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ब्रेख़्त के नाटक

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बर्तोल्त ब्रेख़्त को अभी तक पढ़ते और सुनते रहे हैं। ब्रेख़्त के नाटक भी। लेकिन आज ब्रेख्त को देखना भी नसीब हुआ। हे ब्रेख़्त के मार्फत। ब्रेख़्त को देखना , महसूसना और उन में खो जाने का यह अवसर दिया आज लखनऊ की नाट्य संस्था दर्पण ने। लखनऊ के संगीत नाटक अकादमी के बाल्मीकि रंगशाला में उर्मिल कुमार थपलियाल द्वारा लिखित और निर्देशित हे ब्रेख़्त के मार्फ़त सत्ता व्यवस्था को चुनौती के सफ़र और इस पर निरंतर चोट और चोट से निकलती आग से गुज़रना था। ऐसी आग जो इस सर्दी को भी सुन्न कर दे। थपलियाल ने इस नाटक में जगह-जगह ब्रेख़्त की कविताओं को गूंथ कर व्यवस्था की विद्रूपता को एक नया ही रंग परोस कर उस पर करारा और कारगर हथौड़ा चलाया है।

 

सत्ता जैसी भी हो , जिस की भी हो सर्वदा ही निर्मम और खतरनाक होती है , यह तो हम सब जानते हैं। लेकिन ब्रेख़्त इस की भयावहता भी जानते हैं , जिस से क्षण-क्षण परिचित करवाते मिलते हैं। सत्ता-व्यवस्था और युद्ध दोनों ही ब्रेख़्त की रचनाओं में अपनी पूरी त्वरा के साथ उपस्थित मिलते हैं। उर्मिल थपलियाल ने ब्रेख़्त के इस ताप को ही अपने इस नाटक में औज़ार बना कर आज की सत्ता से टकराने की नायाब चुनौती पेश की है। यह चुनौती सर्वकालिक है फिर भी इसे अगर आज थपलियाल के दिए गए वक्तव्य से जोड़ कर देखा जाए तो बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। उर्मिल कुमार थपलियाल ने बहुत साफ़ कहा कि नाटक हमेशा वर्तमान में होता है। सच भी यही है। थपलियाल के इस कहे को सुन कर कारंत की याद आ गई। ब व कारंत कहते थे कि शकुंतला हमेशा प्रासंगिक रहेगी। क्यों कि शकुंतला हर युग में छली जाती रही है। छली जाती रहेगी। तो इसी तरह सत्ता-व्यवस्था और युद्ध भी हमेशा ही निंदा के विषय रहे हैं और कि रहेंगे। नाटक इसी लिए सर्वदा वर्तमान का होता है।
इस नाटक में बार-बार हिटलर का नाम भले आता है लेकिन आज का हिटलर कौन है नाटक , हे ब्रेख़्त इस बात को समझने का पर्याप्त स्पेस दृश्य-दर-दृश्य परोसता मिलता है। क्षण भर का भी अवकाश नहीं देता हे ब्रेख़्त नाटक कि आप आज के हिटलर को भूल सकें। नाटक के लेखक और निर्देशक उर्मिल थपलियाल ने संवाद और दृश्यबंध इतने कसे हुए और इतने मारक रचे हैं कि सत्ता व्यवस्था पर पूरी ताक़त से प्रहार करते हैं। और इस कुशलता से करते हैं कि सर्वकालिक बन जाते हैं। आप ख़ुद देखें :
ख़राब रोटी और ख़राब इंसाफ़ / दोनों को फेंक डालो / देर से मिली रोटी और देर से मिला इंसाफ़ दोनों बासी होते हैं / नाकाफी और बेस्वाद
या फिर
हम / बम / खतम
ब्रेख़्त के बहाने सत्ता-व्यवस्था से टकराने की यह शाम सचमुच सुर्खरू रही। उर्मिल कुमार थपलियाल का नाटक हो और बिना गायन , बिना संगीत के हो , नामुमकिन। तो नाटक में बतियाता हुआ गीत-संगीत भी आक्रोश को धार और मोड़ देता हुआ ही मिला। भावना खुल्बे , क़ायम रज़ा और सौरभ कुमार मिश्र ने गायन किया। संगीत उर्मिल थपलियाल का था। रोज़ी दूबे , नितीश भारद्वाज , अर्चना शुक्ला , रीतुन थपलियाल मिश्रा , युवराज विक्रम सिंह , अर्पित कटियार , प्रियांशी पाल , पंकज सत्यार्थी , दुर्गेश सिंह , अमन भारद्वाज , अखिल राज श्रीवास्तव आदि कलाकारों के शानदार अभिनय ने नाटक को पूरी गति और अंदाज़ दिया।
खुशी की बात यह भी है कि अब दर्पण , लखनऊ अपने 50 वे साल पूरे कर रहा है तो उर्मिल कुमार थपलियाल अपने रंगकर्म के 60 बरस पूरे कर रहे हैं। यह उपलब्धि भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती। कहते ही हैं कि पुरानी शराब का स्वाद और मजा ही और है। हे ब्रेख़्त में दर्पण की यह प्रतिष्ठा भी दिखी और उर्मिल थपलियाल के रंग का जादू भी। बच्चन जी की पंक्ति में कहूं तो बने रहें ये पीने वाले , बनी रहे ये मधुशाला। दर्पण , लखनऊ अगर अपने पचास साल पूरे कर रहा है तो दर्पण के नाटक देखते हुए मुझे भी 40 बरस हो चले हैं। और पाया है कि नाटक कभी भी विलंब से नहीं शुरू होता। हमेशा घड़ी देख कर निश्चित समय से। हाल खचाखच भरा हुआ। यह रंग , यह गति , यह दर्पण सर्वदा ऐसे ही अपने पन में बना रहे। यही तमन्ना है।

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