आहिस्ता आहिस्ता जैसे जैसे 2019 आता जारहा है वैसे वैसे सेकुलरिज्म का रोड शो टीवी मीडिया, अखबार, सोशल मीडिया, सेमिनार और फिल्मों में छाता जारहा है। जहां एक से बौद्धिकों के खाते सूखते जारहे है वही ऐसा लग रहा की मुम्बई की फ़िल्म इंडस्ट्री के लोगो को जबरदस्त कमाने का मौका मिल रहा है। दुबई के पैसे और वहां के प्रभाव में फलने फूलने वाला मुम्बई फ़िल्म उद्योग जिसने फंतासी की दुनिया के सहारे लव जेहाद चलाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है, वह एक बच्ची के बलात्कार को हिन्दू व भारत विरोध बनाकर मॉडलिंग करने से लेकर सारे मुस्लिम सब बेचारे है जो हिन्दुओ व राष्ट्रवादि सरकार से प्रताड़ित है बेचने में लगा हुये है।
अब इस दुष्प्रचार को बढ़ाते हुये भारत की नवजवान पीढ़ी को लव जिहाद का मीठा जहर पिलाने व इस जहर का अमरत्व विज्ञापित करने के लिये एक फ़िल्म ‘मुल्क’ प्रस्तुत की जारही है। कल परसो में इस फ़िल्म का 29 सेकंड का विज्ञापन रिलीज़ किया गया है जो फ़िल्म का उद्देश्य व कथानक तो बता ही रहा है वही साथ मे 90 की दशक की पीढ़ी को थिएटर में बुला कर, लव जिहाद से सहानभूति बटोरने व हिन्दू समाज मे जो इसको लेकर जो चेतना जगी है उसके विरुद्ध उनको खड़ा करना चाहता है।
यह फ़िल्म मुल्क के नाम से है जो बहुत कुछ कह जाता है। वैसे तो इस फ़िल्म का नाम देश या राष्ट्र भी हो सकता था लेकिन क्योंकि मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री में हिंदी को मार कर उर्दू को भाषा बना दिया गया है इसलिये मुल्क ही बेचा जाएगा। इस फ़िल्म की शूटिंग लखनऊ व बनारस में हुई है और जितना इसके बारे में पता चला है यह पूरी तरह से एक तरफ मुस्लिमो के प्रति सहानभूति उभारने वाली स्क्रीप्ट है और इसको लेकर मुझको कोई परेशानी नही है क्योंकि सेक्युलरिजम को यही बेचना है।
अब हम इस फ़िल्म को छोड़ देते है क्योंकि इसका असली आंकलन फ़िल्म को देख कर ही किया जासकता है लेकिन जो इस फ़िल्म के लिये 29 सेकंड का विज्ञापन सामने आया है, उस पर बात करना जरूरी है। मुझ को कुछ ऐसा लग रहा है कि यह विज्ञापन शायद कुछ और बेच रहा है। इसमे वकील की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री, दर्शकों को सम्बोधित करते हुये कहती है,
“एक सवाल है, चाहे तो सुन लीजिये।
आरती मल्होत्रा नाम था मेरा, शादी के बाद आरती मोहम्मद हो गया।
आई कैन फील द डिफरेंस नाउ।
फ्लाइट के चेक इन पर, कॉफ़ी शॉप के काउंटर पर।
आरती कपूर होता, तो यह नही होता न?
क्यों?”
इसको सुना और समझ गया कि यह मल्होत्रा से मोहम्मद की 29 सेकंड की कहानी सिर्फ विक्टिम कार्ड खेलने के लिये सुनाई जारही है। मेरी समझ मे यह नही आरहा है कि यह जो प्रश्न आरती मोहम्मद हम लोगो से पूछ रही है, वह अपने से क्यों नही पूछ रही है? अपने से पूछने की हिम्मत नही है तो आरती मल्होत्रा से पूछ लेती? अब जब यह दोनो ही बाते नही करनी है तो यह सभी मल्होत्रा से मोहम्मद बनी खुद को धोखा देने वाली मासूमो को यह बताना ही चाहिये कि यह डिफरेंस क्या है।
यह जो आरती मल्होत्रा से मोहम्मद बनना है यह उनका चुनाव है और यह उनका अधिकार भी है। ठीक उसी तरह से मल्होत्रा और मोहम्मद में फर्क होने की अनुभूति होना यह मेरा चुनाव है और मेरा यह अधिकार भी है। आज से कुछ वर्षों पूर्व तक मुझे कोई खास फर्क नही पड़ता था क्योंकि तब मोहम्मद के साथ आरती नाम नही हुआ करता था। पहले जो इस्लाम अपनाने के बाद, निकाहनामा में नाम दर्ज हुआ होता था वही ही सिर्फ अस्तित्व होता था। यह उनका धर्म था और सिक्युलर धर्म उनकी हर अमानवीयता को ढक के रखता था।
लेकिन आज समय बदल चुका है क्योंकि आज मोहम्मद की चारदीवारी से बाहर निकल कर उनकी बीवियां वह चाहे फरजाना हो, शबाना हो या ज़ेबा हो, धर्म के नाम पर सदियों से हो रहे उनपर अमानवीय अत्याचार को सामने लाराही है और अपने हक के लिये आज लड़ रही है। आरती मल्होत्रा से आरती मोहम्मद बनने का सबसे पहला फर्क यह देखने को मिलता है कि अपने हक के लिये लड़ रही इन महिलाओं को जहां अन्य मुस्लिम महिलाओं का साथ मिलता जारहा है वही पर आरती मोहम्मद इनसे कन्नी काट लेती है। वे तभी सामने आती है जब आरती की आरती उतारने की जगह मोहम्मद उसे एक और फरजाना, शबाना या ज़ेबा बना देता है।
आरती मल्होत्रा का प्रश्न है कि क्यों अपना नाम आरती मोहम्मद बताने पर, लोगो की अलग प्रतिक्रिया होती है। यह तो निश्चित रूप से होगी और इसको लेकर विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश नही करनी चाहिये। यह तिरस्कार की प्रतिक्रिया होती है क्योंकि जो तुम्हारा नाम सुन रहा है उसको यह मालूम है कि आरती कपूर अपने हिसाब से जियेगी और आरती मोहम्मद अपने नये धर्म की मजहबी किताब की लौंडी बनी जियेगी। उसे यह मालूम है कि आरती कपूर अपने पूरे अधिकार को लिये, तलाक को नेपथ्य में दबाकर सर उठा कर जियेगी लेकिन आरती मोहम्मद, तलाक तलाक तलाक के बोझ से सर झुका कर जियेगी। साथ मे उनलोगों को यह भी पता चल गया है कि आरती कपूर के जीवन मे कोई भी उतर चढ़ाव हो लेकिन वह पति से दरकिनार ससुर, देवर, बहनोई व बड़े बुजर्ग के लिए घर की अस्मिता है और वहीं आरती मोहम्मद, हलाला ऐसी घ्रणित प्रथा के नाम पर अपने ससुर, देवर, जेठ, बहनोई और मुल्ला मौलवियों के लिये बिस्तर गर्म करने वाला जिस्म है।
आरती मल्होत्रा से बनी आरती मोहम्मद जी अब आपको समझ मे आया कि व्हाई यू फील ऐ डिफरेंस? अगर यह आरती कपूर होती तो लोगो को फर्क क्यों नही पड़ता?