Home राजनीति इस प्यार को क्या नाम दूं

लगभग एक महीना पहले 16 दिसंबर की शाम लुटियन अड्डों पर तब जमकर जश्न मना था, खूब ज़ाम छलके थे। जब भतीजे की चाचा से भेंट और गठबंधन की घोषणा हुई थी। तथाकथित सेक्युलर मीडिया के अड्डों पर ऐसा हुड़दंग हुआ था मानो कोई क्रांति हो गयी है। यह अलग बात है कि 4/5 दिनों में भव्य प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के नेताजी की मौजूदगी में गठबंधन का औपचारिक ऐलान करने की घोषणा को 26 दिन गुजर गए लेकिन चाचा भतीजा एकबार भी साथ नहीं दिखे। कल तब दोनों एक साथ दिखे जब राजभर टाइप के आधा दर्जन और नेता सीट बंटवारे के चुनावी परपंच की पंचायत करने के लिए इकट्ठे हुए।

 

जिस ओमप्रकाश राजभर को लुटियन मीडिया के लंपट, न्यूजचैनलों के ढपोरशंखी एडिटर, एंकर, रिपोर्टर पिछले कुछ महीनों से पूर्वांचल की राजनीति का सबसे बड़ा किंग मेकर सिद्ध करने में जुटे हुए हैं, वो ओमप्रकाश भी सीट बंटवारे के चुनावी परपंच के लिए कल हुई पंचायत से जब बाहर निकला और न्यूजचैनलों पर चमका तो उसका चेहरा देखने लायक, लहजा देखने सुनने लायक था।

 

70 साल पुरानी फ़िल्म अलबेला के आज भी लोकप्रिय गीत
भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे।” की तर्ज पर कल ओमप्रकाश का चेहरा, आवाज़ और अंदाज़ यह गाता दिखायी दिया….
लटकी सूरत, दिल में शोले, टोंटी पर खून मेरा रह रह खौले।”
लुटियन लंपटों द्वारा पिछले कई महीनों से मोदी-योगी को खलनायक की भूमिका में रखकर लिखी जा रही समाजवादी पॉलिटिकल लव स्टोरी को उपरोक्त तथ्य फ्लॉप कॉमेडी बनाते दिख रहे हैं। मैं यही सोच रहा हूं कि इस प्यार को क्या नाम दूं

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