महंत नरेंद्र गिरी जी का शव फंदे से लटकता मिला है, पहली नजर में ये आत्महत्या लग रही है।
सबको ‘सामंजस्य’ सिखाने वाले लोग खुद परिस्थितियों से सामंजस्य क्यों नहीं बैठा पाते !
‘अपनी स्थिति से राजी हो जाओ’ कह लेना जितना आसान है क्या उसे कर पाना मुश्किल है ? नहीं, अगर प्रतिशत से देखेंगे तो बिल्कुल मुश्किल नहीं है। हर व्यक्ति यहाँ हर दिन अपनी कोई ना कोई शर्त, आशा, इच्छा, उम्मीद हार ही रहा है लेकिन फिर भी वो जिंदा रहना चाहता है और रहता भी है क्योंकि आत्महत्या करना अस्तित्व का अनादर है।
ये जीवन किसी की सारी माँग पूरी नहीं करता। ये जीवन किसी को आलोचना से रहित राजसुख नहीं देता। ये जीवन ‘अनगिनत कमियों’ के साथ ही मिलता है, कोई व्यक्ति हर वक्त पूर्ण नहीं हो सकता। फिर अपने को इतने आडंबर को क्यों बांध लेना कि किसी चीज की चिंता जीवन की खूबसूरती को खा जाए !
सरल और सहज होना ही संतुष्टि की चाभी है। प्रकृति आत्महत्या नहीं सिखाती, ये आप्रकृतिक है। इसी संसार में हजारों पीड़ा से गुजर रहे लोग ‘आने वाले कल’ को लेकर आशावान है, उन्हें इस आशा में बने रहने के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु की जरूरत नहीं, उनकी आंतरिक शक्ति ही उन्हें ‘आशा’ के अलावा कोई और विकल्प नहीं सुझाती। लेकिन विचारवान लोग अधिकतर टूट जाते हैं, उनका ‘विस्तृत ज्ञान’ उन्हें ‘दूसरे विकल्पों’ के बारे में भी बता देता है।
इतिहास गवाह है कि क्षमा, दया, त्याग और धैर्य की बातें करने वाले अधिकतर लोग अंदर से इन्हीं की कमी से जूझते रहते हैं। जब भी आदमी बड़ा होता जाता है तो वो ‘नकली’ होता जाता है, उसका ‘स्वभाव’ तो वही रहता है लेकिन उसकी ‘स्वाभाविकता’ खो जाती है।
हम सभी को अपनी नई पीढ़ी को बताना होगा कि आत्महत्या कभी कोई विकल्प नहीं होता और वो हर आदमी सफल है जिसने ‘अपनी जिंदगी को पूरा जिया’ है।
– रुद्र