हमारे यहां एक कहावत है
“खाली बैठा बनिया भी बांट-तराजू तौलता रहता है।”
जो लोग सोचते हैं कि बनियाँ वर्ग इतना समृद्ध क्यों है उसका राज इसी कहावत में छिपा है।
जिन जातियों, वर्गों ने इसी सूत्र का अनुसरण किया वे समृद्ध हो गईं।
गुजरात के पटेल, पंजाब के सिख इसके उदाहरण हैं।
सिख तो कर्मठता का ही पंथ है जहाँ अकर्मण्यता को ‘पाप’ माना गया है।
डेढ़ करोड़ लोग तीन साल से ‘इंतजार’ में हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। अगर प्रतिदिन की न्यूनतम आय 200 रुपये भी मान ली जाए तो भारत के इन सपूतों ने प्रतिवर्ष 200 कार्यदिवस के आधार पर तीन वर्ष में राष्ट्रीय आय का खरबों रुपये का घाटा दिया है।
पर इस समस्या का दूसरा पहलू भी है।
हमारा दोगला समाज।
“लोग क्या कहेंगे?”
खाली बैठने का ये ‘पाप’ मैंने भी किया है और जब मैंने एक स्कूल में नाम मात्र की सैलरी पर नौकरी स्वीकार की तो ठाकुर साहब (पिताजी) बोले बस यही करना बाकी रह गया है? आई ए एस से सीधे स्कूल का टीचर?
दूसरी ओर हमारे क्षेत्र के एक नाई बंधु को मैंने सैलून की दो अलग दुकानों में बैठकर श्रृंखला खोलने का सुझाव दिया तो उसने दुःखी होकर कहा, “क्या फायदा सर। करोड़ों कमा लें तब भी हमारी औकात नाई की ही रहेगी।”
मेरे कुरेदने पर उसने बताया कि राम मंदिर के मुद्दे पर जब सभी हिंदुओं की बैठक हो रही थी तो उसने भी उत्साहित होकर कुछ कहा तो पीछे से आवाज आई,
“अब नउए भी बोलेंगे और हम सुनेंगे?
“सर मैं नाऊ, मेरा बेटा नाऊ लेकिन मेरा पोता नाऊ नहीं होगा। चाहे लाखों रुपये खर्च करने पड़ें पर या तो सरकारी नौकरी और नहीं तो प्राइवेट कंपनी में नौकरी। बीस हजार रुपये महीने मिलेंगे पर इस नउआगिरी से मिले लाख रुपये महीने से बेहतर होंगे।”
ये है हमारा पाखंडी समाज जो किसी म्लेच्छ के थूक को खुशी खुशी अपने सिर पर चंदन समझकर लेता है लेकिन अपने एक रामभक्त बंधु का जातीय तिरस्कार करता है।
इसीलिये जो लोग फैमिली स्किल की बात करते हैं उनके मन में एक कुटिल भावना भी छिपी है कि तुम लॉन्ड्री बिजिनेस करो, तुम सैलून खोलो, तुम चमड़ा उतारो….ब्ला.. ब्ला..ब्ला… हम राज करेंगे क्योंकि हमने राज किया है।
जरा बताइये ब्राह्मणों ने ‘महाराज’ का काम क्यों छोड़ दिया?
क्योंकि उसमें ‘सम्मान’ नहीं बचा था।
तो अपवादों को छोड़कर ऊँची जाति के लोग चमड़ा उतारने, सैलून खोलने और लॉन्ड्री बिजिनेस में क्यों नहीं उतरते? करके तो देखो, ‘वे’ फिर अपने  पैतृक धंधे में लौट आएंगे क्योंकि वे आपका ही अनुसरण करते हैं और उनमें नौकरी की होड़ हमने ही तो पैदा की है। आज ऊँची जाति का व्यक्ति इन ‘नीचे कार्यों’ के स्टार्टअप में नहीं उतरेगा क्योंकि फिर उसकी शादी भी मुश्किल हो जाएगी। कोई नाई, धोबी, पिछड़ा अब पुश्तैनी धंधे को नहीं बढ़ाएगा क्योंकि सफलतम होने के बाद भी उसे हमेशा याद दिलाया जाएगा कि उसकी जाति क्या है और कितना तुच्छ है।
इसलिये ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ और विशेषतः सरकारी नौकरियों की मारामारी ऐसे ही बनी रहेगी।
सरकारें भी जनदवाब में ऐसे ही वैकेंसी निकालती रहेंगी,
फिर दो तीन साल के लिए टाल देंगी कि अगली सरकार भुगतेगी,
फिर अभ्यर्थी ऐसे ही इंतजार में बैठकर ठलुए बने बैठे रहेंगे,
फिर सालों तक सड़ी चुकी युवा ऊर्जा सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करवाएगी,
फिर सरकारी बनाम गैर सरकारी बनाम निजी उद्यम की बहस चलेगी,
कुछ दिन बाद फिर सब कुछ नॉर्मल हो जाएगा और अभ्यर्थी नई वैकेंसी खुलने का इंतजार करने लगेंगे।

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