेगा?’ लोक कवि शिकायत करते हुए बोले, ‘आपकी कुछ जिम्मेदारी नहीं है?’ वह तुनके, ‘आपको खुदै यह करा देना था!’
‘हां। भाई करा दूंगा। दुखी मत होइए।’ कह कर पत्रकार ने लोक कवि को सांत्वना दी। फिर कहा कि, ‘बकिर एक काम हमारा भी करवा दीजिएगा।’
‘कोई काम आपका रुका भी है ?’ लोक कवि तरेर कर बोले। वह तनाव में थे भी।
‘लेकिन यह काम थोड़ा दूसरे किसिम का है !’
‘का है ?’ लोक कवि का तनाव थोड़ा-थोड़ा छंटने लगा था।
‘आपके यहां एक डांसर है।’ पत्रकार ने आह भरी और जोड़ा, ‘बड़ी कटीली है। उसके कट्स भी गजब के हैं। बिलकुल नसें तड़का देती है।’
‘अलीशा न !’ लोक कवि ने पत्रकार की नस पकड़ी।
‘नहीं, नहीं !’
‘तो और कवन है हमारे यहां ऐसी कंटीली डांसर जो आप की नसें तड़का दे रही है ?’
‘ऊ जो निशा तिवारी है न !’ पत्रकार सिसकारी भरी आह भरते हुए बोला।
‘त उसको तो भूल जाइए आप।’
‘क्या ?’
‘हां।’
‘तो आप भी लोक कवि ई सम्मान को भूल जाइए।’
‘नाराज काहें हो रहे हैं आप!’ लोक कवि पुचकारते हुए बोले, ‘और भी कई हसीन-हसीन लड़कियां हैं।’
‘नहीं लोक कवि अभी वही चाहिए!’ पत्रकार पूरे रूआब और शराब में बोला।
‘उसमें है का ?’ लोक कवि मनुहार करते हुए बोले, ‘उससे अच्छी तो अलीशा है !’
‘अलीशा नहीं लोक कवि निशा ! निशा कहिए। निशा तिवारी !’
‘चलिए हम मान गए। लेकिन ऊ मानेगी नहीं।’ लोक कवि मन मसोस कर बोले। आखि़र लखटकिया सम्मान की द्रौपदी जीतने का प्रश्न था।
‘क्यों नहीं मानेगी ?’ पत्रकार भड़का, ‘आप तो अभी से काटने में लग गए हैं।’
‘काट नहीं रहा हूं। हकीकत बता रहा हूं।’
‘चलिए आप की ओर से ओ.के. है ?’
‘हां, भाई ओ.के. है।’
‘तो फिर इधर भी डन है।’
‘का डन है ?’ लोक कवि पत्रकार की अंगरेजी समझे नहीं थे।
‘अरे, मतलब आपका सम्मान हो गया।’
‘कहां हुआ, कब हुआ मेरा सम्मान?’ लोक कवि घबराए हुए बोले, ‘सब जबानी-जबानी हो गया!’ वह बुदबुदाए भी कि ‘जब आप को चढ़ जाती है तो अइसेही इकट्ठे दस ठो ताजमहल खड़ा कर देते हैं।’ पर सच यह था कि लोक कवि को भी चढ़ गई थी।
‘काहें घबराते हैं लोक कवि!’ पत्रकार बोला, ‘डन कह दिया तो हो गया।’ वह अटका, ‘मतलब आपका काम हो गया। हो गया समझिए। अब यह मेरी प्रतिष्ठा की बात है कि आपको यह सम्मान दिलवाएं। मुख्यमंत्री साले से कल ही बात करता हूं।’
‘गाली जिन दीजिए!’
