Home विषयकहानिया गांव के प्रधान पंडित
आनंद को याद है कि उन्हीं दिनों एक रोज़ शहर में टाउनहाल पार्क के पास कुछ दोस्तों के साथ खड़ा था कि ग्राम प्रधान पंडित उस रास्ते से पैदल ही गुज़र रहे थे। उस ने उन की बुज़ुर्गियत और पट्टीदारी का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ कर उन के पांव छुए और साथ खड़े लोगों से उन का परिचय करवाया। बताया कि, ‘हमारे गांव के प्रधान हैं।’ साथ ही उन की और गांव की तारीफ़ में यह भी जोड़ा कि, ‘ख़ासियत यह कि इस घोर प्रतिद्वंद्विता के युग में भी निर्विरोध प्रधान चुने गए हैं।’ यह सुनते ही ग्राम प्रधान पंडित भड़क गए। तड़कते हुए गरजे। गांव भर के लोगों की मां बहन की तफ़सील में गए और मूछों पर ताव देते हुए कहा, ‘किस में इतना दम था जो मेरे खि़लाफ़ खड़ा होता!’ आनंद यह सुन कर सकते में आ गया। उसे लगा कि उस ने अपने दोस्तों से बेवजह ही परिचय करवा दिया। उन के चरण स्पर्श कर के वह पछताया। पछताया इस पर भी काहे को उन के निर्विरोध चुने जाने की तारीफ़ की दोस्तों से।
खै़र, रहीम की हत्या ने गांव में अद्भुत सन्नाटा बो दिया था। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार का वह लड़का वापस फिर नौकरी पर नहीं गया। गांव में खेती बारी भी वह नहीं करता। घर से बाहर भी नहीं निकलता। तब से ही वह गुमसुम रहने लगा। कभी कभार पत्नी से ही बात करता। खाता, सोता और लेटे-लेटे घर की छत निहारता रहता। एक ज़िंदा लाश, चलती फिरती लाश बन गया वह। इसी बीच बोफ़ोर्स मामला सामने आ गया। इस की इतनी चर्चा हुई कि गांव में लोग ग्राम प्रधान पंडित का नाम बदल बैठे। अब उन का नाम बोफ़ोर्स प्रधान हो चला था। पहले गुपचुप फिर खुल्लमखुल्ला। क्यों कि उन के कारनामे दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे थे। राजीव गांधी की जवाहर रोज़गार योजना ने उन के बोफ़ोर्स प्रधान होने में और घी डाला। पर अब गांव में उन का भय, उन का रसूख़, उन का रंग फीका पड़ता जा रहा था। अब मछली ठेकेदार के भय का रंग लोगों में चटक हो रहा था। उस ने मछली पालन के साथ-साथ मुर्ग़ी पालन भी शुरू कर दिया था। और अब सुअर पालने की योजना बना रहा था। उस के पास अब बंदूक़ भी थी, पैसा भी। सो वह अब गांव में एक नई ताक़त था। सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम इन्हीं दिनों पैदा हुआ था।
उसके पैदा होते ही देश में मंडल कमंडल खड़खड़ाने लगे। ग्राम प्रधान पंडित भले ही बोफ़ोर्स प्रधान बन गए हों पर राजीव गांधी पैदल हो गए। बोफ़ोर्स विरोधी घोड़े पर सवार हो कर ‘राजा नहीं फ़कीर है, भारत की तक़दीर है’ का नारा गंूजते-गूंजते वी.पी. सिंह के हाथों देश की बागडोर आ गई थी। वह आए भी और मंडल को लाल क़िले से फहरा कर गए भी। और जैसे कि अपनी ‘लिफ़ाफ़ा’ शीर्षक कविता में वह कहते हैं, ‘पता उन का/पैग़ाम तुम्हारा/बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा।’ फाड़ भी दिए गए। हालां कि टिप्पणीकारों ने माना कि नेहरू और इंदिरा के बाद अगर किसी ने देश की दिशा और राजनीति बदली तो वह वी.पी. सिंह ही हैं। खै़र, चंद्रशेखर आए। राजीव गांधी की हत्या हुई और फिर पी.वी. नरसिंहा राव आए। बाबरी मस्जिद गिरी। हर्षद मेहता कांड हो गया। देश तहस नहस हो गया। मंडल के चलते अभी जातियों के घाव सूखे भी नहीं थे कि सांप्रदायिक खाई भी गहरी हो गई। मुंबई ब्लास्ट इस की इंतिहा थी।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम उन्हीं दिनों स्कूल जाने लगा था।
