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टेक्नॉलजी के केस में हमेशा प्रथम होना ही मायने नहीं रखता

by Nitin Tripathi
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टेक्नॉलजी के केस में हमेशा प्रथम होना ही मायने नहीं रखता बल्कि मायने रखता है सही समय पर प्रथम होना. भारत में ऑनलाइन शॉपिंग रिडिफ ने 1999 में आरम्भ कर दिया था, पर तब ना इंफ़्रा स्ट्रक्चर था शिपिंग का, न कस्टमर के पास इंटेरनेट था और न ही ऑनलाइन पेमेंट सिस्टम था भारत में. नतीजा यह रहा कि अरबों खर्च कर दस वर्षों में रिडिफ कम्पनी थक हार गई. वहीं 2010 में आई कम्पनी फ्लिपकार्ट सही समय पर आई और छा गई.
automobile के के क्षेत्र में तेल / गैस के विकल्प के रूप में पर्यावरण फ़्रेंड्ली फ़्यूअल की दिशा में बहुत बातें हुईं / हो रही हैं. कई बेहतर विकल्प भी पेपर पर हैं. पर भविष्य इलेक्ट्रिक vehicle का है, दिख रहा है. वजह इसकी बहुत क्लीयर है. चालीस वर्ष पूर्व ही यह इस्टैब्लिश हो गया था कि ev भविष्य है तो दुनिया की सभी कार कम्पनियों ने इस दिशा में पैसे खर्च किए. ज़्यादातर कम्पनियों ने खरबों खर्च कर हाइब्रिड vehicle निकाले, अर्थात् वह जो बैटरी तथा तेल दोनो से चलें. पर टेस्ला ने दो हज़ार में आकर पूर्ण ev vehicle बना इन सब कम्पनियों को मात दे दी अब टोयोटा जैसी कम्पनियों की समस्या यह है कि उनके पास प्लांट, टेक्नॉलजी सब हाइब्रिड की है तो वह इसे फूंक भी नहीं सकते. अमेरिका में टोयोटा का प्लान है 2030 तक सौ प्रतिशत गाड़ियाँ हाइब्रिड में बनाना. ज़्यादातर कम्पनियाँ अब इसी मॉडल पर हैं कि अमेरिका में शीघ्र अति शीघ्र इलेक्ट्रिक नहीं तो हाइब्रिड पर आ जाएँ. और ध्यान दें यह अकस्मात् एक दिन में लिया निर्णय नहीं है, चालीस साल से इस पर काम चल रहा था.
अमेरिका में जो अच्छी बात है कि हर नई टेक्नॉलजी को फ़ंडिंग मिल जाती है तो दसियों कम्पनियाँ ev / इससे रिलटेड क्षेत्र में बिलियन डालर्स खर्च कर चुकी हैं. और अमेरिका का लेबर है चीन तो चीन ने भी अमेरिका के पीछे पीछे उतना नहीं पर उसका दस प्रतिशत खर्च किया ही है. बाक़ी फ़िर जर्मनी, uk यह सब भी लगे हैं. ज़बर्दस्त सब्सिडी दी गई ev को पिछले कई वर्षों से.
अब ev को फ़ाइनल पुश दिया जा रहा है अमेरिका में. ev में सबसे बड़ी बाधा है चार्जिंग स्टेशन. अगर रोड पर पर्याप्त चार्जिंग स्टेशन नहीं हैं तो ग्राहक ev ख़रीदेगा क्यों. आख़िर रास्ते में चार्ज ख़त्म हो गया तो व्यवस्था तो हो. पर चूँकि अभी इतने ev नहीं है तो पेट्रोल पम्प की भाँति जगह जगह लोग चार्जिंग स्टेशन क्यों खोलेंगे? जब ग्राहक ही नहीं तो व्यापारी उस चीज़ में अभी पैसा क्यों लगाए. यद्यपि टेस्ला के अपने स्टेशन हैं पर वह पर्याप्त नहीं हैं. तो अमेरिकन सरकार अब सात बिलियन डालर खर्च कर रही है जगह जगह ev स्टेशन खुलवाने के लिए.
ऊबर जैसी कम्पनियों में ऐप पर अब ऑप्शन है कि आप ग्रीन वीइकल अर्थात् ev में ही बैठना चाहें तो. कार रेंटल कम्पनियाँ इन दिनों थोक के भाव में ev के ऑर्डर प्लेस कर रही हैं. कुल मिला कर अमेरिका में ev का वही मोमेंटम है जो 1999 में डॉट काम बूम का था. उतार चढ़ाव आएँगे पर इतना पैसा और एफ़र्ट लग चुका है कि अब क्लीयर है कि भविष्य ev का ही है.
भारत के परिप्रेक्ष्य से सदैव की ही भाँति भारत बहुत पीछे है. थैंक फ़ुली सन 2020 में हमने वह एफ़र्ट करने आरम्भ किए जो अमेरिका आदि में 1995 में किए गए थे. यहाँ न सरकार के पास इतना पैसा है नई टेक्नॉलजी को ढूँढने / क्रियान्वित करने का और न ही जनता में यह ईको सिस्टम है. ऐसे में हम पूरी तरह से पश्चिम देशों की खोजों को स्टेबल हो जाने के पश्चात उन्हें कापी करते चलते हैं. ज़्यादातर केस में उन्ही की कम्पनियों के भारत में टाई अप होते हैं. तो यहाँ भी अब ev की आहट सुनाई देने लगी है. 2030 तक भारत में भी सड़कों पर पर्याप्त ev दिखने लगेंगे.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि तेल बेचने वाले देशों की मनॉपली समाप्त हो जाएगी. बैटरी बनाने वाले देशों का प्रभुत्व बढ़ेगा. नए पावर सेंटर बनेंगे.

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