‘काहें नहीं दूंगा। बंबई से साले आ-आ कर सम्मान पैसा ढो ले जा रहे हैं और एहीं बैठे हमारे लोक कवि को पूछा ही नहीं।’ वह बहकता हुआ बोला, ‘आज तो गाली दूंगा कल भले ही नहीं दूं।’
‘देखिएगा कहीं गाली गलौज में काम न बिगड़ जाए।’ लोक कवि ने आगाह किया।
‘कहीं काम नहीं बिगड़ेगा। अब आप सम्मानित होने की तैयारी करिए और किसी दिन निशा के इंतजाम की भी तैयारी नहीं भूलिएगा। !’ कह कर पत्रकार ने गिलास में बची शराब खटाक से देह में ढकेली और उठ खड़ा हुआ।
‘अच्छा त प्रणाम !’ लोक कवि सम्मान मिलने की खुशी में भावुक होते हुए बोले।
‘मैं तो जा ही रहा हूं। तो ‘प्रणाम’ काहे कह रहे हैं ?’ पत्रकार बिदकता हुआ बोला। पत्रकार दरअसल लोक कवि द्वारा कहे गए ‘प्रणाम’ के निहितार्थ को अब तक जान चुका था कि लोक कवि अमूमन किसी उपस्थित को टरकाने भगाने की गरज से ‘प्रणाम’ कहते थे।
‘गलती हो गई।’ कह कर लोक कवि ने पत्रकार के पांव छू लिए और बोले, ‘पालागी।’
‘तो ठीक है कल परसों में मुख्यमंत्री से संपर्क साधता हूं। और बात करता हूं।’ पत्रकार चलते हुए बोला, ‘लेकिन आप इसे डन समझिए।’
‘डन ? मतलब का बताए थे आप ?’
‘मतलब काम हो गया समझिए।’
‘आप की किरपा है।’ लोक कवि ने फिर उसके पांव छू लिए।
कल परसों में तो जैसा कि पत्रकार ने लोक कवि को आश्वासन दिया था बात नहीं बनी लेकिन बरसों भी नहीं लगे। कुछ महीने लगे। लोक कवि को इसके लिए बाकायदा आवेदन देना पड़ा। फाइलबाजी और कई गैर जरूरी औपचारिकताओं की सुरंगों, खोहों और नदियों से लोक कवि को गुजरना पड़ा।
बाकी चीजों की तो लोक कवि को जैसे आदत सी हो चली थी लेकिन जब पहले आवेदन देने की बात आई तो लोक कवि बुदबुदाए भी कि, ‘इ सम्मान तो जइसे नौकरी हो गया है।’ फिर उन्हें अपने आकाशवाणी वाले ऑडिशन टेस्ट के दिनों की याद आ गई। जिस में वह कई बार फेल हो चुके थे। उन दिनों की याद कर के वह कई बार घबराए भी कि कहीं इस सम्मान से भी ‘आउट’ हो गए तो ? फिर फेल हो गए तो ? तब तो समाज में बड़ी फजीहत हो जाएगी। और मार्केट पर भी असर पड़ेगा। लेकिन उन्हें अपनी किस्मत पर गुमान था और पत्रकार पर भरोसा। पत्रकार पूरे मनोयोग से लगा भी रहा। बाद में तो उसने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया।
और अंततः लोक कवि के सम्मान की घोषणा हो गई। बाकी तिथि, दिन, समय और स्थान की घोषणा शेष रह गई थी। इसमें भी बड़ी दिक्कतें पेश आईं। लोक कवि एक रात शराब पी कर होश और पेशेंस दोनों खो बैठे। कहने लगे, ‘जहां कलाकार हूं वहां हूं। मुख्यमंत्री के यहां तो भडुवे से भी गई गुजरी स्थिति हो गई है हमारी।’ वह भड़के, ‘बताइए सम्मान के लिए अप्लीकेशन देना पड़ा जैसे सम्मान नहीं नौकरी मांग रहे हों। चलिए अप्लीकेशन दे दिया। और भी जो करम करवाया कर दिया। सम्मान ‘एलाउंस’ हो गया। अब डेट एलाउंस करवाने में पापड़ बेल रहा हूं। हम भी और पत्रकार भी। वह और जोर से भड़के, ‘बताइए इ हमारा सम्मान है कि अपमान! बताइए आप ही लोग बताइए!’ वह दारू महफिल में बैठे लोगों से प्रश्न पूछ रहे थे। पर इस के भी उत्तर में सभी लोग ख़ामोश थे। लोक कवि की पीर को पर्वत में तब्दील होते देख सभी लोग दुखी थे। चुप थे। पर लोक कवि चुप नहीं थे। वह तो चालू थे, ‘बताइए लोग समझते हैं कि मैं मुख्यमंत्री का करीबी हूं, मेरे गाए बिना उनका भाषण नहीं होता और न जाने क्या-क्या!’ वह रुके और गिलास की शराब देह में ढकेलते हुए बोले, ‘लेकिन लोग का जानें कि जो सम्मान बंबई के भडुवे बेभाव यहां से बटोर कर ले जा रहे हैं वही सम्मान यहां के लोग पाने के लिए अप्लीकेशन दे रहे हैं। नाक रगड़ रहे हैं।’ इस दारू महफिल में संयोग से लोक कवि का एकालाप सुनते हुए चेयरमैन साहब भी उपस्थित थे लेकिन वह भी सिरे से ख़ामोश थे। दुखी थे लोक कवि के दुख से। लोक कवि अचानक भावुक हो गए और चेयरमैन साहब की ओर मुख़ातिब हुए, ‘जानते हैं, चेयरमैन साहब, ई अपमान सिर्फ मेरा अपमान नहीं है सगरो भोजपुरिहा का अपमान है।’ बोलते-बोलते अचानक लोक कवि बिलख कर रो पड़े। रोते-रोते ही उन्होंने जोड़ा, ‘एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा नहीं है।’
‘ऐसा नहीं है।’ कहते-कहते चेयरमैन साहब जो बड़ी देर से ख़ामोशी ओढ़े हुए लोक कवि के दुख में दुखी बैठे थे, उठ खड़े हुए। वह लोक कवि के पास आए खड़े-खड़े ही लोक कवि के सिर के बालों को सहलाया, उनकी गरदन को हौले से अपनी कांख में भरा लोक कवि के गालों पर उतर आए आंसुओं को बड़े प्यार से हाथ से ही पोंछा और पुचकारा। फिर आह भर कर बोले, ‘का बताएं अब हमारी पार्टी की सरकार नहीं रही, न यहां, न दिल्ली में।’ वह बोले, ‘लेकिन घबराने और रोने की बात नहीं। कल ही मैं पत्रकार को हड़काता हूं। दो-एक अफसरों से बतियाता हूं। कि डेट डिक्लेयर करो!’ वह थोड़ा अकड़े और बोले, ‘ख़ाली सम्मान डिक्लेयर करने से का होता है?’ फिर वह लोक कवि के पास ही अपनी कुर्सी खींच कर बैठ गए। और लोक कवि से बोले, ‘लेकिन तुम धीरज काहे को खोते हो। सम्मान डिक्लेयर हुआ है तो डेट भी डिक्लेयर होगा ही। सम्मान भी मिलेगा ही।’
‘लेकिन कब ?’ लोक कवि अकुलाए, ‘दुई महीना त हो गया।’
‘देखो ज्यादा उतावलापन ठीक नहीं।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम्हीं कहा करते हो कि ज्यादा कसने से पेंच टूट जाता है तो का होगा ? जइसे दो महीना बीता चार छः महीना और सही।’
‘चार छः महीना !’ लोक कवि भड़के।
‘हां भई, ज्यादा से ज्यादा।’ चेयरमैन साहब लोक कवि को दिलासा देते हुए बोले, ‘एसे ज्यादा का सताएंगे साले।’
‘यही तो दिक्कत है चेयरमैन साहब।’
‘का दिक्कत है ? बताओ भला ?’
‘आप कह रहे हैं न कि ज्यादा से ज्यादा चार छः महीना !’