शिबू सोरेन और अजीत सिंह सरीखों के भरोसे नरसिंहा राव की अल्पमत सरकार ने पांच साल पूरे किए। न सिर्फ़ पूरे किए मनमोहनी आर्थिक उदारीकरण के बीज भी बोए। सुखराम जैसे भ्रष्टाचार के दुख बोए। तेरह दिन की अटल बिहारी सरकार के बाद देवगौड़ा और गुजराल आए। और अटल बिहारी फिर-फिर। लाहौर बस हुई, कारगिल हुआ, गोधरा और गुजरात हुआ। नरेंद्र मोदी की महक अब पूरे देश में थी। सरकार भी दंगा कराने लगे यह तो हद थी। हुक्मरान कुर्सी बांट रहे थे, देश टूट की ओर जा रहा था तो उन की बला से। लाल क़िला और फिर संसद भी बम विस्फोटों से दहला तो क्या हुआ। रंज लीडर को भी हुआ पर आराम के साथ। फ़ील गुड और शाइनिंग इंडिया के साथ प्रमोद महाजन, अमर सिंह और राजीव शुक्ला जैसे लोग भी राजनीति में शाइनिंग की छौंक मार रहे थे। राजनीति अब नीति से नहीं व्यापार से चलने को सज-धज कर तैयार खड़ी थी। राजनीति और भ्रष्टाचार दोनों के औज़ार बदल गए थे। मोबाइल, इंटरनेट और मीडिया समाज को दोगला बनाने की होड़ में खड़े हो चुके थे। और यह देखिए सोनिया गांधी की गोद में बैठे मनमोहन सिंह ने अमरीकी बीन पर ऐसा नाचा कि सारा समाज अब बाज़ार में ऊभ-चूभ हो गया। आटा के भाव भूसा बिकने लगा। सिंगूर और नंदीग्राम होने लगा। कामगारों और किसानों की पैरोकार वामपंथी सरकार किसानों और कामगारों के खि़लाफ़ उठ गई। और भाजपा जैसी पार्टियां उन के आंसू पोंछने पहुंच गईं। सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम उन्हीं दिनों कालेज जाने लगा।
कालेज से गांव आता और शेर सुनाता, ‘क़ब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए/राजधानी दी थी राजधानी चाहिए।’ इस शेर का भाव, इस की ध्वनि और इस का तंज़ तो गांव में लोग नहीं ही समझ पाते। परंतु यह ज़रूर समझ जाते कि सुखई के इस नाती जिस का नाम क़ासिम था को जो अभी नहीं रोका गया तो यह रहीम का भी बाप निकलेगा और गांव को चौपट कर देगा। हालांकि गांव चौपट हो चला था।
भूख तो नहीं पर युवाओं की बेकारी और पट्टीदारी के झगड़े ने गांव की शांति पर झाड़ू चला रखा था। अहंकार का हिमालय पिघलने के बजाय दिन-ब-दिन और फैलता जाता। टैªक्टर से खेत की जुताई और कंबाइन मशीन से फसलों की कटाई ने गांव में खेतीबारी का महीनों का काम घंटों में बदल दिया था। ट्रैक्टर की जुताई के चलते बैल पहले विदा हुए फिर कंबाइन की कटाई से भूसा। सो गाय भैस भी विदा हो गईं। गांव में अब गोबर उठाने का काम भी नहीं रह गया था। त्यौहारों में भी चाव नहीं रह गया था। होली शराबियों और दीवाली जुआरियों के भरोसे ज़िंदा रह गई थी। छुप-छुपा कर पीने वाले अब खुल्लमखुल्ला शान, शेख़ी और हेकड़ी दिखा कर पीने लगे थे। गांव में अधिकांश आबादी बुजु़र्गों की थी जिन में कुछ नौकरियों से रिटायर्ड वह लोग भी थे जो शहर में मकान नहीं बनवा पाए थे, लड़के नाकारा हो चले थे और बेरोज़गार युवा जिन की पढ़ाई या तो पूरी नहीं हो पाई या फिर अधकचरी पढ़ाई के कारण नौकरी नहीं मिल पाई; और अब गांव में शोहदा बन कर घूमने के अलावा उन के पास कुछ ख़ास नहीं था। अगर था तो घर में आपस में लड़ना। कुछ ने तो मां बाप को पीटना ही अपना मुख्य काम बना लिया था। हां, नवयुवक मंगल दल की जगह हिंदू युवा वाहिनी ने ले ली थी। ग्राम प्रधान पंडित अब काफ़ी बुढ़ा गए थे। ग्राम प्रधान अब एक दलित हो गया था पर गांव में हिंदू युवावाहिनी के आगे किसी की कुछ नहीं चलती थी। दलित ग्राम प्रधान की भी नहीं। वह हिंदू युवा वाहिनी के आगे पूरी तरह समर्पण कर जवाहर रोज़ग़ार योजना और तमाम और विकास के मदों में आने वाले पैसों को डकारने में मगन था। फ़ौजी पंडित भी रिटायर हो कर गांव में ही बस गए थे और बी.