कासगंज में एक पुलिस थाने में मजलूम अल्ताफ की किस तरह मौत हुई, यह हम सबने देखा। पुलिस ने सिद्धांत दिया कि दो फुट ऊंची पाइप से अपनी जैकेट के हुड की रस्सी निकालकर अल्ताफ ने फांसी लगा दी। बाप ने पहले कहा कि हत्या हुई, फिर एक चिट्ठी निकली जिस पर अंगूठा लगा था और कहा गया कि वह जांच से संतुष्ट है, फिर मां ने असंतोष जताया, पांच पुलिसकर्मी बर्खास्त भी हुए और ताजा समाचार यह है कि पांच अज्ञात (ध्यान दीजिएगा, अज्ञात) लोगों के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ है। मने, एसपी साब को पते नहीं है कि उनके थाने में कौन लोग काम कर रहे हैं?
सवाल यह नहीं है। सवाल है कि पिंकी दीदी ने जब जोरशोर से घोषणा कर दी कि वह कासगंज जाएंगी, तो फिर उन्हें रोका किसने और क्यों? जो ‘दादी की तरह नाक’ गोरखपुर के गुप्ता से लेकर आगरा के वाल्मीकि तक और लखीमपुर के सिखों तक पर माहौल गर्म कर देती हैं, वह ऐन मौके पर अकलियत के एक नौजवान के घर क्यों नहीं जातीं, जो पुलिस ज्यादती का शिकार हुआ है?
दरअसल, दिल्ली के छत्तीसगढ़ सदन में इस पर खूब मगजपच्ची हुई और शायद दीदी के कानों तक यह बात पहुंचाई गई कि दलितों और पिछड़ों तक तो ठीक है, लेकिन मुसलमानों की रहनुमा बनिएगा तो फिर ध्रुवीकरण हो जाएगा। खबर तो खैर यहां तक भी है कि कासगंज के मामले में एक ब्राह्मण लड़की का मूल मुद्दा शामिल है और शायद एसपी साब भी ब्राह्मण ही हैं।
तो, छग के सीएम बघेल से लेकर दीदी की चप्पल ढोनेवाले जेएनयू के बचकुंडे तक ने दीदी को सलाह दी कि चुप्पै होकर बैठ जाओ और दीदी बैठ गयीं, साथ ही आरफा से लेकर अजीत अंजुम और अभिसार तक के अपने भाड़े के लोगों को हिदायत भी दी कि सभी इस मसले पर चुप ही बैठें।