‘हां, कह रहा हूं।’ चेयरमैन साहब सिगरेट जलाते हुए बोले।
‘तो यही तो डर है कि का पता छः महीना इ सरकार रहेगी भी कि नहीं। कहीं गिर गिरा गई तो ?’
‘बड़ा दूर का सोचता है तुम भई।’ चेयरमैन साहब दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए बोले, ‘कह तुम ठीक रहे हो। इ साले रोज तो अखाड़ा खोल रहे हैं। कब गिर जाए सरकार कुछ ठीक नहीं। तुम्हारी चिंता जायज है कि यह सरकार गिर जाए और अगली सरकार जिस भी किसी की आए, क्या गारंटी है कि इस सरकार के फैसलों को वह सरकार भी माने ही!’
‘तो ?’
‘तो का। कल ही कुछ करता हूं।’ कह कर घड़ी देखते हुए चेयरमैन साहब उठ गए। बाहर आए। लोक कवि के साथ और लोग भी आ गए।
चेयरमैन साहब की एंबेसडर स्टार्ट हो गई और इधर दारू महफिल बर्खास्त।
दूसरी सुबह चेयरमैन साहब ने पत्रकार से इस विषय पर फोन पर चर्चा की, रणनीति के दो तीन गणित बताए और कहा कि, ‘क्षत्रिय हो कर भी तुम इस अहिर मुख्यमंत्री के मुंहलगे हो, अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग करवा सकते हो, लोक कवि के लिए सम्मान डिक्लेयर करवा सकते हो, पचासियों और काम करवा सकते हो लेकिन लोक कवि के सम्मान की डेट नहीं डिक्लेयर करवा सकते?’
‘का बात करते हैं चेयरमैन साहब। बात चलाई तो है डेट के लिए भी। डेट भी जल्दी एनाउंस हो जाएगी।’ पत्रकार निश्चिंत भाव से बोला।
‘कब एनाउंस होगी डेट जब सरकार गिर जाएगी तब ? उधर लोक कविया अफनाया हुआ है।’ चेयरमैन साहब भी अफनाए हुए बोले।
‘सरकार तो अभी नहीं गिरेगी।’ पत्रकार ने, गहरी सांस ली और बोला, ‘अभी तो चेयरमैन साहब, चलेगी यह सरकार। बाकी लोक कवि के सम्मान की डेट एनाउंसमेंट ख़ातिर कुछ करता हूं।’
‘जो भी करना हो भाई जल्दी करो।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘यह भोजपुरिहों के आन की बात है। और फिर कल यही बात कर के लोक कवि रो पड़ा।’ वह बोले, ‘और सही भी यही है कि इस अहिर मुख्यमंत्री ने किसी और भोजपुरिहा को तो अभी तक इ सम्मान दिया नहीं है। तुम्हारे कहने सुनने से लोक कवि को अहिर मान कर जो कि वह है नहीं किसी तरह सम्मान डिक्लेयर कर दिया लेकिन डेट डिक्लेयर करने में उसकी क्यों फाट रही है?’
‘ऐसा नहीं है चेयरमैन साहब।’ वह बोला, ‘जल्दी ही मैं कुछ करता हूं।’
‘हां भाई, जल्दी कुछ करो कराओ। आखि़र भोजपुरी के आन-मान की बात है!’
‘बिलकुल चेयरमैन साहब !’
अब चेयरमैन साहब को कौन बताता कि इन पत्रकार बाऊ साहब के लिए भी लोक कवि के सम्मान की बात उन की जरूरत और उनके आन की भी बात थी। यह बात चेयरमैन साहब को भी नहीं, सिर्फ लोक कवि को ही मालूम थी और पत्रकार बाऊ साहब को। पत्रकार ने कहीं इसकी फिर चर्चा नहीं की। और लोक कवि ने इस बात को किसी को बताया नहीं। बताते भी कैसे भला? लोक कवि खुद ही इस बात को भूल चुके थे।

Related Articles

Leave a Comment