डी.सी. मेंबर बन कर गांव की राजनीति में पूरा हस्तक्षेप किए हुए थे। जैसे पहले वह नवयुवक मंगल दल को आशीर्वाद देते थे वैसे ही अब वह हिंदू युवा वाहिनी को भी न सिर्फ़ आशीर्वाद देते थे बल्कि गांव स्तर पर हिंदू युवा वाहिनी के थिंक टैंक भी थे।
हिंदू युवा वाहिनी वैसे तो पूरी कमिश्नरी में अपना जाल फैला चुकी थी पर इस गांव में उस का हस्तक्षेप कुछ ज़्यादा ही था। इतना कि तमाम सारे हिंदू भी इस हिंदू युवा वाहिनी से आक्रांत थे। इस हिंदू युवा वाहिनी के खि़लाफ़ थाना-पुलिस में भी कोई सुनवाई नहीं थी। बल्कि थानेदार तो इन के आगे हाथ जोड़े, घिघ्घी बांधे खड़े रहते। कारण यह था कि हिंदू युवा वाहिनी के मुख्य अभिभावक और कर्ताधर्ता एक सासंद थे जो एक मंदिर के महंत भी थे। पूरे ज़िले क्या पूरी कमिश्नरी में उन की ही गुंडई चलती थी और प्रकारांतर से वह ही प्रशासन चलाते थे। शहर तो जैसे उन का बंधक था, गांवों में भी उन का आतंक कम नहीं था।
हालां कि एक बार अपनी गिऱतारी पर वह संसद में फूट-फूट कर रोए भी थे। पर वह राजनीतिक आंसू थे। अब उन की राजनीति भी विस्तार ले रही थी। न सिर्फ़ उन की राजनीति विस्तार ले रही थी बल्कि वह अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को भी उनकी औक़ात बताते हुए उन्हें चुनौती पर चुनौती दे रहे थे। ज़िले और प्रदेश के नेताओं को तो वह पिद्दी क्या, पिद्दी का शोरबा भी नहीं समझते थे। इलाक़े के कई विधायक उन की जेब में थे। यह विधायक भी पार्टी की कम इन सांसद महंत जी की ज़्यादा सुनते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश बनने पर वह मुख्यमंत्री बनने का सपना भी संजोये थे। मुस्लिम विरोध उन की राजनीतिक खेती थी। शहर के मुसलमानों को वह मुर्ग़ा बनाए हुए थे। अब छिटपुट गांवों के मुसलमानों की बारी थी। देवेंद्र आर्य जैसे कवि लिख रहे थे, ‘गोरख की सरज़मीं पर गुजरात का ख़याल/चेहरे की आइने से कहीं जंग होती है!’ पर जंग तो हो रही थी आइने से। और फिर इस शहर के मुसलमान तो गुजरात से चार दशक पहले ही से इस महंत के पूर्ववर्तियों द्वारा मुर्ग़ा बना कर टांग दिए गए थे। यह परंपरा इस महंत ने भी जारी रखी थी। हां, अब की बारी अटल बिहारी की तरह अब गांवों की बारी थी।
सुखई चाचा का नाती क़ासिम इसी बारी का नया शिकार था।
‘क़ब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए/राजधानी दी थी, राजधानी चाहिए।’ शेर जब क़ासिम की ज़ुबान से हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने सुना तो इस की तासीर, इस की आंच वह समझ गए। इस का मतलब समझाते हुए एक शोहदे ने जब फ़ौजी पंडित से यह तफ़सील बताई और कहा कि, ‘यह क़ासिम तो शहंशाह बनना चाहता है।’
‘मतलब?’ फ़ौजी पंडित ने खैनी मलते हुए पूछा।
‘मतलब ई चाचा कि अब ई राजा बनना चाहता है। राजधानी मांग रहा है।’
‘ए भाई तो इस गांव को हम उस की राजधानी नहीं बनने देंगे।’ फ़ौजी पंडित बोले, ‘इसके लिए उसको लखनऊ-दिल्ली जाना पड़ेगा। काहे से कि राजधानी तो वहीं है। इहां गांव में कहां राजधानी बन पाएगी?’
‘न हो तो इस क़ासिम को भी रहीम की तरह जन्नत भेज दिया जाए। जाए वहीं राजधानी-राजधानी खेले।’
‘ना!’ फ़ौजी पंडित ने खैनी थूकते हुए टोका, ‘यह ग़लती अब दुबारा नहीं। रहीम को जन्नत भेजने में तीन चार बच्चों की ज़िंदगी जहन्नुम हो गई। हिस्ट्रीशीट खुल गई। हत्या का पाप लग गया। गांव की बदनामी हो गई।’
‘तो?’ हिंदू युवा वाहिनी के शोहदों ने एक साथ पूछ लिया।
‘सोचते हैं।’ फ़ौजी पंडित बोले, ‘थोड़ा बुद्धि से काम लेना पड़ेगा। ब्लाक प्रमुख यादव के पास चलते हैं। मीटिंग करते हैं। फिर तय करते हैं।’
यादव ब्लाक प्रमुख भी हिंदू युवा वाहिनी के शुभचिंतकों में से था। फ़ौजी पंडित ने क़ासिम के इरादों, गांव को पाकिस्तान बनाने, मस्जिद बनाने, सऊदिया से पैसे आने जैसे तमाम ब्यौरे दिए और यह भी बताया कि आज़मगढ़ के एक
मुस्लिम लड़के से उस की बड़ी दोस्ती है।
‘आज़मगढ़?’ ब्लाक प्रमुख यादव की आंखों में चमक आ गई। बोला, ‘फिर तो पंडित जी इस का काम लग जाएगा।’
‘पर कैसे?’ फ़ौजी पंडित अकुलाए।
‘आज़मगढ़ और आतंकवाद पूरे देश में एक सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। अख़बार-सख़बार, टीवी-सीवी नहीं देखते हैं का?’
‘तो आतंकवादी घोषित हो जाएगा क़ासिम?’ फ़ौजी पंडित की आंखों में चमक आ गई।
‘इनकाउंटर भी हो सकता है।’ यादव ब्लाक प्रमुख बोला, ‘बस थानेदार को थोड़ा क़ाबू करना पड़ेगा। पर है वह भी अपनी ही बिरादरी का। काम हो जाएगा। फिर भी दस पांच हज़ार पेशगी तो देनी ही पड़ेगी।’
‘हो जाएगा इंतज़ाम!’
‘फिर ठीक है।’ यादव ब्लाक प्रमुख बोला।
फ़ौजी पंडित यादव ब्लाक प्रमुख की इस बात से इतना प्रभावित हो गए कि उठ खड़े हुए उस का पैर पकड़ने के लिए। पर तुरंत ही बैठ गए यह सोच कर कि यह तो ससुरा यादव है और मैं पंडित।
दूसरे ही दिन पुलिस गांव में आ गई। क़ासिम घर पर ही था। पकड़ ले गई।
दो दिन की मारपीट और पूछताछ के बाद घर आया। आज़मगढ़ का वह लड़का भी पकड़ा गया था। उस के ही घर वालों ने पैरवी कर अपने बेटे और क़ासिम को छुड़वाया। काफ़ी पैसा ख़र्च करना पड़ा था। मामले की ख़बर लगते ही हिंदू युवा वाहिनी के लोग सक्रिय हो गए। उन की सक्रियता देख कर सुखई चाचा घबराए। क़ासिम को ले कर लखनऊ आनंद के पास आ गए।
सुबह उठ कर चाय नाश्ते के बाद बच्चे स्कूल, कालेज चले गए तो आनंद ने क़ासिम को अकेले में बैठाया और पूछा कि, ‘तुम्हारी प्राब्लम क्या है?’
‘मेरी कोई प्राब्लम नहीं है।’ वह बोला, ‘जो भी प्राब्लम है हिंदू युवा वाहिनी के लोगों को है। वही लोग मेरे पीछे पड़े हैं।’ क़ासिम बोला।
‘आखि़र क्यों वह लोग तुम्हारे पीछे पड़े हैं?’
‘वह लोग चाहते हैं कि मैं गांव में सिर झूका कर चलूं। जैसे कि अब्बू या बाबा चलते हैं। या और छोटी जातियों के लोग चलते हैं।’ वह जैसे तिड़का, ‘वह लोग नहीं चाहते कि मैं सिर उठा कर चलूं।’
‘ऐसा क्यों?’
‘वह कहते हैं कि तुम हमारे आसामी हो, हमारी प्रजा हो, हम ने अपनी ज़मीन पर तुम्हें बसाया सो अदब में रहो। अपनी औक़ात में रहो। और मैं इस से इंकार करता हूं।’
‘और कोई बात?’
‘हां, इधर एक घटना और हुई।’
‘क्या?’
‘रोडवेज़ बस स्टैंड का एक बोर्ड सड़क पर लगा था। काफ़ी मज़बूत था और बड़ा भी। इन लोगों ने उसे पेंट करवा कर बस स्टैंड की जगह हिंदू युवा वाहिनी लिखवा दिया। मैं ने इस का भी विरोध किया। रोडवेज़ में लिखित शिकायत की।’

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